पढ़ी-लिखी बहू – उमा महाजन : Moral Stories in Hindi

‘अरे कहने को तो बहू पढ़ी-लिखी है, परंतु कितनी बार समझाया इसको कि ये तीखे-तेज मसाले मेरा पेट खराब कर देते हैं। छाती में जलन होने लगती है। जीभ जल जाती है, सो अलग। सुलगती-जलती जीभ से खाने के स्वाद का ही पता नहीं चल पाता’ खाना शुरु करते ही  मनोहर बाबू भुनभुनाने लगे थे।

‘अजी रुकिए ! जीभ के साथ-साथ अपना ‘जी’ भी क्यों जला रहे हैं ? मैं सब्जी में थोड़ा दही मिला देती हूँ आपको’ कहते हुए मनोरमा जी फ्रिज से दही का डोंगा निकाल लाईं।

थोड़े से दही ने सब्जी के तीखेपन को तो कुछ कम कर दिया किंतु मनोहर जी की जबान का तीखापन अभी भी बरकरार था,

‘कल से सब्जी तुम स्वयं बनाया करो। यह रोज-रोज की चिकचिक किसी दिन बहू के सामने ही मेरा मुंह खुलवा देगी, फिर मत कहना कि मुझे अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं है।’

दरअसल चार माह पहले ही मनोहर और  मनोरमा जी के बेटे का विवाह हुआ है। बहू उनके बेटे की अपनी पसंद की है, किंतु शादी सबकी रजामंदी से हुई है। बहू-बेटा दोनों  नौकरी करते हैं। बहू विवाह से पूर्व उनके बेटे वाली कंपनी में ही काम करती थी।

विवाह के पश्चात पहला माह तो हनीमून, घूमने-फिरने और कुछ घर तथा कुछ बाहर की दावतों में गुजर गया। उसके बाद बहू ने नौकरी पर जाना शुरू कर दिया है और धीरे-धीरे मनोरमा जी जानने लगी कि उनकी बहू किचन से दूर-दूर रहने वाली लड़कियों में से है। खाना बनाने के नाम पर उसके हाथ-पांव फूलने लगते हैं,

लेकिन वे इस बात से बहुत प्रसन्न हैं कि वह बहुत विनम्र है और धीरे-धीरे घर के तौर-तरीकों को सीख रही है।अपने सास-ससुर का बहुत ध्यान रखती है। हनीमून से लौटते ही उसने उन दोनों की दवाइयों, कपड़ों और सामान आदि के रखरखाव की पूरी जानकारी ले ली है। अपनी नौकरी के साथ-साथ घर की सफाई,कपड़ों की धुलाई आदि के प्रति भी वह पूरी तरह चौकन्नी है और पाक कला में अधिक निपुण न होते हुए भी समय मिलते ही वह किचन में उन्हें मदद देने की भरसक कोशिश करती है।

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अब इससे ज्यादा और क्या चाहिये उन्हें ? सर्वगुण संपन्न तो इस संसार में कोई भी नहींहोता ! जहां तक खाना बनाने की कुशलता की बात है तो धीरे-धीरे वह स्वयं ही उसे इसमें भी कुशल बना देंगी, परंतु खाने के अति शौकीन मनोहर जी को उसकी  ये सब ‘अच्छाइयाँ’ मन मुताबिक खाना मिल जाने के बाद ही नजर आती हैं।

‘मैं तुम से ही बतिया रहा हूं। सुन रही हो न मेरी बात ? कल से या तो सब्जियां खुद बनाओ नहीं तो बहू को मेरी पसंद के मसालों के अनुसार अच्छी तरह की ट्रेनिंग दे दो ‘

‘अजी, इस उम्र में स्वाद के नाम पर इतना गुस्सा ठीक नहीं है आपके लिए। अभी नई-नई आई है इस घर में। घर के तौर-तरीके, खान- पान, सबकी पसन्द-नापसन्द समझने में कुछ वक्त तो लगेगा न उसे भी। वैसे भी वह पढ़ी-लिखी है, तीखे-तेज मसालों का दुष्परिणाम स्वयं समझती है। हां,अभी सब्जियों में उन्हें मिलाते समय उनकी मात्रा का अंदाजा नहीं लगा पा रही है। धीरे आपके मुताबिक मसालों का अनुमान लगाना भी सीख जाएगी।’

