माँ नहीं तो सारा रिश्ता पराया सा लगता है। यदि पिता दूसरी शादी कर ले तो भरे पूरे परिवार में भी शख्स अकेला ही पड़ जाता है।
मेरी माँ सात साल की उम्र में परिवार के हवाले कर चल बसी। चाचा- चाची, दादा-दादी,बुआ सभी थे,पर नहीं थी तो एक माँ। सहानुभूति तो मिलती थी पर प्यार नहीं। एक साल बाद सौतेली माँ भी आ गयी। बंश जो आगे बढ़ाना था। जब कभी बहुत आहत होती थी तो दादी का आँचल आँसू पोछने के लिए तैयार रहता था और फिर दादी के आँचल तले थोड़ी देर सुकून की साँसें ले फिर अपनी दुनिया में लौट जाती थी। खुशी की तलाश में सबका टहल करने के लिए हर पल तैयार रहती थी और यही गुण सबका चहेती बनाता गया। तारीफ कर अपना काम निकालना सभी ने सीख लिया। मुझे भी कोई शिकायत नहीं थी। कम- से- कम मीठे बोल तो सुनने को मिलते थे, भले ही उस पर चाशनी का हल्का आवरण ही हो। पढ़ने का बहुत शौक था,जाने लगी प्राईमरी शिक्षा के लिए। आर्थिक रूप से उतना सम्पन्न परिवार नहीं था और उस समय गाँव में लड़कियों को कम ही लोग पढ़ाते थे। दो साल पढ़ने के बाद पढ़ाई छुड़वा दी गयी, क्योंकि चाची का बच्चा एक साल का था और नयी माँ, माँ बनने वाली थी। चाची के बच्चे की देखभाल करने की जिम्मेवारी लेनी पड़ी और चाची माँ के साथ रसोई घर सम्भालने लगी। दादी भी घुटनों से लाचार थी। बुआ की शादी हो गयी। पढ़ाई छोड़ने से दुखी थी। पहला दिन तो छूपकर रोई भी थी फिर नियति से समझौता करनी पड़ी। दिन गुजरता गया ,बचपन छूटता गया और सोलह की दहलीज पर पहुँचते ही एक दुहाजु से शादी कर दी गयी। शादी एक जमींदार घराने में हुई,जहाँ दौलत की कमी नहीं थी, पर प्यार को समझने में असफल रही। आते ही दो छोटी बच्चियों की माँ बनना पड़ा। खैर——
किस्मत मेहरबान हुई और मैं एक बेटे की माँ बनी। मेरा सम्मान बढ़ गया। सासु माँ तो ठंढ में बिस्तर से नीचे नहीं उतरने देती थी। वो मेरे लिए नहीं पोते के लिए। कुछ दिन बाद अपने व्यवहार और उन बच्चियों की माँ बनकर सबका प्यार पा लिया। पति का प्यार पाकर निहाल हो गयी। जिस प्यार के लिए माँ के बाद मायके में तरसती रही अब सूद सहित उसकी बरसात होने लगी।
किस्मत को करवट बदलने में देर नहीं लगी। शायद ब्रह्मा जी ने मेरी तकदीर में कुछ ही दिन की खुशी लिख पाए थे और मुझे परमात्मा के फैसले को स्वीकार करना पड़ा। तीन-तीन बच्चों की जिम्मेवारी छोड़ पति चल बसे। पाँच साल का बेटा और बड़ी हो रही बेटियाँ, देख सिहर उठती थी।
सभी मंगल कार्य से दूर रहने की हिदायत दे दी गयी। सीधे तौर पर तो किसी ने नहीं कहा,लेकिन चटक रंग की साड़ी पहनने पर ऐसे देखते थे जैसे मैं ने कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया हो। स्वयं ही उसका परित्याग कर दिया। दिन गुजरने लगे, बच्चे बड़े होने लगे।
बेटी की शादी में पराए की तरह सिर्फ नजरों से देख सकती थी, कुछ छू नहीं सकती थी। ननद, बुआ सास,जेठानी,देवरानी सभी मिल रश्मों को निभा रही थी और मैं………..
” माँ !तुम भी अच्छी साड़ी पहन चलो न जलमाल देखने।”
बेटे के जिद्द पर नहीं जाने का कारण उसे बताना ही पड़ा। सुनकर बेटा दुखी हुआ।
बेटे को समझा कर मना लिया।एक-एक कर दोनों बेटियाँ ससुराल चली गयी।——-
मेरी जिन्दगी समाज के तरीके से बीतने लगी।
बेटे को बैंक में नौकरी लग गयी। बेटा अपने साथ मुझे शहर लेकर आ गया। मैं भी ये सोचकर आ गयी कि जब-तक शादी नहीं हुई है तब-तक इसका ख्याल मुझे ही तो रखना है।
यहाँ जिन्दगी थोड़ी बदल गयी। बेटे की जिद्द पर रंगीन साड़ी पहनने लगी, बाहर भी जाने लगी। पड़ोसियों से अच्छी पहचान बन गयी। रहते हुए एक साल हो गया था। वहाँ भी सबकी मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहती थी। बचपन का यह गुण यहाँ भी मुझे सबकी चहेती बना दिया। एक पड़ोसन शोभा ने तो मुझे अपनी बड़ी बहन ही बना लिया।
“दीदी! मेरे बेटे की शादी ठीक हो गयी है, सबकुछ आप ही को सम्भालना है।”
“मै ? मैं क्या कर सकती हूँ? मुझे तो ठीक से रस्में पता भी नहीं है।”
” अभी समय है पता कर लिजिए।”
वो वक्त भी आ गया जब शोभा ने सभी कार्यों में मुझे जबरदस्ती सम्मिलित किया।यहाँ तक कि दुल्हा का परिछन भी मुझसे जबरदस्ती करवाई। पहली बार सुखद अनुभव पराया से हुआ। एक शादी में सुहागन की तरह सम्मिलित हो जो सम्मान का सुखद अनुभव हुआ उसे व्यक्त करना मुश्किल है। पराया होकर अपनों से बढ़कर प्यार दिया। आलोचक तो सभी जगह रहते हैं। वहाँ भी कुछ लोगों को मेरा सम्मिलित होना पसंद नहीं आया। उसके परिवार में भी नकारात्मक स्वर उठा था, लेकिन शोभा का कहना था कि
“दुआएँ सुहागन या विधवा नहीं देखती। जितनी ताकत मेरी दुआओं में है उतनी ही ताकत एक विधवा की दुआ में भी है” इस प्यार को मैं सम्भाल न पायी और मेरी आँखें भर आई। इस सुखद एहसास को आँचल में समेट अन्तर्मन से वर-वधू को आशिर्वाद दे घर लौटी।
स्वरचित एवं मौलिक रचना
#पराए_रिश्तें_अपना_सा_लगे
पुष्पा पाण्डेय
राँची,झारखंड।