मैत्रेई”बड़ा ही विशिष्ट महसूस होता था अपने आप में यह नाम। सामान्यतः देखने -सुनने को नहीं मिलता था यह नाम। मैत्रेई की मां ने रखा था उसका नाम। अर्थ जानने की कभी जिज्ञासा ही नहीं हुई। मां-पापा तो “मीतू”ही बुलाते थे।भाई -बहनों ने मीतू दीदी कहा,और मोहल्ले में मीतू ही प्रसिद्ध था।बचपन में पापा के लाए हुए उपन्यास,मां से छिपकर पढ़ती थी।
ग़ज़ल,शायरी, कविताएं,कहानियां कुछ भी मिल जाए बस पढ़ना होता था।मां ने सख़्त हिदायत दे रखी थी”अगर परीक्षा में कम नंबर आए,स्कूल जाना बंद।”मैत्रेई निश्चिंत रहती,क्योंकि वह पढ़ाई भी मन लगाकर करती।
शादी से पहले लिखने का शौक तो था,पर संजीदा नहीं थी।किसी के जन्मदिन,शादी की सालगिरह या किसी दिवस विशेष के लिए पन्ने पर लिखकर दे देती थी मैत्रेई,मांगने पर।पिछले कुछ सालों से बेटी ने फेसबुक पर एकाउंट बना दिया था।तब से नियमित लिख रही थी।जीवन के सुख-दुख ही उसका आधार थे,लेखन का।बचपन की पढ़ी हुई गज़लों और शायरियों ने उसका उर्दू लहज़ा भी दुरुस्त कर दिया था।हिंदी तो उसकी पसंदीदा भाषा थी।
जीवन के बहुत सारे साल गुज़र गए थे।बच्चे अब नौकरी करने लगे थे।पति का हाल ही में देहांत हुआ था। व्यक्तिगत परेशानियों के चलते स्कूल की नौकरी से भी विराम ले रखा था।वैसे तो रिजाइन किया था,पर बेटी ने समझाया था”मम्मी,यह तुम्हारे जीवन के संघर्ष पूर्ण सफर का अल्पविराम है, पूर्ण विराम नहीं।”बेटी ने कहा तो अंग्रेजी में था
,पर मैत्रेई ने जब हिंदी में अनुवाद किया,शांति मिली।सच ही तो कहा था उसने,कब से भाग ही तो रही थी ज़िंदगी के पीछे।इसी बहाने थोड़ा रुकने का समय मिला।इसे अपने ऊपर खर्च करूंगी,सोचकर मैत्रेई लेखन में गंभीर हो गई। फेसबुक भी ना जादुई पिटारा ही है।कितने अनजाने मित्र मिल जातें हैं,इस पर।
कुछ दिनों से एक लेखक की पोस्ट पढ़कर बहुत अच्छा लग रहा था मन को।सधी हुई हिंदी कभी,कभी कसी हुई उर्दू।बिना नागा कमेंट करने लगी थी मैत्रेई।चंद पंक्तियों में कैसे इतना अच्छा लिखा सकता है कोई?उसे तो कविता ख़त्म करते ही नहीं बनती,बिना एक पन्ना भरे। डरते-डरते मैसेंजर पर संदेश भेजा।”बहुत अच्छा लिखते हैं आप।”
उस तरफ़ से तुरंत जवाब मिला”जी,शुक्रिया। कोशिश करता हूं लिखने की।”ऐसे ही बात-चीत बढ़ती गई।एक दिन उसने पूछ लिया”आप क्या करती हैं?”
“मैं टीचर हूं। नहीं-नहीं थी।”मैत्रेई ने गलती सुधारी ,तो तपाक से उसने कहा”ओह!!!!तभी मैं कहूं,कि आप इतनी जानी -पहचानी कैसे लग रहीं हैं।आपको जानकर हैरानी होगी,मैं भी टीचर हूं। इलाहाबाद में हायर सैंकेंडरी स्कूल में एडहॉक पर हूं।यू पी एस सी की तैयारी भी कर रहा हूं।”मैत्रेई सचमुच खुश ही हुई,कि किसी गलत आदमी से बात नहीं कर रही थी।उसने अचानक से उम्र पूछी,और पता चलते ही बोला”पर आपकी प्रोफाइल की फोटो तो बहुत सुंदर है।””हां,वह मेरी पुरानी फोटो है।बेटी ने उसी को डाला।”मैत्रेई ने उम्र का बड़ा फर्क देखकर कहा।
अब रोजाना पहले वह अपनी कविता मैत्रेई से अप्रूव करवाता फिर पोस्ट करता। मैत्रेई भी साधिकार त्रुटियां बताती।कुछ दिनों में ही दोस्ती सी होने लगी,तब मैत्रेई को यह उचित नहीं लगा।उसने कहा”तुमसे बहुत बड़े हैं हम।हमारे बीच दोस्ती कैसे हो सकती है?”
एक नंबर का हाज़िर ज़वाब था वह,तुरंत बोला”मैंने तो सुना था कि उम्र दराज़ लड़की से शादी नहीं हो सकती,पर दोस्ती नहीं क्यों हो सकती मैत्रेई?”
