पछतावे के ऑंसू – श्वेता अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

स्नेहा जैसे ही तैयार होकर ब्रेकफास्ट टेबल पर पहुॅंची।वहाॅं अंशुल को ना देख उसने रामू काका से पूछा “काका,अंशुल ने ब्रेकफास्ट कर लिया।”

“नहीं बिटिया, अंशुल बाबा तो अब तक उठे ही नहीं है।”

“क्या! अब तक नहीं उठा। 9:00 बज रहे हैं। 10:00 बजे तो उसकी कोचिंग है। हद होती है, लापरवाही की। दिल्ली के ट्रैफिक में आधा घंटा तो रास्ते में ही लग जाएगा। आप फटाफट उसका ब्रेकफास्ट लगाइए। मैं उसे लेकर आती हूॅं।”

“लेकिन, बिटिया तुम्हारा नाश्ता?”

“मैं बाद में कर लूॅंगी।” कहकर वह तेजी से अंशुल के रूम की ओर बढ़ चली।

“अंशुल, जल्दी उठो।” कहकर उसने जैसे ही उसके रूम का दरवाजा खोलना चाहा। उसने पाया कि दरवाजा तो अंदर से लॉक है।

“अरे! यह रूम का दरवाजा अंदर से क्यों बंद है? अंशुल तो कभी दरवाजा लॉक नहीं करता।” सोचते हुए वह दरवाजा खटखटाने लगी।

“अंशुल, दरवाजा खोलो।” जब काफी देर तक खटखटाने पर भी अंशुल ने दरवाजा नहीं खोला तो वह घबरा गई और बदहवास सी दरवाजे को पीटने लगी।

आवाज सुनकर रामू का कभी वहाॅं आ गए। “क्या हुआ बिटिया,इस तरह दरवाजा क्यों पीट रही हो?”

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“काका, कब से खटखटा रही हूॅं। अंशुल दरवाजा ही नहीं खोल रहा। मुझे बहुत घबराहट हो रही है।”

“बिटिया कछु नहीं होगा। तुम बैठो, हम बाहर से ड्राइवर को भी बुला लाते हैं। लगता है दरवाजा तोड़ना पड़ेगा।”

जैसे ही दरवाजा तोड़ा गया, अंदर का नजारा देखकर स्नेहा के होश उड़ गए। अंदर बेड पर उसका भाई अंशुल बेसुध पड़ा था। उसके एक हाथ की कलाई से खून टपक रहा था और दूसरे हाथ में एक कागज था जिस पर लिखा था ‘दीदी मैंने हमेशा आपकी खुशी के लिए अपनी ख्वाहिशों को दबाया।

लेकिन, अब मैं थक गया हूॅं। मुझे माफ करना।’ यह सब देख कर स्नेहा चिल्ला पड़ी। उसने तुरंत अपना दुपट्टा उसकी कलाई पर बांधा और उसे लेकर अस्पताल की ओर भागी। लेकिन, वह अंशुल को ना बचा पाई।अपने बेटे समान भाई की मौत से उसकी पूरी दुनिया ही बिखर गई।अंशुल की मौत ने उसे अंदर तक तोड़ दिया था।

उसने अंशुल को अपने बेटे की तरह पाला था। माॅं-पापा की मृत्यु के बाद उसके जीवन का एक ही मकसद था, अंशुल को खूब पढ़ा-लिखा कर एक सफल इंसान बनाना। लेकिन, वह अपने मकसद को पूरा करने में इस कदर डूब गई कि कब वह अंशुल के सपनों, उसकी खुशियों से दूर हो गई उसे पता ही नहीं चला। अंशुल को पेंटिंग्स से बेइंतेहा प्यार था। रंग और ब्रश उसके करीबी दोस्त और कैनवास उसकी भावनाओं का आईना था। उसे पेंटिंग करना बहुत पसंद था। उसकी बनाई पेंटिंग्स को स्टेट यहाॅं तक की एकबार नेशनल लेवल पर भी अवार्ड मिल चुका था।

वह पेंटिंग को अपना कैरियर बनाना चाहता था जबकि, स्नेहा चाहती थी कि वह खूब पढ़-लिख कर किसी ऊॅंची पोस्ट पर जाए।डॉक्टर या इंजीनियर बने। स्नेहा की बातें सुनकर अंशुल अपने मन को बहुत समझाता था “दीदी सही रहती है। मैं पहले पढ़ाई और कैरियर पर ध्यान दूॅंगा। लेकिन, हर रात जब वह अकेला होता उसके सपने ऑंसू बनकर बह जाते।

एकदिन उसने हिम्मत कर स्नेहा से कहा “दीदी,मैं पेंटिंग को अपने कैरियर के रूप में अपनाना चाहता हूॅंं। मुझे फाइन आर्ट्स पढ़ना है।” 

