फूल – विनय कुमार मिश्रा

तेरह चौदह साल की वो बच्ची लोगों के घरों में,पूजा के लिए फूल दे जाती है। अपने बाप का हाथ बंटाती और स्कूल जाती है। मुझसे थोड़ा लगाव सा हो गया है

“तू कल फूल क्यूँ नही दे गई? मैं दस बजे तक तेरा इंतजार करती रही”

“बापू बीमार हैं ना,अस्पताल लेकर गई थी कल। और आप बिना फूल के भी पूजा कर लिया करो जब 8 बजे तक मैं ना आऊं, वैसे भी भगवान को तो सिर्फ भक्ति से मतलब होता है ना”

“अच्छा, तो फिर तू फूल क्यूँ दे जाती है?

“क्योंकि इन फूलों को डाली पर ही मुरझाने से अच्छा है कुछ काम आ जाएं, और फिर हमारा घर भी तो इन्हीं फूलों से चलता है ना” 

मैं उसकी मीठी बातें सुनने के लिए उसे कुछ ना कुछ टोका करती रहती

“अरे बिन्नी तू आज गुड़हल का फूल नहीं लाई, देवी जी को मैं वही फूल चढ़ाती हूँ”

“इस मौसम में ज्यादा गुड़हल नहीं खिल रहा है आँटी। और फूल तो फूल हैं, सभी तो उसी भगवान की मर्जी से खिलते हैं”


“अच्छा, अच्छा”

वो ऐसे ही प्यारी बातें कभी कह जाती है और मैं मुस्कुरा दिया करती हूँ। एक हफ्ते से वो आ नहीं रही। चिंता इस बात की नहीं है कि मैं भगवान को फूल नहीं चढ़ा पा रही हूँ। पर चिंता हो रही है वो कभी इतने दिन गायब नहीं होती। सच बताऊँ तो पूजा से पहले उसकी मीठी बातों की आदत हो गई है। माँ है नहीं उसकी। अपने बापू और छोटे भाई के साथ रहती है। आज मन बनाकर ख़ास उसे मिलने के लिए पास की ही बस्ती में गई।

उसके घर जा कर देखा तो अपने भाई को अपने हाथों से निवाला खिला रही थी। छोटा भाई रो रहा था। वे उसे चुप करा रही थी। मुझे देखते ही चौक पड़ी और

“आँटी जी आप?’

“हाँ.. ये रो क्यूँ रहा है”

मेरे इस सवाल से उसकी भी आँखें भर आईं

“बापू भी चले गए आँटी जी” वो मुझसे लिपट फूट फूटकर रो पड़ी।उसकी बातें सुन मन धक से बैठ गया। क्या मैं उस भगवान की पूजा करती हूँ जो इन जैसे बच्चों को भी अनाथ और बेसहारा कर देते हैं। उन्हें देख मन व्यथित हो उठा। सामने पालनहार कन्हैया की फ़ोटो टंगी थी। हम तीनों की आँखों में आँसू थे और वे बाँसुरी पकड़े मुस्कुरा रहे थे। अचानक से लगा जैसे कह रहे हो,

“ये अनाथ नहीं हैं, समाज के ये दो फूल अब तुम्हारे दायित्व हैं”

मैं उन बच्चों की उंगली पकड़े बस्ती से अपने घर की ओर चल पड़ी..!

विनय कुमार मिश्रा

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