” आह…हा..कितनी अच्छी हवा आ रही है…कितना सुंदर व्यू(view)है..रवि, देखो ना..।” खिड़की से परदा हटाकर किरण ने अपने दोनों हाथ फैला दिये।रवि हाँ कहकर चुप हो गया।फिर किरण बड़े बाॅक्स में से सामान निकाल कर रैक पर सजाने लगी तभी आशु ने पूछ लिया,” मम्मा…दीदी- बड़ी मम्मी कब आयेंगे?” सुनकर उसके चेहरे पर नकारात्मक भाव उभर आये। तीखे स्वर में बोली,” उन लोगों से पीछा छुड़ाकर ही तो हम यहाँ आये हैं।”
” पीछा छुड़ाकर…।” रवि बुदबुदाया।खिड़की की तरफ़ देखकर सोचने लगा, ऐसी ही खिड़कियाँ तो मेरे अपने घर में थी…दीवारों का रंग भी सफ़ेद था तो फिर यहाँ क्यों…।
चार भाई-बहनों में रवि सबसे छोटा था।पिता के देहांत के बाद उसके बड़े भाई अशोक ने उनके कपड़ों की दुकान संभाली और घर की ज़िम्मेदारी भी अपने कंधों पर ले ली।लेकिन हर छोटे-बड़े फ़ैसले में माँ गायत्री से मशवरा लेना कभी नहीं भूलते थे।छोटे भईया प्रभात भी ग्रेजुएशन करके भाई के साथ ही दुकान पर बैठने लगे थे।
उषा इंटर में और रवि स्कूल में पढ़ रहें थे तब कुमुद अशोक की पत्नी बनकर घर में आई।भाभी के पास बैठने के लिये उषा और रवि में अक्सर ही लड़ाई हो जाया करती थी जिसे गायत्री जी को सुलझाना पड़ता था।
साल भर बाद ही सुलेखा प्रभात की पत्नी बनकर आ गई।फिर तो घर में खूब हँसी-मज़ाक होने लगे थे।कुमुद जब बेटी की माँ बनी तब काजल-सेंकाई(एक रस्म)में उषा ने भाभी से कान के झूमके लिये थे।रवि वहीं खड़ा था, तपाक-से बोला ,” भाभी मुझे भी…।” तब सब खूब हँसे थे।अब तो दोनों में भतीजी के साथ खेलने की होड़ होने लगी थी।
कुछ समय के बाद कुमुद फिर से एक बेटी की माँ बनी और सुलेखा की गोद में भी नन्हा-मुन्ना बालक खेलने लगा।पूरा घर बच्चों की किलकारी से गूँजने लगा था।
उषा सयानी हो गई थी।तब गायत्री जी ने पति के पुराने मित्र शिखरचंद के बेटे मनीष जो कि बैंक में काम करता था, के साथ उसका विवाह करवाकर अपनी एक और ज़िम्मेदारी से मुक्ति पा ली।
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रवि एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करने लगा तब अशोक के पास उसके लिये रिश्ते आने लगे।उसने माँ और प्रभात से विचार करके कुछ लड़कियों की तस्वीरें रवि को दिखलाई जिनमें से उसने किरण को पसंद किया।अशोक ने किरण के माता-पिता से मिलकर बातचीत किया और फिर धूमधाम से रवि का विवाह किरण के साथ कर दिया।
किरण जल्दी ही सबके साथ घुल-मिल गई।कुछ समय के बाद वो भी एक बेटे की माँ बन गई।गायत्री जी की सभी इच्छाएँ पूरी हो गई थी।अब उनका समय पोते-पोतियों से लाड़ करने और उनके झगड़े सुलझाने में बीत जाते थे।बहुओं के बीच आपसी तालमेल देखकर वो अक्सर अपने पति की तस्वीर के सामने खड़ी होकर कहतीं,” बच्चों को आशीर्वाद दीजिये कि इनका आपसी प्यार ऐसे ही बना रहे..।”
गायत्री जी अस्वस्थ रहने लगीं थीं।बेटे-बहू उनकी सेवा कर रहें थें किंतु उन्हें समझ आ गया कि अब समय निकट है।उन्होंने तीनों बेटों और बहुओं से कहा,” तुम सब ऐसे ही मिलजुल रहना क्योंकि अपनों का साथ ही इंसान के जीने की ताकत होती है।” कहते हुए उन्होंने अपने कंपकंपाते हाथ बच्चों के सिर पर फिराये और अपनी आँखें हमेशा के लिये मूँद ली।
