लगभग सभी नाती रिश्तेदार औपचारिक शोक प्रकट करके जा चुके थे, अम्माँ जी की इकलौती बेटी यानि की हमारी प्यारी ननद रानी भी अम्माँ के तीजे के बाद जाने की तैयारी कर रही थी। गुड्डू दीदी को विदा करने के बाद घर सांय सांय बोल रहा था। अम्माँ जी की खटिया उनका सामान सब ऐसा लगता मानों एक टक लगाए मुझे ही तक रहा हो। अजीब सा सन्नाटा पसरा था पूरे घर में। मेरे दोनों बेटे भी विदा लेकर अपने अपने देस अपनी संगिनी को लिए निकल पड़े थे। रह-रह कर आँसू आंखों से बरस रहे थे।
जब तक अम्मा थीं कभी समझ ही ना सकी मैं हम दोनों के बीच के एहसास को। उनकी सगी बिटिया से ज्यादा मेरी आँखे बरस रही थीं। मेरे आँसू को देखकर सभी यही समझा रहे थे कि बड़े-बुजुर्गों के जाने का इतना शोक नहीं मनाते उनकी तो मानों मुक्ति हुई है लेकिन मैं अपने दिल को समझा नहीं पा रही थी। बड़ा लम्बा साथ था मेरा और अम्माँ का। जितने बरस अपनी माँ के साथ नहीं बिताए उससे ज्यादा समय अम्माँ की बहु बन कर गुजारे थे। इन 30 बरस में अम्माँ के कई रूप देखे मैंने।
18 की ही तो थी जब बहु बन कर इस घर में कदम रखा था। कितनी सख्त थीं अम्माँ। सर्दी या गर्मी सुबह 5 बजे उठना पड़ता, नहाकर चौका बर्तन को छूने को मिलता। अम्माँ के एक अकेले बेटे की पत्नी बनने की कीमत मुझे हर रोज चुकानी पड़ती थी। अम्माँ कोई कमी ना छोड़तीं अपने लल्ला को मेरी गलतियां दिखाने में। उस समय तो नफरत होती थी अम्माँ से! मुझे लगता कल की मरती आज मर जाएँ तो पीछा छूटे। लेकिन शायद मेरा बचपना ही था यह, अम्मा के इस व्यवहार के पीछे छिपे कारण को समझने में मुझे बहुत समय लगा। उनका बेटा कही हाथ से निकल कर बहु के पल्लू से ना उलझ जाए इसी डर से वो उल्टी-सीधी सासों वाली हरकत किया करतीं।
अम्माँ के मन में कितना स्नेह था मेरे लिए ये अम्माँ कभी जाहिर ना होने देती अगर उस दिन अपने बेटे को दूसरी औरत के साथ रंगे हाथों ना पकड़ा होता। एक पल में सारी ममता ताक पर रखकर मेरे साथ मजबूती से खड़ी हो गई थीं वो। अम्माँ के मजबूत इरादे और परिपक्वता ही थी जो इन्हें उस गलत रिश्ते से वापिस खींच लायी थी। घर में कदम तक रखने की मनाही थी, अपने इकलौते बेटे की सूरत तक नहीं देखी थी अम्माँ ने दो साल।
यूँ ही अम्माँ के सानिध्य में वक़्त गुजरा जा रहा था कुछ खट्टी कुछ मीठी यादों के साथ कि तभी मेरे जीवन में एक भूचाल आ गया। दो जवान बेटों की जिम्मेदारी मुझ पर छोड़ मेरे पति दुनिया को अलविदा कह गये। बड़ा कठिन समय था वह भी। समझ ना आता था अम्माँ मुझे दिलासा दें कि मैं अम्माँ को। अम्माँ ज्यादा बात नहीं करती थीं। लेकिन इनके जाने के बाद से मुझसे अब नर्मी से पेश आती थीं।
