सर्विस के लिए कई वर्षों तक भटकने, लिखित प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल होने और साक्षात्कार की खानापूर्ति में शामिल होते-होते जब प्रणव थक गया तो उसके पिता जटाधार ने कह दिया कि तुम्हारी किस्मत में नौकरी नहीं है। उसकी शादी की उम्र भी निकलती जा रही थी
इसलिए उसने उसकी शादी कर देने का निश्चय कर लिया यह सोचकर कि उसका लड़का कुछ ना कुछ काम करके भरण पोषण तो कर ही लेगा। किंतु बेरोजगार लड़के से सचमुच कोई लड़की का अभिभावक शादी करना नहीं चाहता था। जटाधर हैरान और परेशान था। उसी वक्त उसके पुराने रिश्तेदार घनश्याम ने राय दी शहर के धनवान व्यवसायी और जमीन जायदाद के स्वामी इंद्र मोहन बाबू की लड़की से शादी करने की।
जटाधार ने कहा भी कि वह अमीर आदमी हैं, उसके जैसे गरीब साधारण दुकानदार के घर में लड़की देना चाहेंगे?.. तब उसने कहा था कि वह अपनी लड़की की शादी करने के लिए बहुत परेशान है। उसका कहना है कि अगर सिर्फ लड़का योग्य मिल गया तो वह उससे अपनी लड़की की शादी कर देगा।
इंद्र मोहन की लड़की सामान्य कद काठी की अति साधारण लड़की थी। उसका रंग रूप भी कोई खास नहीं था कॉलेज में पढ़ाई के वक्त बदनाम भी हो गई थी, जिसकी वजह से उसकी शादी में अड़चन आ रही थी।
पहले तो उसने लोगों के सामने बहुत डींगे हांकी थी कि चुटकी बजाते वह अपनी बेटी श्रेयसी की शादी कर देगा उसके पास पैसे की कमी नहीं है। वह अच्छा घर-वर मिला तो उसके पास इतनी औकात है कि वह लड़के को खरीद लेगा। लड़के और उसके अभिभावक उसकी उंगली के इशारे पर नाचेंगे… आदि आदि।
किंतु जब वास्तविकता का सामना करना पड़ा तो उसके होश ठिकाने आ गए अच्छे-अच्छे पार्टियों ने जब उसकी लड़की से शादी करने से इनकार कर दिया लड़की को देखने के बाद तो विवश होकर उसे साधारण घर द्वार और गरीब किंतु शिक्षित लड़का प्रणव से शादी करनी पड़ी
शादी संपन्न होने के लगभग वर्ष भर बाद ही प्रणव को स्थानीय विज्ञापन के आधार पर एक स्कूल में सहायक शिक्षक की नौकरी लग गई। प्रारम्भ में नौकरी अस्थाई भले थी किंतु डूबते को तिनके के सहारे जैसा था। जहाँ नौकरी लगी वह गांव उनके घर से लगभग दस-बारह किलोमीटर की दूरी पर था। पांँच दिनों तक वह किसी तरह पैदल चलकर स्कूल में. जाकर ड्यूटी किया, लेकिन प्रतिदिन इतनी दूरी तय करके स्कूल पहुंचना,
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फिर क्लास लेना बहुत कठिन था। विद्यालय से लौटने के बाद वह इतना थक जाता था कि खाना खाकर सो जाने के सिवा कोई चारा नहीं था। यह तो सर्वविदित था कि उसकी माली हालत ठीक नहीं थी। ऐसी स्थिति में एक साईकिल खरीदने की बातें उसके परिवार में चलने लगी, जिसके सहारे वह नियमित स्कूल जा सके। उस जमाने में वेतन भी बहुत कम मिलता था, जिससे साईकिल खरीदना नामुमकिन था ।वेतन जो भी मिलता महीने भर काम करने के बाद ही मिलता।
