प्रेम का हक… – रश्मि झा मिश्रा : Moral Stories in Hindi

“बरसात आ गई… आप इस बार भी छत की मरम्मत नहीं करवा सके… बताइए जिस पानी के लिए लोग तरसते हैं… उसी पानी को देखकर मेरी आंखों में पानी आ जाता है…!”

 रीमा का घर काफी पुराना हो गया था… छत का जो हिस्सा उसे मिला था… उसकी मरम्मत बनने के बाद से कभी नहीं हुई थी… लगातार बारिश होते ही पानी छत पर जम जाता और पूरा घर बारिश खत्म होने के बाद भी यहां वहां से टपकता रहता… 

रीमा के पति यूं तो ठीक ही कमाते थे… पर कभी घर की जरूरत पर अधिक ध्यान नहीं देते थे… इसलिए बरसात आते ही वह बेचारी फिर परेशान होकर नीचे समान ढंकने में व्यस्त हो गई थी…

 आंगन के दूसरे हिस्से में रह रही देवरानी का दो मंजिला नया मकान शान से भारी बारिश में सुरक्षित था… रीमा की देवरानी अनीता अपने बरामदे में कुर्सी डालकर आराम से बैठी थी… वहीं से बोली…” क्या हुआ दीदी… इस बार भी बारिश का रोना रो रही हो…!”

” हां तो और क्या… सब काम होता है तेरे जेठ जी से बस यही नहीं कर पाते हैं… छोड़ दिया है मुझे यूं ही परेशान होने को…!”

 घर से निकलते हुए देवर ने कहा… “भाभी नहीं होता है तो इधर ही आ जाओ ना… कितना करोगी…!” अनीता ने घूरकर पति को देखा… फिर बात चबाते बोली…” हां दीदी आ जाओ…!”

” अरे नहीं देखती हूं… दो-चार दिनों में तो जैसे ही मौसम बनेगा इस बार मैं खुद छत की मरम्मत करवाऊंगी…!”

 दो दिनों में बारिश तो थम गई पर अपने पीछे इतना पानी छोड़ गई कि चारों तरफ बाढ़ की स्थिति हो गई… ऐसी बाढ़ में रीमा के पति की नौकरी भी जाती रही… वैसे ही घर में छः खाने वाले थे और एक कमाने वाला… उसकी भी नौकरी चली गई…

 देवर के दो बच्चे थे… नौकरी भी अच्छी थी… उनके समय तो मजे में कट रहे थे… पर रीमा की जिंदगी बहुत कठिन हो गई… सास ससुर का बनाया जर्जर मकान उसके हिस्से आया था…

अनीता के पति ने आधे बने मकान को अपनी मेहनत से पूरा कर उसमें गृहस्थी बसाई थी… सास तो बहुत पहले गुजर गई थी… ससुर जी भी जाते-जाते दोनों बच्चों को उनका हिस्सा थमाते गए थे…

 रीमा का गुजारा अब अपने इस हिस्से के सहारे हो रहा था… आलोक रीमा के पति एक तो पहले ही घर का ध्यान नहीं देते थे… ऊपर से अब तो नौकरी भी हाथ से चली गई तो घर की कौन पूछे… बस इसी तरह दिन कट रहे थे…

 अनीता यूं तो थोड़ी कड़क मिजाज थी… पर दिल की बुरी नहीं थी… रीमा का दुख उससे छिपा नहीं था… पर कुछ मदद करने की सोचते ही उसके मन में आशंका हो जाती की एक दिन का रोग तो है नहीं… एक दिन मदद कर दूं तो कहीं बाद में पछताना न पड़े… इसलिए वह रीमा से थोड़ी दूरी ही बना कर रखती…

 रीमा का देवर अशोक सच्चे दिल से भैया भाभी और बच्चों की मदद करना चाहता था… एक दिन अनीता की नजर बचाकर अशोक ने भाभी को कुछ रुपए देने चाहे… पर रीमा ने मना कर दिया…” नहीं देवर जी ऐसे छुप कर नहीं… देना है तो सबके सामने दीजिए…!”

