पुनर्जन्म – शुभ्रा बैनर्जी : Moral Stories in Hindi

“काव्या ,ओ काव्या !अरे कहां हो तुम?देखो अभी एक और ऑर्डर आया है लंच का।छत से उतरोगी कब तुम?अभी बता दो क्या -क्या करना है मुझे?बाजार जाना है क्या?रविशंकर जी पत्नी काव्या के छत से नीचे आने की प्रतीक्षा लगभग घंटे भर से कर रहे थे।

बालों का जूड़ा बनाते हुए,माथे का पसीने पोंछते हुए काव्या ने सीढ़ियों से ही चिल्लाते हुए कहा”आ रही हूं बाबा।आप भी ना,इतना अधीर हो जातें हैं कि रट ही लगा लेतें हैं नाम की।तभी पड़ोस की विमला कहती हैं कि भाई साहब तो बस आपका ही नाम जपते रहतें हैं।अरे बुढ़ापे में थोड़ा तो लिहाज किया करो।”

रविशंकर जी ने झूठा गुस्सा दिखाते हुए मुंह बनाकर कहा”तुम्हें तो हर चीज से दिक्कत है।पहले तुम्हारी सुनता नहीं था तो ताने देती थी,अब आगे-पीछे घूमता हूं तो तुम खिसियाती हो।भगवान ही जाने तुम्हें खुश कैसे रख पाएगा कोई।मैं चाय बनाने  के लिए नहीं बुला रहा था तुम्हें।वो एक ऑर्डर और आया है,वही बता रहा था।एक तो तुमने मुझे ऐसा अरझा दिया है ना,कि हर आधे घंटे में फोन टनटनाता रहता है।”

काव्या ने मुस्कुराकर छत से लाए दो दिन पहले बनाए हुए आलू के पापड़ दिखाते हुए पूछा”खाओगे क्या पापड़,चाय के साथ?”रविशंकर जी के मुंह में पानी आ गया।उनके उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना काव्या ने बिना शक्कर की लैमन टी और आलू के दो चार पापड़ तल लाई।झट से प्लेट और चाय का कप हांथ में लेकर बोलें रविशंकर जी”सच काव्या,चाय के साथ ये पापड़ इतने स्वादिष्ट लगतें हैं ना,कि कुछ पूछो मत।तुम्हारा सुबह का उपमा तो जाने कब का पेट में भस्म हो गया।”

काव्या पति के साथ चाय और पापड़ खाते हुए,सामान की लिस्ट भी बनाती जा रही थी।बाजार से एक बार में आज ही ज्यादा सामान मंगवा लेगी। रोज-रोज बाहर जाने से ये थक भी जाएंगे। पति के फोन पर ऑर्डर देख कर रसोई में चाव से रखे स्लेट पर चॉक से तीसरे नंबर पर नया ऑर्डर लिख दिया,काव्या ने अपनी सुंदर हैंडराइटिंग में।

पति के हांथ में लिस्ट,थैला और पैसा थमाकर गेट से विदा किया काव्या ने।ऑटो में जाने की हिदायत दे दी थी।अंदर रसोई में जाकर सबसे पहले राहर की दाल कुकर में चढ़ाया काव्या ने।पनीर सुबह ही ताजा बनाया था।मटर भी उबाल कर रखे हुए थे।रजनी बस आने वाली ही थी।आटा गूंथकर रोटी बनवा लेगी साथ में।फ्रिज से पिसे मसालों के डिब्बे निकाल प्लेटफार्म पर सजा कर रख दिया काव्या ने। डोरबेल बजते ही दरवाजा खोलने पर रजनी हाजिर हुई।उसे आटा गूंथने का काम बताकर,काव्या सब्जी छौंकने लगी।

रजनी कई सालों से काम करती थी घर में।काम करते-करते बक-बक भी करती रहती थी वह।”दीदी,पता चला क्या आपको?तिवारी जी की बेटी वापस आ गई ससुराल से।पति से कहासुनी हो गई है।अब कहती हैं वापस नहीं जाएगी।मोनिका दीदी है ना, नागपुर जा रही हैं पति के साथ बेटे के घर।बहू को बच्चा होना है।अच्छा दीदी बबलू कब आएगा बहुरिया के साथ?”

