परित्यक्ता  – मुकुन्द लाल 

उदय जिस घर मे ट्यूशन पढ़ाने जाता था, उस घर में परिवार से अलग-थलग एक युवती अक्सर दिखलाई पड़ती थी। उसने अनुमान लगाया कि हो न हो वह बच्चों की बुआ ही होगी। वह अपने काम से मतलब रखता था। पढ़ाने के बाद वह सीधे अपने डेरा के लिए प्रस्थान कर जाता था। ट्यूशन पढ़ाने के काम से ही  बेरोजगारी में उसकी दाल-रोटी चल रही थी।

  आने-जाने के क्रम में वह देखता कि वह मिट्टी के खिलौनों को बड़ी निपुणता से बनाती, उन्हें  कलात्मक ढंग से दक्षता के साथ रंगती, फिर अपने गांव में लगने वाली साप्ताहिक हाट में बेचती। कभी-कभी उस इलाकों में लगने वाले मेलों में भी बेचती। इसके अलावा किसी के घर में आवश्यकता पड़ने पर बासन-बर्तन माँजने का काम भी कर देती थी। उससे भी कुछ अतिरिक्त आय हो जाती थी। उसका चौका-चूल्हा भी उस घर में भाइयों से अलग था।

  उसे समझ में नहीं आ रहा था कि यह युवती विधवा है, सधवा है या परित्यक्ता है। उसके संबंध में किसी से पूछना भी गुनाह था। उसे लगता था कि कहीं उसके बारे में जानकारी हासिल करने के चक्कर में लोग अर्थ का अनर्थ न लगा बैठें और उसके साथ कोई हिंसक घटना न घट जाए। इसलिए उसने अपना मुंँह बंद ही रखना उचित समझा।

  कभी-कभी उसकी भाभी और भाई भी उसे उलाहना देते कि यहाँ क्या रखा है, जहाँ तुम्हारा हक बनता है, वहाँ जाकर अपना हक मांगो, यहाँ पर तपस्या करने से क्या मिलेगा? वे लोग धनसेठ तो हैं नहीं। अपने परिवार का खर्च चलाना ही उनको मुश्किल होता है। एक कोठरी पर भी हक जमाकर बैठी हुई है।

  उस दिन उसके भाई ने उससे कहा, “देख विमली!… तुम्हारी शादी उस जालिम आदमी के साथ किये हुए पांँच वर्ष हो गये और बापू को मरे हुए भी तीन वर्ष हो गये, कब तक यहाँ रहोगी?… वह ले जाना भी नहीं चाहता है।”

  वह सिर झुकाकर सुनती रही।

  कुछ पल रुककर उसने पुनः कहा, “ऐसे लड़के को शादी करना ही नहीं चाहिए, किसी लड़की की जिन्दगी बर्बाद करने के लिए। शादीशुदा लड़की को छोड़ने पर कहांँ जाएगी?… जाओ वहांँ, उस पर जाकर अपना हक जमाओ, नहीं तो वह किसी दूसरी लड़की के साथ ब्याह कर लेगा… उसकी नीयत में खोट मालूम पड़ता है।”

  अक्सर उसके भाई और भाभी उसे प्रताड़ित करते इस प्रत्याशा में कि उससे किसी तरह से पिंड छूटे।



  वह रोती, कलपती किन्तु एक शब्द भी अपने भाई-भाभी की बातों के जवाब में नहीं बोलती।

  ऐसी स्थिति में उसकी मांँ  गुस्से में कहती कि उसका गला घोंट दो दोनों मिलकर या जहर देकर मार दो… तुमलोगों को इसका घर में रहना भारी लग रहा है, फिर दोनों मांँ-बेटी रोने लगती, विलाप करने लगती। उस वक्त का दृश्य बड़ा हृदय विदारक और कारुणिक होता था।

  एक दिन ट्यूशन पढ़ाकर जब वह लौटने के लिए दरवाजा की तरफ कदम बढ़ाया ही था कि उसकी मांँ ने उसे रोककर उसकी व्यथा-कथा सुनाने लगी। उसने कहा, “ओकर(उसका) मरद बड़ा शहर में रहता है, धंधा कर हथिन उहां, कमाई भी अच्छा है, पर किस काम के, ओकरा दोसर औरत से, आजकल का कहल जा है ‘लव इन् रासन में’…” 

  “नहीं आंटी!… लिव इन रिलेशनशिप में…” 

  “हांँ! हाँ!… हमरा नै ओरियाता(नहीं आता) हइ बोलना, मास्टरजी, उसी में रहता है। “. 