देखते-देखते किरण का बेटा दो बरस का हो गया।एक दिन वो अपनी सहेली वंदना से मिलने उसके घर गई।उसके घर की साज-सजावट देखकर वो चकित रह गई।वंदना ने उससे कहा कि तू भी क्यों नहीं अलग हो जाती है..तू और रवि..तेरा अपना घर होगा..कोई बंदिश नहीं…अपनी मर्ज़ी की मालिक होगी और…।बस उसी दिन से वो रवि से अलग घर में रहने की ज़िद करने लगी।रवि के मना करने के बाद वो उससे झगड़ा करने
लगी..कुमुद और सुलेखा के साथ भी वह बत्तमीज़ी से पेश आने लगी थी।बच्चों को अपने कमरे में आने नहीं देती..बेटे आशु को भी उनके साथ खेलने नहीं देती।रवि ने उसे समझाने का बहुत प्रयास किया…उसकी भाभी नंदा ने भी कहा कि किरण..अपनों से अलग होकर तुम दोनों ही खुश नहीं रह पाओगे..परिवार के साथ रहने में ही सच्चा सुख है लेकिन वो अपनी ज़िद पर अड़ी रही।
घर के बदले माहोल से अशोक को चिंता होने लगी।उन्होंने रवि से कहा,” बहू की बात मान ले.. इतनी-सी बात पर उसका दिल दुखाना ठीक नहीं है।हम एक ही शहर में तो है..कभी भी आकर तुझसे मिल लिया करेंगे।”
” लेकिन भईया..।”
” अब कोई लेकिन- वेकिन नहीं…तू कल ही जाकर एक अच्छा-सा घर देख ले..।” कहते हुए अशोक ने नज़र बचाकर धीरे-से अपने आँसू पोंछ लिये थे।
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ट्रक में सामान लद जाने के बाद रवि अपनी भाभी के पैर छूने गया तो उसकी रुलाई फूट पड़ी थी।जिनकी अंगुली पकड़कर चला था, आज उन्हीं से अपना हाथ छुड़ा कर जाना उसके लिये कितना कठिन था।
नये घर में आकर किरण तो घर को सजाने में व्यस्त हो गई लेकिन रवि का मन बार-बार अपने भईया-भाभी के पास चला जाता था।किरण ने कितनी बेदर्दी से कह दिया कि पीछा छुड़ाकर..। उसकी आँखें नम हो आईं।
“पापा..सू-सू..।” कहते हुए आशु ने उसका हाथ पकड़ा तो वह हड़बड़ा गया।
” हाँ- हाँ..चलो..।” अपनी नम आँखों को पोंछते हुए वह आशु को वाॅशरूम ले गया।
परिवार से अलग रहना कुछ दिन तो किरण को बहुत अच्छा लगा लेकिन महरी(कामवाली) के न आने पर जब घर का सारा काम उसे करना पड़ा तो वह चिड़चिड़ाने लगी।रवि शहर से बाहर जाता तब उसे ही आशु को स्कूल ले जाना और वापस लाना पड़ता था।आशु को लेकर पार्क जाती तो कभी चाभी तो कभी पर्स भूल आती थी वो।हर वक्त वह परेशान रहने लगी तो एक दिन रवि पर बरस पड़ी।रवि तो मौके की तलाश में था ही, तुरंत बोल दिया,” तुम्हें ही अकेले रहने का शौक चढ़ा था।वहाँ तो आशु अपनी छोटी मम्मी और दीदियों के साथ ही खेलता रहता लेकिन तुम..।”
” ठीक है- ठीक है…।” कहकर किरण ने बात को वहीं खत्म कर दिया लेकिन मन ही मन वह अपने फ़ैसले पर पछता रही थी।
एक दिन की बात है, किरण आशु को स्कूल से लेकर आई थी।उसने अपना हैंडबैग सोफ़े पर रखा और बेटे के लिये सैंडविच बनाने किचन में जाने लगी कि तभी उसका पैर फ़िसल गया और वह ज़मीन पर गिर पड़ी।एक पल के लिये तो उसका दिमाग घूम गया क्योंकि रवि चार दिनों के टूर पर गये हुए थे।बड़ी मुश्किल से वह खड़ी हुई..धीरे-धीरे चलकर कमरे में गई और अपनी भाभी को फ़ोन करके सारी बात बताई।फिर आशु को पास बिठाकर चाॅकलेट देती हुई बोली,” अभी मामी आ रही हैं तो दूध दे देंगी।”
