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हमारे गाँव के घर में बहुत बड़ी बाड़ी हुआ करती थी। बाड़ी में एक कुँआ उससे लगकर एक छोटा सा मकान था जिसमें “फूल” रहा करती थी। ‘फूल’ कोई फूल पत्तियों वाला ‘फूल’ नहीं बल्कि जीती जागती “फ़ूल” थी।बचपन से हम सब उन्हें “फूल” कहकर ही पुकारा करते ।
दरअसल, गाँव मोहल्ले में लोग आपस में अपने हिसाब से नाता जोड़ लेते और उसी के अनुरूप एक दूसरे को सम्बोधित भी करते थे । पापा चूँकि उन्हें मामी कहा करते, इस नाते वे भांजे हुए,गाँव के रिवाज़ के मुताबिक ,मामा मामी अपने भांजे भांजियों का नाम नहीं लेते । इसलिए वो पापा को “फूल” कहा करती। पापा भी उन्हें मामी न कहकर, ‘फूल’ कहनें लगे और सब बच्चे भी ‘फूल’ ही कहकर बुलाते, सो अब वो पूरे मोहल्ले के लिए “फूल” हो गयी थी।
यूँ तो ‘फूल’ को हमेशा से मैंने बूढी ही देखा। पर उनमें गज़ब की फुर्ती थी ….रोज़ सुबह कुँए से पानी भरती, घर आँगन बुहारती। चूल्हें में खाना पकाती, दिन भर बस इधर से उधर भागती दौड़तीं।
मैं अक़्सर उन्हें “गेंदा फूल” कहती और वो मुझे “चम्पा का फूल” कहा करती। छोटे छोटे गहरे लाल -मरून गेंदे के फूल हमारे घर की क्यारी में खिलते जो मुझे बेहद पसंद थे। चम्पा का पेड़, फूल के घर से लगा हुआ था । खूब फूल झरा करते मैं अंजुरी में भरकर फूल को दे देती उन्हें वे बहुत भाँते इस प्रकार हम दोनों ने ही अपनी अपनी पसंद के अनुरूप एक दूसरे को उपनाम दे रखा था।
फूल के घर मिटटी के बर्तनों में खाना पकता, जिसका सौंधापन, खाने का स्वाद बढ़ा देता।कई बार मुझे वे बड़े प्रेम से वो स्वादिष्ट भोजन बड़ी सी कांसे की थाली में परोसकर खिलाया करती। फ़ूल की अपनी कोई संतान नहीं थी, उन्होंने अपने पति की जबरदस्ती दूसरी शादी करवायी थी… उनसे एक बेटा हुआ, लेकिन वो चल बसी। बेटे की परवरिश ‘फ़ूल’ ने ही की।
उनके पति बाजार हॉट में नमकीन की दुकान लगाते, कम आय होती गुज़ारा मुश्किल होता ,तो फूल लोगों के खेतों में मज़दूरी करने जाती । जंगल से जलाऊ लकड़ी लाकर बेचती। जैसे तैसे पैसों का प्रबंध कर बच्चे को शहर भेजकर पढ़ाया… उसकी बैंक में जॉब भी लग गयी फिर उसका विवाह किया उनकी तीन संताने हुई ।
जब तक फूल के पति जीवित रहे, उनके बेटा- बहू ,बच्चे साल दो साल में एक बार जरूर आते । लेकिन जैसे ही पिता की मृत्यु हुई, उन्होंने गाँव की ओर झाँकना ही बंद कर दिया कभी सुध न ली…
फूल के पति के नाम जो थोड़ी बहुत ज़मीन थी बेटा बेचकर चला गया ।फूल को कुछ न दिया ।
उसी साल अचानक पापा की जॉब वज़ह से हमें शहर शिफ्ट होना पड़ा।हमारा गाँव छोड़कर जाना, फ़ूल को और भी ख़ल गया। बहुत दुखी हो गयी वो….हम सब भी खूब दुखी थे।मेरी ‘चम्पा का फूल’ कहकर , फूट फूटकर रोयी थी मुझे सीने से लगाकर….
उस दिन सच में ‘फ़ूल’ मुरझा गयी थी पूरी तरह….
शहर आने पर भी गाँव की स्मृतियों में ‘फूल’ एक अहम हिस्सा थी, जो सदैव याद रहती…
एक दिन हमारे घर के लैंडलाइन फोन पर खबर मिली कि ‘फूल’ बहुत ज्यादा बीमार है और वो शायद अंतिम साँसे ही गिन रही है । पापा सुनकर तुंरत गए…
वापस लौटे तो बताया कि– उनके बेटे को बहुत बार संदेसा भेजा गया किन्तु वो आया नहीं.. बहुत तड़पती रही अपने बेटे की एक झलक के लिए ..खूब रोयी, गिडगिडायी…फिर भी उस बेटे को उनपर दया न आयी ।
न जाने क्यों वो उन्हें अपनी माँ न मान सका कभी। जीवन भर सौतेली माँ ही समझता रहा । जबकि उस बेचारी ने जाने कितनी मुसीबतें उठायी थी उसे काबिल बनाने में…..।
सुनकर, मन दुखी हो गया..आँखे नम हो गयी…
पापा ने ही फूल का अंतिम संस्कार किया और उससे जुडी सारी व्यवस्था जुटायी…..।
मेरे मन में पापा के प्रति जो आदर और श्रद्धा हुआ करती थी, वो कई गुना और बढ़ गयी….पापा ने फूल के प्रति अपना कर्तव्य निभाया….।
पापा और उनके बीच खून का रिश्ता भले न था पर ‘स्नेह की डोर’ बड़ी ही मज़बूती से बंधी हुई थी । तभी तो सिर्फ एक कॉल में वे खींचे चले गए थे।
कई सालों बाद फूल के उस बेटे के बारे में सुना, कि कैंसर से तड़प तड़प कर उनकी मौत हुई ।अंतिम समय में बोलना चालना खाना पीना सब बंद हो गया था ….और जिस दिन उसकी मृत्यु हुई वो एकदम अकेला था…
सच ही है,अपने कर्मों की सज़ा यहीं मिल जाती है, कोई अलग से स्वर्ग और नर्क नहीं….
“फ़ूल” जिसनें अपने व्यवहार की मिठास और प्रेम की जो खुशबू फ़ैलायी उसे आज भी पूरा गाँव महसूस करता है…याद करता है और मैं तो आज भी ‘गेंदे के फूलों’ में अपनी “फ़ूल” को अक्सर ही ढूंढा करती हूँ…
— सपना शिवाले सोलंकी