फिर पति को बेटी की याद करवाती हुई वे पुनः बोलीं, ‘भूल गए अपनी बिट्टो को ? कॉलेज में हर साल पढ़ाई में अव्वल आती रही, आए दिन स्कूल-कॉलेज के अलग-अलग मुकाबलों में जीतती रही, लेकिन ‘मूंग दाल को पतली वाली पीली दाल’ ही बोलती रही। आपने ही तो कई बार उसे समझाया था

कि जैसे गणित की इतनी मुश्किल-मुश्किल थ्योरम्स और इक्वेशन याद रखती हो, जैसे कविता-कहानी,निबंध तथा भाषण प्रतियोगिताओं के विषय याद करती हो, वैसे ही ‘च’ से ‘चटपटी’ मोटी चना दाल, ‘म’ से ‘मरियल’ सी मूंग दाल और ‘अ’ से ‘अनचाही’ अरहर दाल, जो उसे पसंद नहीं थी,

के नाम से ही रट्टा लगा लो इन दालों के नाम का , लेकिन वह विवाह के पूर्व तक उसे ‘पतली वाली पीली दाल’ ही कहती रही न ! क्यों ? क्योंकि पढ़ाई में मगन रहते हुए किचन के प्रति उसका रुझान ही नहीं था। उन दिनों मैं भी उसे प्यार भरे कितने उलाहने दिया करती थी कि ससुराल में जाकर जरूर मेरी नाक कटवाएगी।’

‘किंतु अब ? अब कैसे भाँति-भाँति के व्यंजन बनाने में निपुण हो गई है। अपनी घर गृहस्थी और नौकरी के साथ-साथ कैसी निपुणता से मेहमान नवाजी करना सीख गई है। दूर क्यों जाना ? अभी विवाह के अवसर पर ही जब उसने आयोजन में बच गए सफेद चावलों का सदुपयोग करते हुए उन्हें ‘लेमन राइस’ के रूप में तड़का लगाकर डाइनिंग टेबल पर परोसा था तो अपनी छाती चौड़ी करके सबसे ज्यादा चटखारे आप ही लगा रहे थे।’

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‘अरे, कुछ नहीं भूला है मुझे’ बेटी का प्रसंग चलते ही उसे तथा उसके द्वारा खिलाए ‘लेमन राइस’ के स्वाद को पुनः महसूस करके मनोहर बाबू सहज हो चुके थे,

‘याद तो मुझे वह दिन भी है अच्छी तरह से है जब तुम नई-नई ब्याह कर आई थीं और पहली बार गाजर की सब्जी काटते समय तुम्हारे हाथ की एक उंगली का नेलपॉलिश से सजा-संवरा लंबा नाखून कट गया था,जिसे पकड़कर तुम देर तक रोती रही थीं। उस परिस्थिति में मैं तो सकपका ही गया था’ कहते-कहते मनोहर बाबू के चेहरे पर व्यंग्य भरी मुस्कान आ चुकी थी।

‘हुम्म …लेकिन धीरे-धीरे मैं भी आपकी गृहस्थी और अपने अत्यंत प्रिय लंबे नाखूनों को एक साथ संभालना सीख ही गई न ?’

‘ दरअसल जो लड़कियां स्कूल-कॉलेज और यूनिवर्सिटीज में जाकर बड़ी-बड़ी डिग्रियां प्राप्त कर सकती हैं, करियर के रूप में अपने सपनों को उड़ान दे सकती हैं, उनके लिए खाना बनाना सीखना कोई बहुत बड़ी डील नहीं होती है, हां इस वक्त उनका फोकस कहीं और होता है। फिर,उनकी शिक्षा-दीक्षा खत्म होते ही वे नौकरी में अपने करियर बनाने में जुट जाती हैं।

इसी बीच  झटपट उनका विवाह कर दिया जाता है। हमारी बहू के साथ भी ऐसा ही हुआ है। पढ़ाई खत्म होते ही उसने कंपनी जोइन कर ली और उसी दौरान आपके बेटे ने उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रख दिया।’

‘हुम्म..तुम सही कह रही हो मनोरमा ! पर मेरी खातिर कुछ दिनों के लिए तुम इतना तो कर ही सकती हो न कि जब भी बहू सब्जी बनाए, बाकी काम छोड़कर किचन में तुम उसके साथ रहो। ताकि मुझे मेरे पसंदीदा मसालों से बना खाना मिल सके।’

‘अजी, आपके साथ की गई इस ‘माथापच्ची’ से बचने के लिए इस अभियान पर तो मुझे लगना ही पड़ेगा’ कहते हुए मनोरमा जी खिलखिला पड़ीं और उनके पति महोदय भी मुस्कुरा पड़े।

  उमा महाजन

  कपूरथला

  पंजाब

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