विदिप्त बहुत दिनों बाद इस मुहल्ले में लौटा था, लेकिन सड़क गलियां सब पहले से बहुत बदल गई थीं। पहचान पुरानी थी, इसलिए विपुल के घर का गेट खोलकर बेधड़क वह दरवाजा खटखटाया, दरवाजा विभा ने खोला। उसे देख वह अवाक रह गया उम्र के साथ वह अब और ज्यादा निखर गई थी लेकिन कुछ दुबली नजर आ रही थी, उसकी बड़ी- बड़ी आंँखें कुछ अलग दिख रही थी। वह कुछ बोलता, उसके पहले ही किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा, मुड़ कर पीछे देखा तो विपुल था। दोनों मित्रों ने एक दुसरे को गले से लगा लिया। विपुल पहले वाले ही अंदाज में उसका हाथ पकड़ बैठक में ले गया।
दोनों ही दोस्त बीते समय को अपने इस एक मुलाकात में समेट लेना चाहते थें। पढ़ाई, सफलता, असफलता, नौकरी, दोस्तों के हाल-चाल में काफी समय गुजर गया। मांँ भी मिलने आई उनके प्यार में समय बिताने के साथ कोई बदलाव नजर नहीं आया वो पहले की तरह ही विदिप्त से मिली थीं, लेकिन पूरे घटनाक्रम में सिर्फ विभा नजर नहीं आई । दरवाजा खोलकर वह ऐसे गायब हुई जैसे गधे के सिर से सिंघ गायब होता है। न वो नज़र आई ना ही उसमें उसका दादागिरी वाला तेवर था।
दरअसल विदिप्त बचपन में विपुल के मकान में अपने परिवार के साथ रहता था। जिस कारण दोनों परिवारों में काफ़ी गहरा संबंध था। बचपन में सारे खेल तीनों बच्चों ने एक साथ खेला था । बड़ी होने के कारण विभा का रौब हमेशा दोनों दोस्तों पर रहा। अक्सर दोनों की गलतियों की पोल खोल कर , उनपर पड़ने वाले डांट पर वह शरारत भरी मुस्कान बिखेरती थी। जिससे दोनों ही दोस्त चिढ़ जाते थें। बड़े होने तक उसका रुतबा दोनों दोस्तों पर बरकरार था। रिटायरमेंट के नजदीक आने पर पिता का तबादला बनारस में हुआ और अपना मकान बनवाकर विदिप्त का परिवार अपने मकान में चला आया था।
लेकिन आज विभा खुबसूरत दिखने के साथ ही साथ गंभीर भी दिख रही थी। विभा की गंभीरता उसके बचपन की चंचलता और हंँसी की बार बार याद दिला रही थी। दोस्त से बात कर उसे काफी हदतक संतुष्टी मिल गई थी, लेकिन विभा का व्यवहार बार-बार उसका पीछा कर रहा था।
एक दिन विदिप्त ने अपनी मांँ के सामने विभा का जिक्र छेड़ ही दिया और अपना अनुभव मांँ को बताया। उसके बाद जो कहानी उसकी मांँ ने बताया उसे सुनकर विदिप्त के पैरों तले जमीन खिसक गई। मांँ कहने लगी -‘अरे बेटा! विभा के ग्रेजुएशन करते ही ठाकुर साहब को विभा के लिए एक अच्छा रिस्ता मिल गया। लड़का आई.एस. था, इसलिए मना करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। ठाकुर साहब ने अपने सामर्थ्य से ज्यादा बेटी के विवाह में खर्च कर खुशहाल जीवन की कामना के साथ बेटी को बिदा किया था। सबकुछ देखने में अच्छा ही था। लड़का हैंडसम और स्मार्ट था । सभी उनके पसंद की दाद दे रहे थें, लेकिन, बेटा !
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कोई किसी के भीतर तो घुसा नहीं है। वह लड़का निहायत ही क्रूर निकला। वह अक्सर ही विभा के साथ मारपीट करता, हद तो तब हो गई जब वह सिगरेट से उसे जलाने लगा, लेकिन इस बच्ची ने मांँ बाप को कुछ नहीं बताया सबकुछ सहती रही। वो तो, एक दिन ठाकुर साहब सरकारी काम से अचानक दिल्ली गए हुए थें और बेटी से मिलने पहुंँचे , बेटी के हाथ पर निशान देख विभा से पुछने लगें’। वह विफर पड़ी और अपने साथ होने वाली ज्यादतियों को रो रोकर कह दी। ठाकुर साहब उसी वक्त क्रोध में दामाद को फोन पर सूचना दे, बेटी को लेकर वापस लौट आए।
उसके बाद बी.एड. कर वह सी.टेट. पास करके इस समय केंद्रीय विद्यालय में पोस्टेड है। पिछले तीन सालों में वह विवाह, तलाक, पढ़ाई और नौकरी के साथ जीवन के अनेक मोड़ से गुजरी है । बेटा, इसलिए वह एकदम शांत हो गई है। अब मानों उसके जीवन के रंग सफेद और काले पड़ गए हों।’ मांँ सबकुछ एक साथ किसी कहानी की तरह सुना गई।
वह सब कुछ सुनने के बाद और भी संवेदनशील हो गया। वह विभा के हंँसी को वापस लाने के लिए बेताब हो उठा। डाँट खाने के बाद अपने उपर जिस हँसी को देखकर कभी वह चिढ़ा करता था।
