सुरेशजी बैंक का काम निपटाकर घर आये। पत्नी माया ने कहा” सुनो आपके नाम एक लिफाफा आया है।”
“देखूं किसका है।” एयरमेल है। भेजने वाले के नाम पर मनीष का नाम देख वह चौंक गए! पत्र लिखने की क्या सुझी ?एक दो दिन आड़े तो फोन पर बातचीत हो जाती है। और छुट्टी के दिन विडियो कांफ्रेंस ।
“सुनो चिठ्ठी बाद में पढ़ लेना, पहले खाना खा लो मुझे कीर्तन में जाना है शर्माजी के यहां !
माया ने खाना परोस कर कहा।”
खाना खाकर माया चली गई, सुरेशजी ने लिफाफा खोला
मनीष के हस्ताक्षर देखकर उन्हें लगा, बचपन में सुलेख लिखते समय जो डांट उन्होंने मनीष को लगाई थी उसका फायदा अभी तक उसके लेखन में नजर आ रहा है ।उतने ही सुंदर हस्ताक्षर हैं।
मनीष ने लिखा था,
प्रिय पापा सादर प्रणाम, आप मेरी चिठ्ठी देख कर सोच रहे होंगे कि आज के हाईटेक जमाने में जब फोन पर बात कर सकते हैं तो पत्र लिखने का क्या औचित्य?
मन की सारी उलझन फोन पर विस्तार से कहना मुश्किल है इसलिए पत्र का प्रपंच। आप मेरी भावनाओं को समझ सकते हैं, यह विश्वास है।
इस कहानी को भी पढ़ें:
कल रोहन को स्कूल छोड़ने गया था, वह 4 साल का हो गया है यहां के हिसाब से अंदर न जाकर मैं स्कूल के गेट तक छोड़ आया। रोहन मेरा हाथ छोड़कर अंदर गया, मै कुछ देर उसे जाते हुए देखता रहा ।मुझे लगा मेरा बेटा स्ट्रांग है पर, उसी पल उसने मुझे मुड़ कर देखा ।उसकी आंखों में मुझसे दूर जाने का दुख नजर आया। मैं उसी पल कार में बैठ गया।
सच कहूं मुझे रोहन में मैं ही नजर आया ,और याद आया वह समय जब आप मुझे छोड़ने स्कूल आए थे।
मां ने सुबह-सुबह मुझे उठाकर तैयार किया। देख नया बस्ता,पानी की बोतल ,नए जूते सब नया। मां मेरा उत्साह बढ़ाने की पूरी कोशिश में थी। जब आप मुझे क्लास रूम में छोड़कर जाने लगे मैंने आप का हाथ कसकर पकड़ लिया।मुझे आपसे बिछड़ने , अनजान लोगों के बीच में होने से रोना आने लगा था। पर मैंने अपने आंसू रोक लिए।
यही भावना तब भी मन में थी जब मैं आगे की पढ़ाई के लिए यूएस.ए जाने . हवाई जहाज में बैठने वाला था। आप सब से, अपने देश, अपनी मिट्टी, अपने लोग सबसे दूर जाने का गम था, उस समय भी मैंने अपने आंसू रोक रखे थे।
आपके चेहरे पर मेरी कामयाबी का उत्साह नजर आ रहा था” देखो मेरा बेटा पढ़ने विदेश जा रहा है,जब आपकी फोन पर ताऊजी से हो रही बातें मैंने सुनी थी। आप गर्व से भर कर रहे थे “बेटा विदेश जा रहा है डॉलर कमाएगा,दुनिया देखेगा।
यहां रहकर उसकी क्या प्रोग्रेस होगी?”
