पत्थर –  मुकुन्द लाल

 एक गांव में दो सहोदर भाई रहते थे। बड़े भाई का नाम रामसेवक और छोटे का नाम जगदीश था। दोनों भाई अपने-अपने परिवार के साथ सुखी जीवन व्यतीत कर रहे थे। 

  वर्षों से वे दोनों अपने-अपने हिस्से के पुश्तैनी जमीन में खेती करते आ रहे थे। खेत अधिक नहीं था पर छोटा परिवार होने के कारण आसानी से उनके परिवार की परवरिश हो जाती थी। 

  दोनों भाई अपने परिवार के साथ एक ही घर में रहते थे। दोनों का चूल्हा अलग था फिर भी दोनों भाइयों और उनके परिवारों में प्रेम और सौहार्द का वातावरण मौजूद था। उनमें परस्पर सहयोग करने की भावना भी थी। खेत-खलिहान में भी एक दूसरे को मदद करने से कभी नहीं चूकते थे, जिसके कारण अपने-अपने खेतों में अच्छी फसल पैदा कर लेते थे।

  उसी गांव के चुटारी का खेत भी उनके ही खेतों के बगल में था किन्तु वह आलसी और कामचोर था, जिसके कारण दोनों भाइयों की तुलना में उसकी उपज बहुत कम होती थी।

  चुटारी हमेशा दोनों भाइयों की पैदावार को देखकर जलता रहता था। उसके मन में उनके प्रति ईर्ष्या-द्वेष ने जड़ जमा लिया था। वह सोचता रहता था कि दोनों भाइयों में कैसे फूट डाली जाए पर कोई ऐसा मौका उसके हाथ नहीं लग रहा था।

  फूट डालने की नीयत से वह कोई न कोई बहाना बनाकर अक्सर वह उसके घर जाता रहता था कोई सुराग ढूढ़ने के लिए। वह बारी-बारी से दोनों भाइयों से मिलता, हाल-समाचार पूछता। अपने को उनके परिवारों का हितैषी साबित करने की कोशिश करता। बातचीत के क्रम में  वह बहुत चालाकी से चापलूसी के साथ एक दूसरे के विरुद्ध उकसाता भी उन्हें। 

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  एक दिन जब वह रामसेवक से बातचीत कर रहा था तो चुटारी ने देखा कि उसकी पत्नी दमयन्ती अपनी कोठरी के सामने आंगन में गड़े हुए बेडौल पत्थर के पास थाल में पूजा-सामग्री लिए हुए पहुंँची। उसने उस पत्थर की पूजा अर्चना की फिर उसको नमन करके अपनी कोठरी में लौट गई।

  चुटारी को दोनों भाइयों के बीच के सौहार्दपूर्ण वातावरण को बिगाड़ने का सूत्र हाथ लग गया था, जिसके फिराक में वह बहुत दिनों से प्रयत्नशील था। वैसे भी वह धूर्त और शातिर दिमाग का आदमी था। 

  उस दिन वह शाम में उस गांव के मंदिर में गया। घंटों वह उस मंदिर के पुजारी से बतियाया फिर कुछ रुपये उसने पुजारी को दिया। पुजारी ने हँसते हुए रुपये स्वीकार कर लिया यह कहते हुए कि ‘जजमान आपका काम हो जाएगा’।

  रामसेवक की पत्नी धर्मपरायण महिला थी। वह हमेशा कोई न कोई व्रत करती ही रहती थी।

  उसने एक व्रत के समापन हेतु पुजारी को अपने घर में आमंत्रित किया।

  पुजारी उसके घर में आया। उसने धार्मिक रीति-रिवाज के अनुसार व्रत के समापन की प्रक्रिया को संपन्न कराने लगा। इस अवसर पर जगदीश की पत्नी और उसके परिवार के अन्य सदस्य भी वहांँ उपस्थित थे। जगदीश वहाँ पर नहीं था वह खेत में था।

  व्रत के समापन के उपरांत रामसेवक की कोठरी के सामने आंगन में दशकों से  जमीन में गड़े हुए उस बेडौल पत्थर को देखते ही, वह बोल उठा, “जजमान!… यह पत्थर तो बहुत पुराना है, पर है यह बहुत सगुणियां। जिसकी तरफ यह रहेगा, वह धन-धान्य से भरा-पूरा रहेगा। किसी चीज की कमी नहीं रहेगी, साक्षात लक्ष्मी विराजेगी उसके घर में।

  वह जगदीश की पत्नी की ओर मुखातिब होकर उस पत्थर का गुणगान करने लगा। उसने राधा को पत्थर से अनेक लाभ प्राप्त होने की बातें बतलाई। 

  पुजारी कलह का नन्हा सा बीज दोनों परिवारों के बीच बोकर उस दिन घर से चला गया। 

  दोनो भाइयो के बीच खेतों का बंटवारा तो वर्षों पहले ही हो गया था किन्तु घर का बंटवारा विधिवत नहीं हुआ था। उस पुश्तैनी मकान में यों ही दोनों भाई अपने-अपने परिवार के साथ रह रहे थे। और वह पत्थर का बेडौल बड़ा सा टुकड़ा कई पीढ़ियों से रामसेवक घर के जिस हिस्से में रहता था, उसी तरफ गाड़ा हुआ था।

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  शाम में जब जगदीश खेत से घर लौटा तो राधा ने गड़े हुए पत्थर की विशेषता के बारे में अपने पति को बतलाया पुजारी का हवाला देते हुए। इसके साथ ही उसने पत्थर को अपनी तरफ लाने की इच्छा भी जाहिर की। उसने यह भी कहा कि जेठजी की तरफ दशकों से यह पत्थर गड़ा हुआ है, कुछ वर्षों तक उसकी तरफ भी रहना चाहिए।

  पहले तो जगदीश ने राधा की बातों पर ध्यान नहीं दिया परन्तु उसके बार-बार कहने के बाद उसने कहा कि वह इस संबंध में अपने बड़े भाई से बातें करेगा।

  कुछ रोज के बाद मौका पाकर जगदीश ने पत्थर के बाबत बातचीत की तो रामसेवक ने हँसते हुए कहा, “जगदीश!… यह कैसी बात है। यह कोई समस्या है?”