कुकर की सीटी के साथ रजनी का प्रश्न आया था।कुकर आंच से उतारकर काव्या ने कहा”आएगा, छुट्टी तो मिले।भाभी भी नौकरी करती है ना।दोनों को एक साथ छुट्टियां मिले,तो आएं।तू जल्दी -जल्दी हांथ चला।दो बजे तक सब पैक करना होगा।फिर हम खाएंगे,ठीक है।”

काव्या ने रजनी के प्रश्न का उत्तर तो दे दिया,पर मां है ना।आंखें छलकने लगी बेटे -बहू को याद कर। रविशंकर ने आते ही काव्या का उतरा चेहरा देखा तो समझ गए उसकी पीड़ा।झट से सामान का थैला पकड़ाकर बोले”लो देख लो,एक -एक सामान देख सुनकर लाया हूं।अरे हां,तुम्हारा कटहल,मुनगा और पुदीना भी मिल गया है।ये तीनों तो तुम्हें इतने प्रिय हैं कि पूछो मत।अब तुम्हारा खाना खाने वालों का भगवान ही मालिक है।”

काव्या पति की चुटकी लेने की आदत से अनभिज्ञ नहीं थी।पलटकर विजयी मुस्कान के साथ बोली”रहने दो तुम।बड़ा खुश होकर खाते हैं बाकी लोग मेरा खाना,तुम्हें छोड़कर।चलो थोड़ी देर बैठो हवा में।घंटे भर में बन जाएगा सब।कुछ खाओगे क्या तुम?नारियल पानी पी लिया था या नहीं? रविशंकर जी ने इशारे से हां कहा और कमरे में चले आए आराम करने।

आंखें मूंदकर सोचने लगे रविशंकर “कितनी मेहनत कर सकती है इस उम्र में भी काव्या?माना मुझसे छोटी है उम्र में,पर पचपन पार हो गया है।इस उम्र में भी फुर्सत नहीं मिलती इसे खाना बनाने से।अतीत के काले साए मन में घुमड़र,आंखों से द्रवित होकर निकलने लगे।जमा-जमाया व्यापार था उनका।पिता जी और दादाजी ने मिलकर जमाया था।

दादाजी की मृत्यु पश्चात पिता ने जी -जान लगाकर व्यापार को आगे बढ़ाया।तीन भाई-बहनों में सबसे छोटे थे रविशंकर।पढ़ाई में मन नहीं लगता था उनका।झूठी कोचिंग की कहानी सुना-सुनाकर बहुत साल बर्बाद कर दिया था उन्होंने,साथ ही पैसे भी।बहनों की शादी बड़ी होने के कारण पहले ही कर दी थी पिता ने,अपनी सामर्थ्य के हिसाब से।

रविशंकर जी के परिवार में छोटे होने से मां का लाड़-प्यार ज्यादा ही मिला था।चिट-फंड की लत जब लगी ,तो व्यापार का पैसा उड़ानें लगे।बाजार से कर्ज लेने लगे थे,ब्लैंक चैक में दस्तखत कर।निठल्ले दोस्तों की महफ़िल में शराब की लत भी लगा ली थी उन्होंने।फिर धीरे-धीरे पिता को बेटे की अयोग्यता का दुख बीमारी दे गया।

लंबी बीमारी के बाद पिता चल बसे।मां और बहनों ने देख सुनकर काव्या से शादी करवा दी थी उनकी।ज्यादा पढ़ी-लिखी तो नहीं थी वह,पर घर चलाने में माहिर थी।खाना बनाने में अव्वल।उसके हांथ के स्वादिष्ट खाने की जब हर कोई प्रशंसा करता तो चिढ़ जाते थे वो।एक बेटा बबलू था।काव्या के लाख समझाने पर भी पैसे लुटाने की आदत नहीं छूटी उनकी।पचास पार करते ही शुगर और बी पी से ग्रस्त हुए।व्यापार नौकरों के भरोसे छोड़-छोड़ कर,कब अपना आधिपत्य खो दिया