यहां आने पर मुझे एहसास हुआ कि अपना देश अपने लोग क्या होते हैं? कई दिनों तक मुझे यही लगता था वापस आ जाऊ पर ,यह संभव नहीं था। धीरे-धीरे मैं यहां के माहौल में ढलने लगा करीब करीब साल भर बाद मैवहां आ सका ।तब भी मुझे पता था की मुझे वापस जाना ही है ।
जैसे-जैसे समय गुजरता गया मैं भी यहां रचने बसने में सफल होता गया। अब मुझे वह दुख नहीं होता था जो उसे समय होता था। समय बितता गया और मैं यहां का हो गया ।
नौकरी लगते ही मेरी शादी भी हो गई ,शादी जरूर मैंने आपकी पसंद से की, पर उसे भी यही आना था। नंदिनी का तो सपना ही विदेश जाना था,। हम जब भी वहां आते हमारी खूब आवभगत होती पर कहीं ना कहीं मेहमान होने का एहसास होता था।
इस कहानी को भी पढ़ें:
अब हमारा ग्रीन कार्ड बन गया तो हम यहां के निवासी हो गए ।आप और मां भी यहां मेरा घर देख चुके हैं मैंने आपसे यहा रहने की इच्छा भी जताई पर आपका यही जवाब था ज्यादा दिन मन नहीं लगता ,सो आप 4- 6 महीने में लौट गए थे।
धीरे धीरे हमारे बीच फासले बढ़ने लगे।बीच में मां की तबीयत खराब थी तब मैं वहां आया था। तब भी मैंने आपसे वहां चलने की विनती की थी। आश्चर्य मुझे तब हुआ जब आपने मेरे वापस आने की इच्छा जताई ।
पापा आपका बचपन खेत खलिहान बाग- बगीचे में बीता है आपको भी पेड़ पौधों से बहुत प्यार है आप जानते हैं एक नन्हा पौधा एक जगह से दूसरी जगह लगाने पर थोड़ी सी देखभाल से पनप जाता है पर एक पेड़ अगर अपनी जमीन से उखाड़ कर दुसरी जगह लगाए तो उसका अंत निश्चित ही है आप मेरी स्थिति को समझ सकते हैं।
यहां मुझे आकर दस साल से उपर हो गये है यहां जडे जमाने में मुझे कितनी ही मुश्किलों का सामना करना पड़ा। यहां का खान-पान मौसम अपनों का बिछोह सब सहकर में आज यहां इस मुकाम पर पहुंचा हूं। मेरा बेटा भी यही जन्मा है।।उस नाते उसकी नागरिकता यहां कि है।तो अब मेरालौटना असंभव है।
आप भी तो गांव छोड़कर शहर में नौकरी की वजह से आए थे
सुरेश जी को याद आया, जब उन्हें बंबई में नौकरी का अपाॅइंटमेंट लेटर मिला था। तब उनके पिता ने कहा था”सुरेश ये सारी जमीन जायदाद केवल तुम्हारी है, फिर नौकरी कि क्या आवश्यकता?पर तब उन्हें बड़ी पोस्ट और बंबई जैसे पाॅश शहर का आकर्षण खींच रहा था।
और वह बंबई आ गये। बाद में पिताजी सब बेच कर उनके पास आ गये थे।
मनीष ने आगे लिखा ,कल को मेरा बेटा भी बड़ा होगा तो वह भी मेरे साथ नहीं रहेगा वैसे भी यहां की संस्कृति में मां-बाप और बच्चे एक साथ नहीं रहते,
उन दिनों शायद मुझे भी इसी भावनात्मक दौर से गुजरना होगा। बुढ़ापे में शायद इंसान ज्यादा सेंटिमेंटल होजाता होगा।
मुझे पता है आप मेरी भावनाओं को समझ लेंगे आपकी संपत्ति जो आपने अपनी मेहनत से अर्जित कि है उस पर आप और मां दोनों का अधिकार है आप अपनी इच्छा से उसे दान करें
मैंने अपनी बात रखने कि कोशिश कि है।पता नहीं सही हूं या ग़लत।
आपका लाडला बेटा
मनीष (मन्नू)
पत्र पढ़ करसुरेश जी ने महसूस किया मनीष अपनी जगह पर सही है, केवल स्वार्थ वश उसे यहां बुलाना ठीक नहीं है,अगर वह आ भी गया तो भी उसकी स्थिति “घर का न घाट का” होगी सो वो जहां भी हो सुखचैन में रहे यही सब लिखने के विचार से उन्होंने कागज़ पेन उठाया।
————-_———————————–
लेखिका– प्रतिभा परांजपे जबलपुर