अम्मा के आशीर्वाद से दोनों बेटों के हाथ पीले कर दिए थे। दोनों बेटे अपनी पत्नी के साथ दूसरे शहर रहते थे। शादी के बाद जब बेटे बहु को लेकर चले गए तो खुद को बहुत ठगा हुआ महसूस किया था मैंने। मेरी जीवन भर की मेहनत से पाले पोसे जवान कमाऊ बेटे, लगता था मानों मेरे रहे ही नहीं। मेरी आँखो में ही अम्माँ ने मेरे एहसास पढ़ लिए थे। आँगन में लगे बूढ़े पेड़ के नीचे बैठी अम्माँ ने मुझे बुलाया और पेड़ पर बैठे चिड़िया के जोडे़ की ओर इशारा करते हुए कहने लगीं, “शीला, ये चिड़िया का जोड़ा देख रही है, एक एक तिनका इकट्ठा करके ये अपना घोसला बनाते हैं फिर उसमें चिड़िया अंडे देती है, उन अंडों को कितने दिन तक अपनी गर्मी से सेंतती है तब जाकर उसमें से बच्चे निकलते हैं। बच्चों को उड़ना सिखाती है यह जानते हुए भी कि एक दिन उसे छोड़ वो नन्हे उड़ जाएंगे, शायद कभी लौट कर ना आने के लिए। फिर भी चिडिया के स्नेह में कमी नहीं आती वो दाना चुग के लाती है बच्चों के मुंह में खिलाती है, कभी सोचा है तूने इतना बड़ा दिल कहाँ से लाती होगी।
बेटा अपने बच्चों की परवारिश करना हमारा कर्तव्य है क्यूँकि हमने उनको जन्म दिया है लेकिन इस डर से कि वो एक दिन उड़ना सीख कर लौट कर नहीं आएँगे उनके पैर में बेड़ियाँ डाल देना उचित है क्या? जो गलती मैंने की तू भी मत दोहराना, उड़ने दे बच्चों को, अपना घोंसला बनाने दे! यही दुनिया का दस्तूर है। किसी को दोष मत दे। भरोसा रख तेरे पंछी लौट कर तेरे घोंसले तक जरूर आएंगे। खुशी-खुशी जीवन में आगे बढ़। लेकिन अम्माँ मेरा क्या? मैंने सवाल किया। वक़्त आने पर तुझे खुद समझ आएगा इसका जवाब, अब जा एक कप चाय बना ला। मन कुछ हल्का तो हुआ था। अम्माँ के आगे ज्यादा बोलने की हिम्मत भी नहीं थी सो बात यही ख़त्म हो गई।
अम्मा के जाने के बाद आंगन में लगा वो बूढ़ा पेड़ भी लगता मानों पहले से कुछ ज्यादा ही झुक गया हो। एक हफ्ते बाद छोटा बेटा मिलने आया, इस बार बहु भी साथ थी। आँगन में पेड़ को देखते हुए कहने लगी मम्मी ये पेड़ इतना बूढ़ा हो गया है झुक गया है इसको कटवा देते हैं। “मुझे करंट सा लगा बहू की बात से, बेटा पेड़ चाहे फल दे या ना दे छाँव तो देता ही है। इस बूढ़े पेड़ की छाँव में अम्माँ की… तुम्हारे पापा की ढ़ेरों याद बसी हैं इसको काटने की बात कभी मत करना”। मुझे भी जैसे उत्तर मिल गया था अपने प्रश्न का, अम्माँ भी तो एक छायादार पेड़ ही थीं उनके जाने के बाद अब छाँव देने की बारी मेरी थी। मैंने इस बार बेटे के साथ चलने की मनुहार को स्वीकार कर लिया था। जिंदगी की धूप और बारिश से अपने परिवार को सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी अब मेरी थी।
बड़े-बुजुर्ग एक छाया दार वृक्ष के समान होते हैं, फल चाहे ना दे लेकिन अपने तजुर्बे से, अपनी उपस्थिति से कई बड़ी परेशानियों से लड़ने का हौसला देते हैं। सास-बहु का रिश्ता यूँ तो सदा से कड़वाहट के लिए बदनाम है किन्तु यह भी एक सच्चाई है कि अपनी माँ से ज्यादा समय एक बहु सासु माँ के साथ गुजारती है। ऐसे में कब दोनों एक दूसरे की दुख-सुख की साथी बन जाती हैं वो खुद भी नहीं जान पातीं। संबंधो की यही तो खूबसूरती है हमारे भारतीय समाज में।
आज के लिए बस इतना ही। आपसे फिर मिलूंगी एक नए विषय नयी चर्चा के साथ।
सोनिया कुशवाहा