कोई रास्ता नहीं देख कर श्रेयसी ने प्रणव से कहा कि वह ससुराल जाकर उसके पापा से एक साइकिल मांग ले या साइकिल खरीदने भर रुपए।
प्रणव ने कहा कि उसके पापा धनी है लेकिन वह भी स्वाभिमानी है। एक साईकिल के लिए वह उनके सामने जाकर नहीं गिड़गिड़ाएगा, भीख नहीं मांगेगा। उसके पिताजी ने भी समझाया किंतु वह तैयार नहीं हुआ ।तब घनश्याम की मध्यस्थता के कारण ही यह शादी तय हुई थी इसलिए उसको भेजा गया इस काम के लिए इंद्र मोहन के पास।
किंतु इस मुद्दे पर इंद्र मोहन ने उससे बात करने से साफ इनकार कर दिया।उसने कहा कि उसके पास किसी चीज की कमी नहीं है धन दौलत, मान मर्यादा, लोग उसकी खुशामद करते हैं, पूजते हैं। नोट तो उसके आगे पीछे हवा में उड़ते रहते हैं, वह जब चाहे बटोरकर अपनी झोली में भर ले सकता है ।जब उसकी ऐसी अवस्था है
तो क्या वह उनके सुख-दुख में भागीदार नहीं बन सकता है। किंतु आपको भेज कर उन लोगों ने गलत कदम उठाया है नई प्रथा की शुरुआत की है। समधी जी या दामाद जी को स्वयं आकर बात करनी चाहिए थी। यह सरासर गलत है। उस गरीब परिवार की तरक्की के लिए मेरे दिमाग में भी रूपरेखा है। वह जाकर उन्हें ही भेज दीजिए यहां बात करने के लिए ।
लौटने के बाद जब घनश्याम ने इंद्र मोहन के साथ हुई बातचीत की जानकारी दी तो असहज महसूस करते हुए संकोच के साथ अपने समाधि इंद्र मोहन से मिले। आदर सत्कार की औपचारिकता के बाद जटाधार ने दबी जुबान से प्रणव को ड्यूटी पर जाने में होने वाली कठिनाइयों का उल्लेख किया और उसने एक साइकिल की मांग विनम्रता के साथ उसके सामने रखी तो उसने हंँसते हुए तेज आवाज में कहा साइकिल क्या है?… अगर वह चाह ले तो अपने दामाद को चार चकिया गाड़ी की सुविधा भी उपलब्ध करा सकता है,
लेकिन उस चार पैसे की नौकरी में क्या रखा हुआ है?… मास्टरी की नौकरी करके वह ना तो चैन की जिंदगी जी सकते हैं ना मेरी बेटी को कोई सुख नसीब होगा सिवा जिल्लत भरी जिंदगी जीने की। जितने रुपए वेतन में मिलते हैं प्रणव जी को उससे ज्यादा सैलरी तो हम अपने नौकरों को देते हैं उसने अपने निर्णय को सुनाते हुए कहा कि वह गांव के स्कूल की नौकरी छोड़कर बेटी दामाद यहाँ आएं। यहीं उनकी परवरिश की सारी व्यवस्था कर देंगे यहाँ किसी प्रकार की दिक्कत या परेशानी नहीं होगी चैन की बंशी बजाएंगे वे लोग यहाँ।
मेरे कई व्यवसाय हैं उसमें किसी व्यवसाय में वह सहयोग प्रदान करेंगे। उनको जितना स्कूल में महीने में वेतन मिलता है उससे कई गुना अधिक बिजनेस में उसको फायदा एक दिन में होता है। स्कूल में भीखमंगय वाला काम करके कुछ हासिल नहीं होगा। उनकी इज्जत पर बट्टा तो लगता ही है, मेरी भी बेज्जती होती है कि फलां का दामाद मास्टरी करता है दो ढाई सौ रुपए में, छीः! छीः! ऐसी भी जिंदगी है…उतने पैसे में किसी तरह पेट तो जरूर भर जाएगा …सुख सुविधा के संसाधन तो जिंदगी भर भी उपलब्ध नहीं होंगे ।ऐसी स्थिति में साइकिल देने का कोई तुक नहीं है। साईकिल तो थर्ड क्लास का आदमी चलता है।
