नीमा की असामयिक मौत उसके वृद्ध माता-पिता के लिए एक वज्रपात से कम नहीं थी। अनूप जो इस परिवार के घर में किराये पर रहता था,
वह भी इससे बूरी तरह आहत हुआ था। सुबह नींद खुलते ही उसे यह दुखद समाचार मिला और वह दिन भर थकावट भरी भाग-दौड़ में व्यस्त रहा
था। रात को बहुत देर से वह घर लौटा था। बिस्तर पर वह देर तक करवटे बदलता रहा, क्योंकि उसके जेहन में नीमा की स्मृतियां तैर रही थी और
नींद उचट गई थीं।
अनूप को नींद की क्षणिक झपकी आई और आते ही नीमा स्वपन में आ गई। उसने देखा , वह आहिस्ता से दरवाज़ा खोलकर कमरे के भीतर आई
थी। कुछ देर तक यूं ही दरवाज़े से सटकर खड़ी रही। उसने लाल राजपूतानी परिधान पहन रखा था और सिर से पांव तक गहनों से लदी थी। सदा
मुस्कराते चेहरे पर विषाद की गहरी परत चढ़ी हुई थी। धीमे कदमों से वह उसके पलंग की तरफ बढ़ने लगी। पलंग के पास आकर कुछ देर खड़ी-
खड़ी उसे एकटक देखती रही, फिर पलंग पर बैठ गई और उस पर झुकते हुए धीमे से बुदबुदाई- “ मेरा दाह संस्कार कर आये अनूप जी…..देखो न,
कितनी अभागन हूं, शमसान के बजाय घर में ही जला दी गई ! “ अपनी बात पूरी करते ही वह फूट-फूट कर रोने लगी थी।
अनूप सकपका कर उठ बैठा। वह पसीने से तरबतर हो गया था। उसने बत्ती जलाई और पूरे कमरे में भयमिश्रित दृष्टि से देखा-वहां कोई नहीं था।
नींद खुल गई। सपना टूट गया। नीमा एक झलक दिखा कर चली गई। वह अब इस दुनियां में नहीं है। न वह अब कभी आयेगी। बस यूं ही सपनों
में आकर रुलाती रहेगी। उसे इसी तरह तड़फाने के लिए आयेगी और उसकी गलती का अहसास कराती रहेगी। वह सोचने लगा – आज की रात
उसे जाग कर ही बितानी पड़ेगी, क्योंकि रह-रह कर नीमा की स्मृतियां का सिलसिला उसे विचलित और व्यथित करता रहेगा।
पंखा फूल स्पीड़ से चल रहा था, पर पसीना सूख नहीं रहा था। सिर भारी हो गया था। उसने निश्चय कर लिया था कि अब वह इस घर से चला
जायेगा। वह यहां नहीं रहेगा। यदि यहां रहा तो इस घर के हर कौने में उसे नीमा की परछाई दिखाई देती रहेगी। उसके मस्तिष्क में एक विचार
कौंधा-आखिर है उसका यहां क्या है ? वह किरायेदार ही तो है इस घर में।…..घर खाली कर कहीं चला जायेगा।
विचारों का द्वंद्व ठहर नहीं रहा था। कई तरह के विचार आ रहे थे। वह उठ खड़ा हुआ। खिड़की खोली। तेज बरसाती हवा माटी की गंध लेकर
भीतर आ गई। बाहर आंधी चल रही थी। पिछौला झील में रोड़ लाईटों के प्रतिबिंब लहरों पर तैर रहे थे। बरसात की हल्की फुंआरे भीतर आने लगी
थीं, पर उसने खिड़की बंद नहीं की और विचार मग्न हो झील के पानी को देखता रहा।
सहसा उसे याद आया -नीमा की शादी को तीन-चार दिन ही बचे थे। वह इसी तरह विचारों में डूबा झील के पानी को देख रहा था। वह सोच रहा था-
प्रेम कुछ नहीं होता, भावनाओं का ज्वार होता है, जो इन लहरों की तरह उठता है, फिर शांत हो जाता है- नीमा चली जायेगी। कुछ दिन उसे याद
करेगी, फिर नये वातावरण में ढल जायेगी। स्त्री जब मंगलसूत्र पहनकर पवित्र बंधनों में बंध जाती है, फिर वह उसी शख्स की हो जाती है, जिसके
साथ उसे पूरी जिंदगी गुज़ारनी रहती है।
अनूप के विचारों का वेग अचानक थम गया, क्योंकि नीमा पता नहीं कब कमरे आई और उसके कंधे पर अपनी ठोड़ी टिका उसने एक निःश्वास
भरा था। उसके सामिप्य से वह चौंका जरुर था, पर निःशब्द रहा। दोनो इसी स्थिति में चुपचाप खड़ रहे।
थोड़ी देर बाद नीमा भर्राये स्वर मे बोली-” पिछौले की लहरे गिन रहे हो , अनूप जी ? पर हमारे भीतर उठ रहे तूफान को नज़रअंदाज़ कर रहे
हो।..थोड़ासा साहस दिखाते, तो हमारी तक़दीर बदल जाती। ज़िंदगी जीने का मजा आ जाता।… खैर, अब हमारी शादी तो हो रही है। हमारी इस
घर से विदाई हो जायेगी, पर सच कह रहे हैं अनूप जी, हम आपके बिना जी नहीं पायेंगे …..हम जीते जी मर जायेंगे !” कहते-कहते वह सुबकने
लगी थी।-
वह पीछे पलटा। उसके गालों पर लुढ़क रहे आंसुओं को पौंछते हुए बोला, “अब पागलपन छोड़ो नीमा और ख़ुशी-ख़ुशी इस घर से विदा लो !