“क्या कहा तुमने?हमारा नाम लेकर बुलाया कैसे?जी लगाया करो नाम के साथ।हमसे इस तरह आज तक कभी किसी ने बात नहीं की।तुमसे अब कभी बात नहीं करेंगे हम।”मैत्रेई ने भुन्नाते हुए कहा,तो वह हंसकर बोला”सॉरी,मैत्रेई।मुझे यह नाम बहुत पसंद है। प्लीज़ मुझे बोलने दो ना।तुम बड़ी हो मुझसे,यह याद रखूंगा मैं।कभी अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं करूंगा।”मैत्रैई असमंजस में थी।बहुत सालों बाद किसी पुरुष ने उसे उसके नाम से बुलाया।”मीतू दी,मीतू बेटा,बहू, मम्मी, मैत्रेई मैम यही संबोधन सुनती आ रही थी सालों से।आज अचानक एक उम्र में छोटे लड़के के मुंह से अपना नाम सुनकर अंदर से बहुत अच्छा लगा।
संवादों का सिलसिला चलता रहा।मैत्रेई को पता भी नहीं चला ,कब वह अनजाना उसका इतना अच्छा मित्र बन गया।शालीनता की कोई सीमा वास्तव में नहीं लांघी थी उसने।अपनी छोटी-बड़ी हर परेशानी बताता,सलाह मांगता। कभी-कभी तो सोच भी लिया मैत्रेई ने कि अब बात नहीं करेगी,पर आखिर में उसकी बातों का जवाब दे ही देती। देखते-देखते चार साल हो गए।उसकी नौकरी अपने पैतृक निवास में ही लग गई।लिखना कम कर दिया था उसने। ट्यूशन ज्यादा पढ़ाने लगा था वह। मैत्रेई ने कहा भी एक बार”तुम अब बहुत मैच्योर हो गए हो।यू पी एस सी की तैयारी करना मत भूलना।तुम इंटेलीजेंट हो,देखना जरूर निकाल दोगे।”मुंहफट हमेशा यही जवाब देता”हां,वो तो मैं बचपन से ही हूं। बार-बार परीक्षा में बैठकर अपना मजाक नहीं बनाना चाहता।थोड़ी जिम्मेदारियां कम हो जाएं घर की,प्रीति (छोटी बहन)की शादी का कर्ज उतर जाए,फिर करूंगा सब छोड़कर अपनी तैयारी।अपनी एक किताब भी छपवाऊंगा।तुम्हें समर्पित करूंगा,आना ना तुम।”
“उफ्फ़!!!!इससे तो बात करना मतलब अपना सर फोड़ना है।मैत्रेई ख़ुद को ही कोसती।अपने दोस्तों की शादी की फोटो भेजकर कहता”मैत्रेई,तुम्हें मैं अपने लिए लड़की पसंद करने की जिम्मेदारी सौंपता हूं। बिल्कुल अपनी जैसी लड़की ढूंढ़ना मेरे लिए।पहले बेटे का नाम” शाश्वत” और बेटी का नाम”संध्या”रखूंगा।”
“हैं!!!!!!!अभी लड़की भी पसंद नहीं की,परीक्षा भी पास नहीं की और बच्चों के नाम भी रख लिए।वाह!!!!!जी वाह!!!!”मैत्रेई ने हंसकर कहा तो वह गंभीर होकर बोला”सुनो,तुम्हारे और मेरे उम्र में अंतर कुछ ज्यादा ही है,नहीं तो मैं तुमसे ही करता शादी।सच्ची!!!!मेरे बच्चों के नाम भी मैंने अपने इस अटूट रिश्ते पर ही रखें हैं।हमारे बीच का यह पवित्र रिश्ता”शाश्वत प्रेम”का प्रतीक है,और तुम “संध्या”की तरह मेरे जीवन में कभी ना मिलने वाला सुखद अहसास हो।
मैत्रेई,तुमने मुझे हमेशा सही मार्ग दिखाया।अगर तुम मेरी ज़िंदगी में नहीं आती ना,तो मैं भटक गया होता अपनी मंजिल से।मैं अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए छला गया एक हताश प्रेमी बनकर रह जाता।तुम्हारे निश्छल प्रेम और आशीर्वाद से ही मैं कुछ कर पाऊंगा ,कुछ बन पाऊंगा।जिस दिन मैं कुछ बना,तब सबसे पहले तुमसे आकर मिलूंगा।तुम मेरी प्रेयसी नहीं,प्रेरणा हो।”
मैत्रेई रोए जा रही थी,क्या जवाब में लिखे कुछ सूझ ही नहीं रहा था।क्या सच में मैंने इसे भटकने से बचाया, या इसी ने किसी ना किसी बहाने मेरे अस्तित्व को जिंदा रखा।ख़ुद से प्यार करना सिखाया।अपनी परवाह करना सिखाया।गंभीर हालातों में भी सहज रहना सिखाया।अपने घर की न्यूनतम आर्थिक परिस्थितियों में,अपनी जिम्मेदारियों और आकांक्षाओं के बीच समन्वय करता हुआ यह मास्टर,एक ना एक दिन जरूर कुछ विशिष्ट बनेगा।सम्मान तो मुझे सभी से मिला बहुत,पर आत्मसम्मान इसी ने बढ़ाया है मेरा। मैत्रेई उस लड़ाकू लेखक के संबोधन को बुदबुदा रही थी”प्रेयसी नहीं,प्रेरणा।”
शुभ्रा बैनर्जी