जब अपने बेटों ने माँ को अपने साथ रखने से मना कर दिया तब यशोधरा जी के पास वृद्धाश्रम जाने के अलावे कोई रास्ता नहीं बचा था। हर सप्ताह रविवार को सुबोध यानि यशोधरा जी के जेठ जेठानी का बेटा वृद्धाश्रम मे दान करने के लिए आता था जब अपनी काकी को वहाँ देखा तो उनके पास गया और जब पता चला की चचेरे भाइयो ने काकी को रखने से मना कर दिया है तो अपने घर ले आया तब से यशोधरा जी सुबोध के साथ ही रहती हैं
यशोधरा जी की जिंदगी में सुबोध का आगमन एक नई आशा की किरण लेकर आया था। उसके जीवन के 22 साल सुबोध के साथ बीत चुके थे, और अब जब यशोधरा जी अपनी जीवन की संध्या को देख रही थी, वही सुबोध उसके लिए जीवन की एकमात्र उम्मीद बन चुका था। लेकिन आज, जीवन के इस मोड़ पर, यशोधरा जी को उसके स्वयं के व्यवहार पर पछतावा हो रहा था, और उसकी अंतरात्मा उसे कचोट रही थी।
यशोधरा जी के जेठ जेठानी की एक दुर्घटना मे मृत्यु के बाद उनका बेटा सुबोध को यशोधरा जी के पति अनिल जी अपने साथ ले आए। लेकिन यशोधरा जी सुबोध के आने से खुश नहीं हुई। सुबोध को अपने साथ रखा लेकिन एक नौकर की तरह और बिना वजह उसे मारती पिटती भी रहती थीं।
एक दिन शाम को दरवाजे के बाहर सुबोध उदास बैठा हुआ था। काका अनिल जी जब ड्यूटी से वापस आए तो उसे उदास देख उसके साथ बैठ गए। जब उन्हे पता चला की यशोधरा जी ने उसे बहुत मारा है तो उन्होने सुबोध को समझाया। बेटा तू कैसे भी कर पढ़ लिख ले और नौकरी मिलते ही यहाँ से चले जाना। तब तक कैसे भी कर यहाँ रह लो। उस दिन के बाद से सुबोध मन लगा कर पढ़ने लगा। और अपने क्लास मे प्रथम आने लगा।
सुबोध की सफलता को देख उनके मन में ईर्ष्या इस कदर घर कर गई थी कि उन्होंने उसके जीवन में बाधाएँ उत्पन्न करने की कोशिश की। यहाँ तक कि परीक्षा के समय वह जानबूझ कर बिजली का फ्यूज उड़ा देतीं और घड़ी का अलार्म बंद कर देतीं ताकि सुबोध की परीक्षा में बाधा पहुंचे।
वह नहीं चाहती थीं कि सुबोध अमित और सुमित से पढ़ाई मे आगे हो जाए । वह अपने अन्य बच्चों को सुबोध से अधिक सफल देखना चाहती थीं, और इसी लिए उन्होंने उन्हें गलत शिक्षा दी कि वे सुबोध को परेशान करें।
इस कहानी को भी पढ़ें:
आज, जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंच कर, यशोधरा जी को अपनी गलतियों का अहसास होने लगा था। वे जीवनभर की गलतियों के लिए सुबोध से क्षमा मांगना चाहती थीं। उनके जीवन का आखिरी समय निकट आ रहा था, और वह चाहती थीं कि उनके दिल से इस बोझ को हटाया जा सके।
सुबोध ने उन्हें देखा, उनकी आँखों में दर्द और विनम्रता थी। उसने कहा, “काकी, आप मुझसे कहें, मैं लाकर देता हूँ।” यशोधरा जी की आँखों में आँसू आ गए, उनका कंठ अवरुद्ध हो गया। उन्होंने सुबोध का हाथ पकड़ा और उसे अपने सिर से लगाया। हिम्मत करके उन्होंने कहा, “बेटा, मुझे माफ कर दो, मैं तेरी दोषी हूँ।”
सुबोध ने उन्हें रोकते हुए कहा, “काकी, आप ऐसा क्यों कह रही हैं? आपने तो मुझे बहुत प्यार दिया है।”
“नहीं, बेटा, मैं तेरी दोषी हूँ।” यशोधरा जी ने अपने जीवन की गलतियाँ स्वीकार कीं और उन्होंने उसे सब कुछ बताया। उन्होंने बताया कि कैसे वह उसकी सफलता से ईर्ष्या करती थीं, और कैसे उन्होंने उसकी परीक्षाओं में बाधा डालने की कोशिश की थी।
“मैंने तेरे काका को भी खो दिया, और मेरे जिन बच्चों के लिए मैंने हमेशा प्रार्थना की, उन्होंने अपना स्वार्थ सिद्ध कर मुझे छोड़ दिया।” उन्होंने कहा, “मैंने उन्हें अच्छे संस्कार नहीं दिए, मैं ही चूक गई।”
उनकी बातों में उनके द्वारा की गई हर गलती का पश्चाताप था। उन्होंने सुबोध से माफी मांगी और कहा, “अब बस तू ही मेरा बेटा है, एक उपकार और करना—मेरी चिता को अग्नि तू ही देना।”
यह सुनकर, सुबोध की आँखों से अविरल आँसू बहने लगे। उसने यशोधरा जी को गले लगा लिया और कहा, “काकी, मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है, आपने मुझे जो प्यार दिया है, वह किसी भी गलती से कहीं अधिक है। मैं आपको पूरे दिल से माफ करता हूँ।”
इस तरह, उनके बीच की गलतफहमियाँ और दुखद भावनाएँ धीरे-धीरे मिटती गईं, और यशोधरा जी ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में शांति पाई। उनकी आँखों में जो चमक थी, वह उनके आत्मसंतोष और सुबोध के प्रति उनके प्रेम की गवाही दे रही थी। और जब उनकी सांसें थमीं, तो सुबोध ने उनकी चिता को अग्नि दी, उनकी आखिरी इच्छा पूरी करते हुए।
मूल रचना
पुष्पा जोशी