उन्होंने पता ही नहीं चला।उन्हीं के मुंशी ने धोखे से कागजात पर हस्ताक्षर करवाकर पूरा व्यवसाय अपने नाम कर लिया।बेटे की पढ़ाई के लिए,बैंक से भी लोन लेना पड़ा। धीरे-धीरे सारी जमा-पूंजी चौपट होने लगी।काव्या ने तब अपने गहने बेचकर बेटे की पढ़ाई और घर खर्च चलाया।जब भी काव्या कुछ नया व्यवसाय शुरू करने की बात समझाती तो झिड़क कर कहते”

अरे,तुम्हारा रोना कभी खत्म ही नहीं होता।सारे शौक छोड़ दिए मैंने,तब भी तुम्हें शांति नहीं।बबलू की नौकरी लग जाने दो एक बार।ठाठ से रहेंगे उसके पास।अब मुझे नया कुछ करने की क्या जरूरत?ऊपरी हिस्से का किराया तो आ ही जाता है ना।”

काव्या मन मसोस कर रह जाती।ईश्वर की कृपा से बबलू के पढ़ाई पूरी करते ही उसे बैंगलुरू में अच्छे पैकेज पर नौकरी मिल गई।बबलू पापा से बहुत कम बात करता था,मां के ज्यादा करीब था।एक दिन बातों ही बातों में शिखा के बारे में बताकर कहा उसने”मम्मी,शिखा मेरे साथ ही काम करती है।हम प्यार करने लगें हैं एक दूसरे से।उसके पिता नहीं हैं।वह ज्यादा तामझाम से शादी नहीं करना चाहती,मैं भी नहीं।आप पापा से बात कर लीजिएगा।अगर वो मान गए ,तो हम किसी मंदिर में शादी कर लेंगे।हमारे पास भी कोई ज्यादा जमा -पूंजी है नहीं।”

बबलू शायद अपने पिता को देखकर इतना व्यवहारिक हो गया था।काव्या ने जैसे ही रविशंकर जी को शिखा और बबलू की शादी के बारे में बताया, आगबबूला हो गए वे।सबसे पहले यही कहा”क्या भिखारी हैं हम लोग?मंदिर में क्यों होगी शादी?हमारे खानदान में कभी किसी ने ऐसी शादी नहीं की।मैंने कितने सपने देख कर रखे हैं अपने बेटे की शादी के,और तुम्हारा बेटा ऐसी ओछी हरकत पर उतर आया।ये सब तुम्हारी सीख का ही नतीजा है काव्या?समानता और सद्भावना का जो पाठ बचपन से पढ़ाया है ना तुमने,अब भुगतो।”

बबलू ने पहली बार उन्हें आईना दिखाया”पापा, मम्मी ने भी मेरी शादी के सपने देखे होंगें।हकीकत में शादी धूमधाम से करने की स्थिति में हैं क्या हम लोग भी?शिखा के पापा नहीं‌ हैं और बात है,पर मेरे तो हैं ना।क्या उन्होंने बेटे की शादी की तैयारी कर के रखी है?”

बबलू के कटु परंतु सत्य ने अंदर से झकझोर दिया था रविशंकर को।झूठ कहां कहा उसने।सौ प्रतिशत खरी बात कही थी।एक पैसा भी बचाया नहीं था उन्होंने,उल्टे बाजार में अब भी कर्ज था।बेटे की सहनशीलता और धीरज पर अब बहुत घमंड होने लगा उन्हें।बबलू की शादी ठीक वैसे ही हुई ,जैसे वह चाहता था।अपनी दिखावे की आदत के विपरीत,विवाह का भोज मंदिर में छोटी मात्रा में करवाया रविशंकर ने।वहां दीन-दुखियों को पूड़ी सब्जी और हलवा खिलाकर आत्मा तृप्त हो गई थी