नंदा भाभी ने आकर देखा कि चोट लगने की वजह से किरण के दाहिने पैर में थोड़ी सूजन आ गई है और उसे दर्द भी हो रहा है।उन्होंने आशु को दूध दिया और किरण को पैर पर रखने के लिये आइस बैग भी दे दिया।फिर अपने पर्स से एक पेनकिलर निकालकर उसे खिला दिया और बोली,” अब मैं चलती हूँ।”
” पर भाभी…मैं अकेले कैसे..आशु…।” किरण रुआंसी हो गई।
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” मुझे भी तो अपने बच्चों को देखना है…तुम अपनी जिठानी को बुला लो…।” कहते हुए नंदा भाभी बाहर निकल गईं।भाभी के मुँह से टका-सा जवाब सुनकर वो मन में बोली, वो लोग तो दौड़े चले आयेंगे..मैं ही…।अब कैसे करूँगी..यही सोचते-सोचते उसकी आँख लगी ही थी कि काॅलबेल बजी।
किरण बोली,” कौन है..दरवाज़ा तो खुला ही है।”
” चाची…आशु..।” सामने कुमुद की बेटी को देखकर किरण चकित रह गई।फिर सुलेखा भाभी को देखी तो उसकी आँखों से आँसू बह निकले।
” आप लोग कैसे…।”
फ्लास्क से चाय निकालकर किरण को देते हुए सुलेखा बोली,” हम सभी एक ही वृक्ष की शाखाएँ हैं किरण…तुम तकलीफ़ में होगी तो क्या हमें दर्द नहीं होगा…।”
किरण सोचने लगी, ये लोग तुरंत आ गये और एक नंदा भाभी हैं जो आकर भी चलीं गईं।थोड़ी देर बाद प्रभात भईया भी डाॅक्टर को लेकर आ गये।कुछ दवायें लिखकर उसे सप्ताह भर पूरा आराम करने को कहा गया।आशु अपनी दीदी के साथ खेलने में मस्त हो गया। सुलेखा किरण से बातें करके उसका मन बहला रही थी कि तभी नंदा भाभी आ गईं।हँसते हुए बोलीं,” क्यों किरण..अपनी जेठानी से सेवा करवा रही हो।”
किरण हतप्रभ थी।तब नंदा भाभी ने बताया कि तुम्हारे ससुराल में मैंने ही खबर दी थी।अगर मैं रुक जाती तो तुम्हें अपनों का साथ कैसे मिलता…उनके प्यार का एहसास कैसे होता।
कुमुद और सुलेखा ने बारी-बारी से आकर किरण की देखभाल की और आशु को भी संभाला।नंदा भाभी और अशोक भईया ने रवि को फ़ोन पर कह दिया कि हम सब हैं किरण के पास हैं…तुम अपना काम पूरा करके आना।सबके बीच रहकर किरण को पहली बार अपनों के प्यार का एहसास हुआ…अपने पैर की तकलीफ़ तो उसे महसूस ही नहीं हुई।तब उसे अपनी सास की बात याद आई कि परिवार का साथ दुख को कम और सुख को दोगुना कर देता है।
रवि जब वापस आया तो किरण बदल चुकी थी।दो महीने के बाद रवि अपने सामान के साथ घर पहुँच गया और किरण-आशु को सामने करके कुमुद से बोला कि भाभी…आपने माँ- बेटे को बिगाड़ दिया है…अब संभालिये इन्हें..।कुमुद ने भी मुस्कुराते हुए अपनी देवरानी को गले से लगा लिया।
एक बार फिर से गायत्री जी के घर में बच्चों के हँसी-ठहाके गूँजने लगे।सुलेखा और किरण ने रसोई की कमांड अपने हाथ में ले ली…आशु के साथ खेलने के लिये तीनों बच्चे आपस में वैसे ही झगड़ते जैसे कभी उषा और रवि… कुमुद का समय उनके झगड़े सुलझाने में बीत जाता।घर की रौनक देखकर अशोक और प्रभात की आँखें खुशी-से छलछला उठी।
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विभा गुप्ता
# अपनों का साथ स्वरचित, बैंगलुरु
सच है, अपनों का साथ रहता है तो दुख आधा और खुशी दोगुनी हो जाती है।यह बात जैसे किरण को समझ आ गई, वैसे ही सभी को समझ लेना चाहिए।