“पापा! – विनय कुमार मिश्रा

 दूसरी नयी साइकिल दिला दो ना”

मैं समझ सकता हूँ। साइकिल थोड़ी पुरानी हो गई है। इसी से स्कूल और ट्यूशन जाता है। बेटा बोल रहा था बार बार चेन उतर जाता है इसका।पर अभी नई दिला पाना थोड़ा मुश्किल है। बेटे को लेकर साइकिल दुकान उसे ठीक कराने गया। साइकिल दे हम वहीं बैठे थे कि एक और आदमी अपने बेटे के साथ आया। साइकिल देखता और दाम पूछता। ये सिलसिला लगभग आधे एक घंटे चलता रहा।

“देखिए जब आपको लेना ही नहीं तो सब साइकिल निकलवा कर टाईम खराब क्यूँ कर रहे हैं”

“जी लेना है.. कोई सस्ती वाली नहीं है क्या?

“तीन हज़ार से सस्ती क्या बताऊं तुम्हें.. दूसरी जगह देख लो”  ग़रीब लग रहे थे हमसे भी, शायद दूसरी जगह भी देख आये थे। उसका बेटा निराश और वो परेशान सा था। हिम्मत जुटा कर उसके बेटे ने पूछा

“अंकल सेकेंड हैंड भी रखते हो क्या?” बाप आश्चर्य से उसे देख रहा था कि ये सेकेंड हैंड कोई महंगी तो नहीं!

“रखता हूँ पर अभी नहीं है” तभी मेरे बेटे की साइकिल ठीक हो गई थी।

“हो गई आपकी साइकिल ठीक एकदम चैंपियन, ले जाइए” मेरे दिमाग में कुछ चलने लगा। कुछ पैसे थे मेरे पास कुछ..

“सुनो भाई इस साइकिल की कितनी दोगे?” मैंने साइकिल देख रहे आदमी से पूछा

“एक हज़ार” उसने झिझकते हुए कहा। मैं जानता था थोड़ा कम है। दो साल ही तो पुरानी थी

“जी ठीक है.. ले जाइए” मैंने उसे साइकिल दे अपने बेटे के लिए भी नई साइकिल ले ली। दोनों बच्चों की आँखे चमक गई थी और दो पिता अपने बेटे के लिए अपनी परिस्थिति के हिसाब से उनके होंठों पर हँसी ले आये थे। हम घर की ओर चल पड़े

“थैंक्यू पापा! मैं नई साइकल लेकर बहुत बहुत खुश हूँ”

“और मैं पुरानी बेचकर” बेटा मेरे इस बात को अभी समझ नहीं पाया पर समझेगा एकदिन ..एक पिता बनकर..!

विनय कुमार मिश्रा

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