  पल-भर रुककर उसने पुनः कहा,” ओकरा बार-बार चिट्ठी लिखल गेलै आवेला, पर एक ठो के भी जवाब नै दिया, मोबाइल पर तो’ हलो-हलो’ कहते-कहते ही तुरंत काट देता है। अइसन मरद हैइ विमली का। जब विमली के बापू जिन्दा हलथिन(थे) तो ओकरा पास गये थे। हमरे मालिक ओकरा बहुत समझाया-बुझाया था, अपन बेटी की जिनगी(जिन्दगी) बर्बाद होने का वास्ता दिया था। ऊ आदमी खातिरदारी खूब किया और आने बखत कहिस था कि ऊ अपन मेहरारू को शहर ले आवेंगे, पर कहकर रह गया, एक नम्बर का झूठा आदमी निकला, दुबारा फोन तक नै किया। जमाना बहुत खराब हइ, घोर कलजुग आ गइल हइ मास्टरजी! “

  उदय को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बोले, वह इसमें क्या भूमिका अदा कर सकता है। वह सोच ही रहा था कि उसकी मांँ ने फिर कहना शुरू कर दिया। 

” अपन पेट भरे खातिर छोट-मोट काम करते रहती हइ। “

 ” अच्छी बात है, किसी पर बोझ तो नहीं बनती है न। स्वावलंबी है। “



 ” कउनो लड़का एकरा अपनावे खातिर राजी हो जाय तो कइसूंँ एकर हाथ पीले कर दें, कउन छोड़ल लड़की से ब्याह करेगा? उसकी मांँ ने कहा। 

  तब उसने कहा था कि उसका विचार बिलकुल सही है। मात्र यही एक रास्ता बच रहा है, उसकी जिन्दगी संवारने के लिए। कहकर उसने चुप्पी साध ली। 

  उदय जैसे ही घर  से बाहर निकला, उसने देखा कि विमली कमरे के बाहर छिपकर सुन रही थी उनकी बात-चीत। उसको देखते ही वह दौड़कर भाग खड़ी हुई। 

                       उस दिन उसके परिवार के सदस्यों और उसके कुछ शुभचिंतकों ने उससे कहा कि वह शिक्षित है, समझदार है, वह एक परित्यक्ता का उद्धार कर दे। 

  उसने साफ शब्दों में कहा, “उद्धार करना इतना आसान नहीं है, मैं तो अपने सीधे-सादे माता-पिता को राजी कर लूंँगा लेकिन इसका पति जालसाज है और शातिर मालूम पड़ता है, मुझे कानूनी दांव-पेंच में फंँसा देगा तब, उससे कोर्ट के माध्यम से पहले तलाक दिलवाइये, उसके बाद ही मैं इस रिश्ते पर सोच सकता  

हूंँ। “

 ” कोर्ट-कचहरी जाय के औकात हमरा नै है मास्टरजी “विमली की मांँ ने असमर्थता प्रकट करते हुए कहा। 

  माहौल में खामोशी छा गई थी। 

  कुछ मिनट के बाद उदय ने कहा,” एक रास्ता और है, पंँचायत में इसका पति पंँचों के सामने लिखित रूप से स्थायी संबंध विच्छेद कर लेने की बात स्वीकार कर लेगा तब ही यह रिश्ता जुड़ सकता है।” 

  सभी के चेहरों पर खुशी की लकीरें उभर आई थी। 

   विमली को निराशा के अंँधेरों के बीच आशा की किरणें दिखने लगी थी। 

   स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

               मुकुन्द लाल 

               हजारीबाग (झारखंड) 

1 thought on “ परित्यक्ता  – मुकुन्द लाल ”

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!