वह अक्सर के.वी.स्कूल के छुट्टी के समय उसके आसपास किसी न किसी काम का बहाना निकाल पहुंँच जाता था, अक्सर विभा दिखाई ही नहीं देती थी। एक दिन आटो वाले को आवाज़ लगाते हुए विदिप्त ने उसे देखा,जब तक वह उस तक पहुंँचता, तब तक वह आटो पकड़ कर निकल गई। उसकी उदासीनता विदिप्त को विदग्ध करती जा रही थी।
कहीं न कहीं यह विदग्धता उसे विभा की ओर खींचती चली गई। उसके सामने अनेक समस्याएं थीं,। उम्र का अंतर, विभा की उदासीनता प्रमुख थी । उसके सामने अपनी भावना व्यक्त करने की पृष्ठभूमि भी तो नहीं थी। वह जिससे सबकुछ बताना चाहता था, जिसका हाथ पकड़ जीवन का सफर तय करना चाहता था, वही उसके प्रति उदासीनता दिखा रही थी।
लेकिन वह पीछे हटने के मूड में नहीं था । विभा के प्रति अपनापन उसकी संवेदनशीलता नहीं थी, बल्कि विभा का व्यक्तित्व था, जो वह स्वयं और अपने मांँ के इच्छाओं के अनुकूल अनुभव कर रहा था।
मन में अनेक उलट फेर के बाद अपने बातों को मांँ के सामने व्यक्त करने की पहल की। मांँ ने कहा – ‘बेटा! विभा बहुत ही अच्छी बच्ची है, जिस घर में रहेगी वहाँ बरकत ही आएगी, लेकिन जिस दौर से वह गुजर रही है उससे निकालना बड़ा ही कठिन है।’ ‘ लेकिन मांँ, पहल तो करनी ही होगी। ‘ विदिप्त तपाक से बोला। ‘चल, अच्छा अवसर देख कर बात करती हूंँ ठाकुर साहब से । हिम्मत तो नहीं जुटा पा रही, लेकिन उसके और तुम्हारे लिए एक कोशिश जरूर करुंगी।’ मांँ ने बात को आगे बढ़ाने का आश्वासन दिया।ः
वक्त और अवसर देख मिस्टर और मिसेज ठाकुर के सामने लिलावती जी ने बेटे का प्रस्ताव एक दिन रख ही दिया। बेटी की पीड़ा से अभिभूत मांँ-बाप लिलावती जी के प्रस्ताव पर किंकर्तव्यविमूढ़ बने रहें। उन्हें समझ नहीं आ रहा था, कि क्या प्रतिउत्तर दें? परिवार के बीच इस विषय पर चर्चा करेंगे कह कर उन्होंने बात को कुछ समय के लिए टाल दिया। विदिप्त को दोनों पति-पत्नी बचपन से ही जानते थें । परिवार भी प्रतिष्ठित था। पिता जब तक जीवित थे, शहर के सम्पन्न और सम्मानित व्यक्तियों में गिने जाते थें। विभा उनकी भी लाडली थी और उसे लाडो कहकर ही पुकारा था उन्होंने ।
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सबकुछ तो ठीक ठाक था। विदिप्त हिण्डाल्को में चार्टर एकाउंटेंट था, लेकिन माता- पिता एक विवाह से मिले पीड़ा को सोच कर दुबारा विवाह का प्रस्ताव बेटी के सामने नहीं रख पा रहे थें। विपुल को जब इस बारे में पता चला तो, वह भावविभोर हो विदिप्त को गले लगा लिया।
दोनों ही परिवार विभा और विदिप्त को एक साथ जीवन गुजारने का सपना देखने लगे, लेकिन सारी कहानी विभा पर आकर रुक जाती थी, कि उसे कैसे और कौन मनाए?
काफी विचार विमर्श के बाद दोनों परिवारों ने तय किया, कि यह पहल विदिप्त को ही करना होगा। एक मास्टर प्लान तैयार हुआ। माता- पिता और भाई बाजार से सामान लाने के बहाने घर से बाहर चले गए। विभा स्कूल से घर आ अपने बेड पर लेटी ही थी, कि कॉल बेल बजा। कौन होगा ? बड़बड़ाती हुई दरवाजे से झांकी । दरवाज़ा अधखुला कर बोली – ‘अभी विपुल नहीं है, बाजार गया है।’ ‘क्या मैं आप से नहीं मिल सकता?’ विदिप्त ने भोलेपन से प्रश्न किया। ‘हांँ, हांँ, क्यों नहीं, मुझे लगा कि, तुम अपने साथी से मिलने आए हो’ कहते हुए विभा आगे चल रही थी और विदिप्त उसके पीछे। ‘नहीं आज मैं अपने साथी से नहीं, जीवन साथी से मिलने आया हूंँ।
‘ विपुल गम्भीर मुद्रा में बोला। विभा ठिठक पीछे मुड़ी, वह कुछ कह पाती उसके पहले ही विदिप्त बोल उठा- ‘विभा, बड़ी उम्मीद से अपनी मांँ के लिए एक गुणी और योग्य बहू लाने की उम्मीद से तुम्हारे सामने विवाह का प्रस्ताव लेकर आया हूंँ, मेरी योग्यता अयोग्यता तुमसे छिपी नहीं है। मैं वैभवयुक्त जीवन का वादा नहीं कर पाऊंगा, लेकिन जीवन के हर पल में हर जगह तुम मुझे अपने साथ पाओगी। अगर साथ जीवन में चलने को राजी हो तो इन बांँहों को पकड़ लो।’ कहते हुए विदिप्त हाथ आगे बढ़ाता हैं विभा ठगी सी रह जाती है। वो अनायास ही विदिप्त के हाथ में अपना हाथ दे देती है। विदिप्त उसको अपने और करीब खींच उसका माथा चूम लेता है।
-पूनम शर्मा, वाराणसी।