असम्भव को सम्भव बनाने की जिद छोड़ दो।….मैं भावुकता में ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहता हूं, जिससे तुम्हारे माता-पिता को तक़लीफ
हो और तुम्हारे माथे पर कलंक लग जाय।”
“आपको समझाते-समझाते हम हार गये हैं अनूप जी ! दाता की जिद और आपकी कायरता के कारण हमें आत्मसमर्पण करना पड़ रहा है,
जबकि मैं ऐसी अंधेरी बंद कोठरी में धकेली जा रही हूं, जहां मेरा दम घूटेगा….मैं वहां तड़फ-तड़फ कर मर जाऊंगी अनूप जी !”
मैं तुम्हें कहां लेकर जाऊं नीमा ?….मेरे पास इस समय कुछ भी नहीं है !….गांव में एक खपरेलु मकान है, थोड़ी बहुत खेती बाड़ी हैं..मैं ऐसे
वातावरण में तुम्हें नहीं रख सकता और न ही तुम रह पाओगी।…मैं आठ वर्ष से इस शहर में हूं-मैंने बीएससी किया, एमएससी किया और अब
पीएचड़ी कर रहा हूं। मेरे कठोर परिश्रम का ही परिणाम हैं, जिससे मैं आज यहां पहुंचा हूं, किन्तु मेरे पास जॉब नहीं है….थीसीस पूरी होने को हैं
और आशा है कि मुझे तब तक जॉब मिल जायेगा।…. नीमा ! बिना सोचे-समझे यदि में गलत कदम उठाता हूं तो मेरा करियर दांव पर लग
जायेगा। मेरा जीवन बर्बाद हो जायेगा…मेरे मां-बाप की आशाओं पर तुषारापात हो जायेगा।….और तुम्हारे पिता, जिन्होंने मुझे अपना बेटा
समझा और मुझ पर जरुरत से ज्यादा विश्वास किया, उस देवता पुरुष को मैं धोका नहीं दे सकता।….जो कुछ हमारे बीच हुआ, उसमें दोष तुम्हारें
साथ मेरा भी है।…मुझे अपने आपको नियंत्रित रखना था। खैर, अब मैंने अपनी भावनाओं पर भारी मन से नियंत्रण स्थापित कर दिया है और
तुम्हें भी यह करना होगा, क्योंकि जो सच्चाई है, उसे स्वीकारना होगा….तुम्हें सबकुछ भूल कर नया जीवन प्रारम्भ करना होगा !..हम जाने
अनजाने भावनाओं में बहकर ऐसा कुछ नहीं करेंगे, जिससे हमारे दिल तो जुड़ जायें, पर अपनों के दिल टूट जाये।”
नीमा ड़बड़बाई आंखों से उसे कुछ देर तक उसे घूरती रही, फिर उसके कंधे पकड़ उसे झकझोरती हुई बोली, ”आप अपना करियर दांव पर नहीं
लगाना चाहते, पर मेरा तो जीवन दांव पर लग रहा है। ….आप बहुत कायर है, निर्मोही है, निर्मम है और निष्ठुर है, अनूप जी !….आपने मेरे साथ
छल किय है…मैं आपको कभी माफ नहीं करुंगी”।
वह पलटी और सुबकते हुए तेज कदमों से चलती हुई कमरे से बाहर हो गई। अनूप आवाक हो उसे देखता रह गया।
{ आपको मेरा कथ्य, शिल्प, शैली पंसद आई हो तो इस पर अपनी प्रतिक्रिया दें ।
गणेश पुरोहित