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जटाधार उसकी बातें सुनकर आसमान से जमीन पर गिर पड़ा। वह अभिवादन करके वहां से यह कहते हुए निकल गया कि वह सारी बातों को अपने परिवार के सामने रखेगा
जब जटाधार ने अपने समधी के प्रपोजल को सभी के सामने सुनाया तो उसके परिवार का कोई भी सदस्य उसको मानने के लिए तैयार नहीं हुआ। घुमा- फिरा कर वह अपने दामाद को घर जमाई बनाना चाहता था जो उसके माता-पिता के लिए किसी तरह से उपयुक्त नहीं था। उसके निर्णय को मान लेने का मतलब था प्रणव के माता-पिता के जीवन में अंधेरा कायम हो जाना, परिवार की अनिश्चितता और बिखराव ही इसकी परिणति थी।
श्रेयसी भी अपने भाइयों और भाभियों की दुरंगी नीति और कठोर आचरण से परिचित थी। इस वजह से वह भी राजी नहीं हुई
श्रेयसी ने अपने गले के सोने की चेन को प्रणव को दिया कि वह बेचकर मिलने वाली राशि से साइकिल खरीद ले। प्रारंभ में वह नहीं ले रहा था किंतु जब उसने कहा कि आर्थिक स्थिति सुधरेगी तो चैन बनवाकर वापस कर दीजिएगा। तब वह राजी हो गया। वह चेन लेकर निकल गया बाजार बेचने की नीयत से
जब दो सप्ताह के बाद भी इंद्र मोहन को कोई जवाब प्रणव की तरफ से नहीं मिला तो वह गुस्से में तिलमिला उठा। उसने अपने मन में कहा, “जिसके किस्मत में दुख लिखा है… भटकना और तरसना लिखा है।… सुख सुविधा पाने की होड़ में वह गलत रास्ते पर ही चल पड़ता है… जिस रास्ते पर चलने से नोटों की बारिश होती है, बेवकूफ लोग उस रास्ते पर नहीं चलते हैं… वे उस पथ को अपनाते हैं जिस पर चलने से मुश्किल से पेट में अनाज के दाने जाते हैं… छीः!… ऐसे बुद्धिहीन लोगों पर तरस आता है। “
कभी-कभी किसी से लड़ाई होती भी तो इंद्र मोहन अक्सर कहता था अपने विरोधी को कि वह उसके रास्ते से हट जाए नहीं तो वह नोट से जलाकर राख कर देगा। उसका तकिया कलाम था कि ‘मेरा यह काम करवा दो तो तुमको माला-माल कर दूंगा।’
कालांतर में व्यवसाय में मंदी होने और एक जमीन के विवाद के मुकदमे में फंस जाने की वजह से एक मुश्त बहुत बड़ी धनराशि खर्च हो गई जिससे उसकी आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो गई व्यवसाय की पूंजी घटती गई, आमदनी कम होती गई, खर्च बढ़ता गया जिसका नतीजा यह निकला कि कुछ सालों के अंदर ही उसके व्यापार का भट्ठा बैठ गया। उसके पैसे का घमंड कहां गायब हो गया कुछ पता नहीं चला।
प्रणव उस हाई स्कूल में प्रसिद्ध टीचर के रूप में विख्यात हो गया। उसकी सैलरी पांँच अंकों में मिलने लगी।
कुछ वर्षों के बाद उसके पिताजी का देहांत हो गया।
आज भी उसकी माँ कहती है कि समधी जी पैसे के गरूर में जैसा बोल रहे थे, उनके अनुसार प्रणव नौकरी छोड़ देता तो कहीं का नहीं रहता।
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
मुकुन्द लाल
हजारीबाग(झारखंड)
16-02 – 2025
कहानी प्रतियोगिता
विषय:- # पैसे का गरूर