पैसे का गुरूर – गीता यादवेन्दु : Moral Stories in Hindi

“हमारी बेटी बहुत बड़े घर में ब्याही है । बहुत अमीर हैं वो लोग ।दसियों नौकर-चाकर लगे रहते हैं ।” रुक्मणी अपनी पड़ोसन रजनी को बता रही थी ।

“अच्छा……जब आए अबकी बार कविता तो मुझसे भी मिलवाना । बहुत गुणी होगी तभी तो बड़े घर में पहुँची है ।” रजनी ने कहा ।

रजनी कुछ दिनों पहले ही तबादला होकर अपने पति के साथ कॉलोनी में आई थी इसलिए वह कविता से मिली नहीं थी ।

अब रुक्मणी क्या बताती कि उसकी बेटी कविता को अपने रूप-सौंदर्य का बड़ा अभिमान था और वह हमेशा से ही धन-दौलत, ऐश-आराम की ज़िन्दगी के सपने देखती थी । कॉलेज में भी उसका ध्यान पढ़ाई पर कम पैसे वाले लड़कों पर ज़्यादा रहता था और अंत में रईस परिवार के साहिल को अपनी अदाओं और सुंदरता से प्रभावित कर उससे शादी करने में सफ़ल हो गई ।

कविता के ससुराल वालों ने उसे स्वीकार तो कर लिया पर मिडिल क्लास मायके में उसका आना उन्हें पसंद नहीं ।ख़ुद कविता भी पति और ससुराल की रईसी के अभिमान में इतनी चूर है कि मायके को ग़रीब समझती है और मायके आ कर ससुराल वालों की नाराज़गी मोल लेना नहीं चाहती है ।

बेचारी रुक्मणी बेटी की बातें बता बता कर ही ख़ुद को संतुष्ट कर लेती है ।

“सुनो जी कल हमारी कविता का पच्चीसवाँ जन्मदिन है ।क्यों न हम वहाँ चलकर उसे बधाई दे आएँ ।” रुक्मणी ने अपने पति सत्येंद्रनाथ से कहा । 

“किसलिए वहाँ जाकर अपना मज़ाक़ बनवाना चाहती हो । वहाँ कोई हमें पूछेगा नहीं और हमारी ही बेइज़्ज़ती होगी ।” सत्येंद्रनाथ बोले । 

“हमारी बेटी है ।क्या वो हमें ही नहीं पूछेगी ।” रुक्मणी को यकीन नहीं था ।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

कैसी किस्मत पाई है? – रोनिता कुंडु : Moral Stories in Hindi

“ठीक है । पहले उसके लिए बाज़ार से कोई अच्छी सी गिफ़्ट और मिठाई तो ले आओ । फ़िर देखा जाएगा ।” सत्येन्द्रनाथ बोले ।

“आप भी चलो बाज़ार!” रुक्मणी बोली तो सत्येंद्रनाथ बोले, “तुम ख़ुद ही चली जाओ बाज़ार ।मैं नहीं जाऊँगा ।मेरा मन नहीं है ।”

वास्तव में सत्येंद्रनाथ को अपनी बेटी कविता के व्यवहार,आचरण कभी पसंद नहीं रहा । उसने माता-पिता की भावनाओं का कभी ख़्याल नहीं रखा । शिक्षक पिता की बेटी होने पर भी कभी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दिया । कोई कैरियर नहीं बनाया ।ज़िन्दगी में कुछ बनकर आत्मसम्मान के साथ जीने के बज़ाय रईस लड़के से शादी कर ऐश-आराम की ज़िन्दगी के लिए अमीर ससुराल वालों की मर्ज़ी को तरज़ीह देते हुए माता-पिता से रिश्ता भी तोड़ सा ही लिया था । सत्येंद्रनाथ ने कविता को माफ़ नहीं किया था और दुःख को खामोशी से अपने अंतर में दबा लिया था ।कविता की ससुराल शहर में ही थी पर उसने कभी अकेले भी आकर उनसे मिलने की ज़रूरत नहीं समझी थी । इकलौती बेटी के इस व्यवहार से उनका दिल बहुत दुखता था पर चुप रह जाते थे ।