उनकी।कुछ महीनों में बबलू जिद कर के उन दोनों को अपने पास ले आया।वहां काव्या ही खाना बनाती।शिखा ने एक दिन मजाक में सास के हांथ के खाने की तारीफ करते हुए कहा”वाह, मम्मी जी वाह!आपके हाथों में तो जादू है।आप एक रैस्टोरेंट खोल सकती हैं।खूब चलेगा यकीन मानिए।शशि (बबलू) को भी राहत मिलेगी

आप लोगों की चिंता से। तनख्वाह मिलते ही सबसे पहले आप लोगों को पैसा भेजने की पड़ी रहती है इन्हें।अब आप ही बताइए,इतने बड़े शहर में दोनों कमाकर भी कुछ बचा नहीं पाते,तो बच्चे के बारे में कैसे सोच सकते हैं?”

बहू ने मजाक में जो ताना मारा था वह काव्या से ज्यादा रविशंकर जी को व्यथित कर गया।शिखा अच्छी लड़की है,पर ऐसे कैसे काव्या को बात सुना सकती है?बबलू ने भी कुछ नहीं कहा क्यों?उसी रात बेटे के घर में  पत्नी काव्या के साथ जब कमरे में सोने गए तो काव्या का हांथ पकड़ कर बोले रविशंकर जी”काव्या ,मुझे माफ़ कर दो।

आज तक मैंने तुम्हारे स्वाभिमान को घमंड ही समझा।कभी किसी के सामने हांथ ना फैलाने की तुम्हारी आदत ही तुम्हारा गुरूर है।तुमने बहुत कोशिश की, मुझे मेरे आत्मसम्मान को जीवित करने में,पर मैं मूर्ख समझ ही नहीं पाया।शिखा के तो पिता हैं नहीं पर मैं तो होकर भी नहीं के बराबर हूं।साठ साल भी नहीं हुए मेरे,और मैंने खुद को रिटायरमेंट दे दिया।

बेटे की कमाई पर अपना एकाधिकार समझने की बहुत बड़ी ग़लती की है मैंने।अरे,हम माता -पिता हैं , बुजुर्ग होते ही क्यों आश्रय मांगने लगते हैं बच्चों से?हमें स्वयं अपने बुढ़ापे का सहारा ढूंढ़कर रखना चाहिए,

ना कि बच्चों को लाठी बनाकर घसीटे जाएं अपनी जिंदगी।काव्या,तुम हमेशा से कह रही थी ना कुछ नया व्यवसाय शुरू करने को।तो चलो हम दोनों मिलकर अपने लिए,अपने मुताबिक,अपनी शर्तों पर कुछ नया काम शुरू करते हैं।मैं वचन देता हूं ,तुम्हारी मदद करूंगा।बस तुम मन बना लो।”

काव्या हतप्रभ होकर व्यवहार के विपरीत व्यवहार करते हुए अपने पति को देखने लगी।इन्हें तो वह नहीं जानती।ये व्यक्ति तो दंभ हीन साधारण पुरुष था,उनका पति तो बिल्कुल भी नहीं।पत्नी के समक्ष अपनी ग़लती मान लेना रविशंकर जी का चरित्र नहीं हो सकता।खुद को चींटी काटकर सपने से बाहर निकलने को हुई काव्या ,

तो पति ने बड़ी मासूमियत से कहा”भरोसा नहीं होता ना तुम्हें अब मुझ पर।मेरा विश्वास करो काव्या,अब मैं समझ गया हूं वो सब ,जो तुम पिछले कई सालों से अनवरत मुझे समझाने की चेष्टा करती रही।बोलो भी अब ,कौन सा व्यवसाय करें हम?”

