#चित्रकथा
कोर्ट में न्याय का सिलसिला शुरू था, आज कटघरे में पवित्रा थी, जहां निरक्षर और शिक्षित गिद्धों ने रोज नजरो और प्रश्नों से उंसकी इज्जत की बखिया उधेड़ी।
रात वो उन्ही यादों में खो गयी, उस रात ट्यूशन से घर आते देर हो गयी थी, कोई सहेली भी साथ नही थी। अपने स्कूल में हमेशा से अपने को निडर ही दिखाती रही, पर जाने क्यों उस दिन की अंधेरी गली उसे डरा रही थी। जैसे ही आगे बढ़ी, चार गिद्ध जैसे मानव आगे बढ़े, और भूखे भेड़िए बन गए, आधे घंटे के बाद गश्त के एक पुलिस की सीटी से सब डरकर बिल्ली बनकर भाग खड़े हुए।
पुलिस कांस्टेबल की नजर पड़ी, पता नही कैसे भेड़ियों के युग मे एक मानव था, वो उसे लेकर पुलिस स्टेशन आ गया।
घर से बिलखते माँ, पापा आ गए थे, माँ ने कान में कहा, “यहां क्यों आयी?”
क्या कहती वो, सिर्फ आंसू सब कह रहे थे। अपना टूटा दिल और शरीर लेकर एक नारी की अस्मिता को जोड़ने में लगी थी।
फिर दूसरे दिन वो कटघरे में थी।
नए नए प्रश्न खड़े किए, जिस वक्त वो नाजनीन कोमल सी कली, भागने की फिराक में थी, उस समय की बारीक सी बातें भरे बाजार में पूछी जा रही थी, उसे कुछ भी भान नही था।
प्रश्न पर प्रश्न की चिंगारियों ने उसके वजूद में आग लगा दी और सचमुच में एक अनजाने में फूल बनी कली झुलस कर ईश्वर को प्यारी हो गयी।
स्वरचित
भगवती सक्सेना गौड़
बैंगलोर