रुक्मणी कविता के लिए गिफ़्ट लेने महँगे बाज़ार में गई क्योंकि सस्ते मार्केट का गिफ़्ट उसके बड़े घर में अच्छा नहीं लगता । बड़े शोरूम में घुसी तो एकबार तो वहाँ की चकाचौंध में खो सी गईं ।फ़िर सामान देखने लगीं । उन्होंने सोच लिया था कि अगर सत्येन्द्रनाथ नहीं जाएँगे तो अकेले ही चली जाएँगी कविता के घर । नाज़ों से पाली बेटी की उन्हें बड़ी याद आती थी । उसके रूप-सौंदर्य पर कितना अभिमान था उन्हें…..! 

अचानक बगल के काउंटर से कुछ जानी पहचानी सी आवाज़ सुनाई दी ।

“अरे यह तो कविता की आवाज़ है ।” रुक्मणी चोंकी । 

“कविता अपने पति सोमेश के साथ काउंटर पर ख़रीदारी कर रही थी ।

“कविता………!” रुक्मणी आवाज़ देती रह गईं और कविता उन्हें देख कर भी अनदेखा करते हुए शो रूम से निकल गई । शायद रुक्मणी को देखकर ही उसने और ज़्यादा रुकना उचित न समझा और ज़ल्दी से निकल गई । रुक्मणी हतप्रभ सी आँखों में आसूँ लिए देखती रह गईं । ऐसी भी संतान होती हैं……..और वो भी उनकी अपनी ! यकीन ही नहीं होता था ।

“ले आईं गिफ़्ट?” सत्येन्द्रनाथ ने पूछा तो कुछ न बोला गया । वे समझ गए कि कुछ बात हुई है । आख़िर न रहा गया तो फफक-फफक कर आरओ पड़ीं रुक्मणी ।

अब वह किसी से कविता की चर्चा नहीं करतीं थीं । दोनों पति-पत्नी ने रिश्तेदारों,पास-पड़ोस और अनाथाश्रम के बच्चों के बीच स्नेह और अपनत्व के साथ रिश्ते बनाकर जीना सीख लिया था । छोटा नौकर बहादुर अब बड़ा हो गया था जो अब उनका सहारा बन गया था ।

इस कहानी को भी पढ़ें: 

* पवित्र भावना का प्रतिफल * – पुष्पा जोशी : Moral Stories in Hindi

आठ साल गुज़र गए थे । एक दिन दरवाज़ा खटका तो सामने कविता खड़ी थी । उजड़ी-उजड़ी सी । देख कर समझ ही न आया कि क्या करें ! बातचीत हुई तो पता चला कि इतने वर्षों तक माँ न बन पाने के कारण सोमेश के परिवार वालों ने उसे दुत्कारना,ताने मारना शुरू कर दिया था ।

सोमेश का दूसरी लड़की से अफ़ेयर भी चल रहा था और वह बच्चे के लिए दूसरी शादी करना चाहता था । कविता की स्थिति उस घर में बिल्कुल उपेक्षित और नौकरों से भी गई बीती हो गई थी । सोमेश उसे तलाक देकर दूसरी शादी करना चाहता था । कहाँ जाती……आत्मनिर्भर भी नहीं थी और प्रताड़ना कब तक सहती । एक यही माता-पिता का घर ठिकाना नज़र आया अन्यथा हो सकता है वो लोग तो उसे मार ही डालते ।

“मुझे माफ़ करोड़ मम्मी-पापा !मैं इसी लायक़ हूँ ।मुझे मेरे कर्मों की सजा तो मिलनी ही थी ।” कविता लगातार रोए जा रही थी । उसका सारा गुरूर पश्चाताप के आँसुओं के साथ बह गया था ।

“रुक्मणी और सत्येन्द्रनाथ ने सर पर हाथ रखा तो कविता उनके गले लग कर कविता की रुलाई फ़िर फ़िर फूट रही थी ।

“ये घर तो हमेशा से ही तेरा था बेटा ।” सत्येन्द्रनाथ ने कहा तो वह उनके कदमों पर गिर पड़ी । आज पैसे का सारा गुरूर पश्चाताप में बदल गया था ।

                 गीता यादवेन्दु 

#पैसे का गुरूर

लेखिका-गीता यादवेन्दु

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!