काव्या ने जैसे ही मुंह खोला”अपनी रसोई”शब्द रविशंकर के शब्दों से मेल खा गए।शादी के तुरंत बाद पति के पूछने पर बताया था उन्होंने अपना “अपनी रसोई “का शौक।खुशी से चहकते हुए तुरंत काव्या ने बबलू से लौटने की टिकट बनवाने को जैसे ही फोन कर कहा,दोनों पति-पत्नी दौड़ कर कमरे में आ गए।शिखा ने हांथ जोड़कर काव्या से रोते हुए कहा

“मम्मी जी,मुझे माफ़ कर दीजिए।मैं आप लोगों को दुखी नहीं करना चाहती थी,ना जाने कैसे मेरे मुंह से वो सब निकल गया।यह आपके अपने बेटे का घर है।आप हमारे साथ रहिए हमेशा।अपने आशीर्वाद की छाया में रखिए।ऐसे रूठ कर हमें छोड़कर मत जाइये।ये मुझे कभी माफ नहीं करेंगे।प्लीज़ पापा जी,माफ कर दीजिए मुझे।”

गिड़गिड़ाते हुए शिखा की आंखों से गंगा-जमुना पोंछते हुए काव्या की जगह रविशंकर ने कहा”बेटा,आज तुम्हारी वजह से मैंने अपनी पत्नी में छिपे हुनर को जाना।ज़िंदगी भर पैसों की इज्जत नहीं की मैंने,उल्टे हांथ आई लक्ष्मी को गंवा दिया था।बबलू के भेजे हुए रुपये खर्च नहीं किए हमने।हम उन्हीं पैसों से एक रसोई शुरू करेंगे।इतना बड़ा घर है।रजनी भी है मदद करने को।मैं तुम्हारी मम्मी के शौक को व्यवसाय में बदलना चाहता हूं।उसके स्वादिष्ट खाने की तारीफ करने के बदले नुस्ख ही निकालता आया हूं अब तक।अब हम दोनों मिलकर अपनी जिंदगी को एक नई दिशा देंगे।आजकल तो घर के खाने की बड़ी डिमांड है।हमारे यहां कितने लोग ऐसी कैंटीन चलाते हैं।तुम लोग जब छुट्टियों में आओगे,तो नए-नए तरीके बता देना अपनी मम्मी को।वह सचमुच अन्नपूर्णा है।”

एक छोटी सी बात जो रविशंकर जी कभी नहीं समझ सके,आज बहू के ताने ने समझा दिया।एक परिवार में फूट पड़ने से बच गई।बुढ़ापे का सहारा लेकर खुद के बुढ़ापे को कोसना नहीं पड़ेगा अब।समय भी कट जाएगा और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी हो सकेंगे।काव्या के साथ अपने शहर लौटते ही “अपनी रसोई “चालू कर ली रविशंकर ने।काव्या ने भी ऑर्डर उन्हीं के फोन नंबर पर लेना तय किया,ताकि उनका भी व्यापार में मन लगा रहे।बाजार से सामान लाना, सब्जियां काटना,पापड़ -अचार पैक करना और भी ऐसे ना जाने कितने सारे काम पति परमेश्वर करते थे अब।हर ऑर्डर डिलीवर होने से पहले उनकी जीभ के नीचे से पास होता था।हां रविवार को रात की छुट्टी।वह समय काव्या को पिक्चर या चौपाटी ले जाने का निश्चित कर रखा था रविशंकर ने।

“आइये,चखकर बताइये,कैसा बना है!पैक करने का समय हो गया।सो गए क्या आप?उफ्फ!!!ये आपकी नींद भी ना।जब देखो तब बिन बुलाए आ जाती है दिन में,फिर रात को मोबाइल चलाते रहतें हैं।सुनिए;;;;जल्दी आइये।समय हो गया है‌।जोमेटो वाला आता होगा।”

रविशंकर जी मुस्कुराते हुए खड़े हुए।कभी पल भर के लिए चैन से सोने नहीं देती ये औरत,ऊपर से खुद झपकी मार देगी अभी दोपहर में।

“हां!!!लाओ भई,आ गया।देखें कैसा बना है आज का लंच मैन्यू।”

चटखारे ले लेकर पति को खाते देखना भी काव्या के लिए एक सुखद अनुभूति थी।सास ठीक ही कहतीं थीं कि “बहू,बुरा वक्त आदमी के जीवन को एक नई दिशा दिखा जाता है।”

आदमी स्वत:ही बदल जाता है।

शुभ्रा बैनर्जी 

#हमारा बुरा वक्त हमारे जीवन को एक नई दिशा दे जाता है

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