” सबके सामने कैसे होगा भाभी… आप तो जानती हैं अनीता को… क्लेश हो जाएगा…!”

” तो मत दीजिए अशोक… वही कीजिए जो अनीता चाहती है…!”

“भाभी कम से कम छत की मरम्मत तो हो जाएगी… भैया नहीं करेंगे मैं जानता हूं…!”

” रहने दीजिए अशोक… भैया नहीं करेंगे तो हम ऐसे ही रहेंगे…!”

 बेचारे मन मसोस कर रह गए… इस साल बारिश भी ऐसी थी की खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी… घर की हालत ऐसी हो गई की एक दिन घर का एक हिस्सा छत की मोटी परत साथ में लेकर गिर पड़ा… घर में पूरा कोहराम मच गया… आलोक को कुछ न सूझा तो उसने रीमा और बच्चों को उसके मायके भेज दिया…

” जाओ रीमा कुछ दिनों के लिए हो आओ… बारिश का मौसम खत्म होते ही कोई काम ढूंढ लूंगा… काम मिलते ही सबसे पहले घर की मरम्मत करवाऊंगा…!”

 रीमा क्या करती… घर की स्थिति देखकर वह बच्चों को लेकर मायके चली गई… महीने दिन रहकर बारिश बिता घर आई तो घर का तो नक्शा ही बदल गया था… ऊपर की सीलिंग अंदर और बाहर दोनों तरफ से बन रही थी… गिरा हुआ हिस्सा उठ चुका था… रीमा का मन खुशी से झूम उठा… भाग कर आलोक से बोली…

” वाह ऐसी कौन सी नौकरी लग गई… आपने तो घर को घर बना दिया… और मुझे बताया क्यों नहीं… रोज बातें होती हैं फिर भी…!”

” वह रीमा… अशोक और अनीता ने मना किया था…!”

” उन दोनों ने क्यों…!”

” वही तो बनवा रहे हैं घर…!”

 तब तक वे दोनों भी भाभी का स्वागत करने आ चुके थे…” तुम दोनों ने घर क्यों बनवाया…इसमें तो बहुत खर्च आया होगा…!”

 अशोक बोला…” हां भाभी खर्च तो बहुत आया… पर उससे ज्यादा आनंद मिला… संतोष आया…!”

 भाभी के कंधे पर हाथ रख चिहुंक कर अशोक बोला…” भाभी क्या मेरा तुम लोगों पर… इस घर पर कोई हक नहीं…!”

 अनीता भी पास आकर बोली…” दीदी जब तक यहां थी तब तक तो ठीक था… पर घर के कारण तुम्हें और बच्चों को घर छोड़ कर जाना पड़ा… यह भला हमारे होते कैसे सही लगता… इसलिए हमने अपने प्रेम के हक का इस्तेमाल करके घर की मरम्मत चालू करवा दी… जिससे कम से कम घर की परेशानी तो तुम्हें ना हो…

भैया की नौकरी से तो फिर घर बनने से रहा… तो क्या सारी जिंदगी मैं अकेले दोमहले पर बैठकर… खंडहर देखूंगी… इस घर में तुम रहोगी तब ना मेरी धौंस रहेगी…!”

” चल हट पगली… तुम लोगों ने इतना सब मेरे लिए किया…!”

” नहीं भाभी अनीता ने बताया ना आपको… यह आपके लिए नहीं हमारे लिए है… आप लोगों के बिना घर भी कोई घर है भाभी… साथ में हों या अलग… नजरों के सामने तो हैं ना बच्चे… इन्हें दूर कैसे रहने देता…!”

 सभी की आंखें खुशी और प्रेम से भीग गए…

स्वलिखित 

रश्मि झा मिश्रा 

#हक

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