  उसकी भाभी दमयन्ती ने भी रामसेवक की बातों का समर्थन किया।

  इस पर अपना सिर खुजलाते हुए जगदीश ने धीमी आवाज में कहा, “नहीं भौजी!… हम चाहते थे कि यह पत्थर अपनी तरफ ले आवें…”

  “यह कैसे हो सकता है देवरजी!… बाप-दादो के समय से यह हमारी तरफ गड़ा हुआ है और हमलोग वर्षों से उसकी देख-रेख करते आ रहे हैं। इसकी पूजा करने में हम किसी को बाधा तो नहीं डालते हैं। अब इस प्राचीन पत्थर को इधर-उधर करना या अपने स्थान से हटाना, उचित है?… अगर कोई अनिष्टकारी घटना घट जाए तो क्या कीजिएगा? “

  उसी वक्त राधा आ धमकी वहांँ पर उसने तैश में कहा,” तुमलोग हर पुश्तैनी वस्तु पर अपना हक बनाये रखना चाहते हो। “

  दमयन्ती ने चीखते हुए कहा,” नहीं पत्थर जिधर गाड़ा हुआ है उधर ही रहेगा, जिसको भी इसकी सेवा करनी हो, पूजन करना हो इधर ही आकर करेगा। हम पत्थर यहांँ से उखाड़ने नहीं देंगे।

  देखते-देखते वाक्-युद्ध ने विकराल रूप धारण कर लिया। रामसेवक और जगदीश भी इस झगड़े की चिंगारी से नहीं बच सके। वे दोनों भी एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने लगे।

  वाक्-युद्ध में न तो दयमंती दबना चाहती थी न राधा।

  रामसेवक और जगदीश ने अपनी-अपनी पत्नी को समझाना चाहा पर कोई भी उनकी बातों पर ध्यान नहीं दे रहा था। अन्त में जबरन दोनों भाइयों ने अपनी-अपनी पत्नी को खीचकर अपनी-अपनी कोठरी में ले गए। 

  पत्थर ने दोनों भाइयों के बीच पत्थर की लकीर खींच दी।

  कई दिनों तक घर में झगड़ा-झंझट पत्थर की दावेदारी लेकर चलती रही। दोनों परिवारों के बीच प्रेम, स्नेह और भाईचारे की जगह कलह व घृणा ने ले ली थी। झगड़ा शांत होने का नाम नहीं ले रहा था। नफरत की ऐसी आग भड़की कि दोनों भाइयों के परिवारों के सदस्यों के बीच बात-बात पर आये दिन लड़ाइयाँ होने लगी। जैसे ही रामसेवक के परिवार के किसी सदस्य की नजर जगदीश के परिवार के सदस्य पर पड़ती तो दोनों दूसरी ओर नजर फेर लेते। दोनों के बीच मारपीट तक की नौबत आ पहुंँची।

  दोनों भाइयों के दिल में दरारें आ गई। 




  कोई बड़ी हिंसात्मक घटना न घट जाए इसके पहले ही रामसेवक ने घर का बंटवारा कर देने का फैसला किया। 

  गांव में इस विवाद से कोई खुश था तो वह चुटारी था। उसका षड़यंत्र सफल हो गया था। फिर भी दिखावटी सहानुभूति दोनों भाइयों के सामने प्रदर्शित करता। रामसेवक के सामने वह उसके पक्ष में बातें करता और जगदीश की बड़ी होशियारी से आलोचना करता। ठीक इसी तरह की भूमिका वह जगदीश के सामने अदा करता।   दोनों भाइयों ने घर के बंटवारे हेतु पंँचायत बुलाई। पंँचों ने सारी स्थितियों का जायजा लिया। घर की माप-जोख की गई। दोनों के हिस्से को निर्धारित किया गया। 

  बंटवारा के दरम्यान फिर पत्थर की बात उठी। जगदीश का परिवार पत्थर अपनी तरफ लाना चाहता था जबकि रामसेवक के परिवार का मत था कि पत्थर जहाँ गड़ा हुआ है वहीं यथावत रहे। 

  पंँचों के सामने पत्थर एक बहुत बड़ी समस्या बन गई थी। एक रास्ता यह भी था कि पत्थर तोड़कर दो टुकड़े कर दिए जाएं और दोनों को एक-एक टुकड़े दे दिये जाएं, किन्तु दोनों पक्ष इस पर सहमत नहीं थे। 

  अंत में दोनों भाइयों की समवेत राय से फैसला किया गया कि पत्थर उखाड़कर मंदिर के बाग में रख दिया जाए। न रहे बांस, न बाजे बांसुरी। 

  दोनों भाइयों के बीच बंटवारा हो गया। घर के बीचो-बीच दीवार खड़ी हो गई। 

   आज भी मंदिर के बाग में रखा हुआ पत्थर दोनों भाइयों की करतूतों पर हंँस रहा है। 

  # मासिक कहानी प्रतियोगिता 

               चतुर्थ कहानी 

    स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

                  मुकुन्द लाल 

                  हजारीबाग(झारखंड)

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