यह सुनते ही स्नेहा बिफर पड़ी  “दिमाग खराब हो गया है क्या तुम्हारा।पेंटिंग से घर नहीं चलता। समझे। पहले पढ़ लिखकर कुछ बन जाओ। फिर यह कलर-ब्रश चलाते रहना।” यह कहकर उसने उसके हाथ से कलर और ब्रश को छीनकर दूर फेंक दिया।

इसके बाद अंशुल एकदम चुप सा हो गया था। सारा दिन किताबों में घुसा रहता। उसे सारा दिन किताबों में घुसा देख स्नेहा बहुत खुश होती। उसे लगता कि पेंटिंग का ख्याल अंशुल के दिमाग से उतर गया है। लेकिन वह गलत थी। अंशुल की चुप्पी का इतना भयंकर परिणाम होगा। यह उसने उसने सपने में भी नहीं सोचा था। अब वह रात दिन खुद को दोष देती “अगर मैं उसकी भावनाओं और सपनों को समझती तो आज शायद वह मेरे साथ होता।”

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एक दिन ऐसे ही बैठे-बैठे वह अंशुल को याद कर रो रही थी। तभी अचानक उसका मन बहुत विकल हो गया और वह अंशुल,अंशुल चिल्लाते हुए अंशुल के रूम की ओर भागी। अंशुल के जाने के बाद आज पहली बार उसने उसके रूम में पग धरा था। उसने रूम में जाते ही उसके ब्रश और कलर्स को सीने से लगा लिया। तभी उसकी नजर कोने में रखी एक पेंटिंग पर पड़ी। उस पेंटिंग में एक लड़के की तस्वीर थी जो मैथ की बुक पकड़े ऑंसुओं में भी मुस्कुरा रहा था। बगल में ही टूटी हुई कलर की शीशी और ब्रश पड़ा था।कैनवास पर नीचे लिखा था ‘दीदी की खुशी के लिए।’ यह देखकर वह स्तब्ध रह गई। उसकी ऑंखों से ‘पछतावे के ऑंसू’ बह निकले।

कुछ देर उस पेंटिंग को गौर से देखने के बाद उसने रामू काका को आवाज़ लगाई “काका, इस पेंटिंग को और अंशुल की बाकी सारी पेंटिंग्स जो स्टोर और छत के कमरे में रखी हुई है, सबको हाल में इकट्ठा करिए।”

“बिटिया, तुम इन सब पेंटिंग्स के साथ क्या करने वाली हो? देखो, समझो बिटिया ये सब अंशुल बाबा की आखिरी निशानी हैं।” रामू काका ने रोते हुए कहा।

“काका आपसे जितना कहा जाए, उतना ही कीजिए।” ऐसा कहकर स्नेहा वहाॅं से चली गई।

तीन चार दिनों बाद स्नेहा ने एक बड़ा सा ट्रक बुलाया “काका सारी पेंटिंग्स को इसमें लोड करा दीजिए।”

“बिटिया, तुम इन पेंटिंग्स के साथ क्या करने वाली हो। देखो, कुछ उल्टा-सीधा मत करना। बाबा ने इन पेंटिंग्स को बहुत प्यार से बनाया था।” यह सुनकर स्नेहा अपनी सूनी ऑंखों से कुछ देर तक रामू काका को देखती रही फिर निकल गई।

एक हफ्ते बाद वह रामू काका से बोली “काका चलिए। आपको कहीं ले चलना है।” फिर वह उन्हें लेकर एक आर्ट गैलरी के एग्जीबिशन हॉल में पहुॅंची। वह पूरा हॉल अंशुल की पेंटिंग्स से सजा हुआ था।लोग उसकी पेंटिंग्स को देखकर बहुत भावुक हो रहे थे।

“बिटिया, यह सारी पेंटिंग्स यहाॅं!”

“हाॅं काका, मैं चाहती हूॅं कि मेरे अंशुल की कहानी, उसके सपने, उसकी पीड़ा लोगों के सामने आए ताकि किसी और बच्चे को अंशुल की तरह अपनी जान ना गंवानी पड़े।” ऐसा कहते हुए उसने एग्जिबिशन में मौजूद लोगों को संबोधित करते हुए कहा “यह मेरे और मेरे भाई की कहानी है।

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उसने अपनी हर खुशी, मेरी खुशी के लिए कुर्बान कर दी। लेकिन, मैं उसकी भावनाओं को नहीं समझ पाई। आज, मैं आप सब से एक बात कहना चाहती हूॅं।अपनों के सपनों को समझे, उनका सम्मान करें। क्योंकि जब वे नहीं रहते तो सिर्फ पछतावे के ऑंसू रह जाते हैं।”

इस एग्जीबिशन के बाद उसने एक आर्ट स्कूल खोला जहाॅं बच्चों को उनके सपनों को साकार करने का मौका दिया जाता था। उसने अपना हर दिन अंशुल की यादों और उसके अधूरे सपने को पूरा करने में लगा दिया। अंशुल का सपना अब उसका सपना बन चुका था।

दोस्तों, अपनों के सपनों और उनकी भावनाओं को कभी भी नजरअंदाज ना करें। किसी पर भी जबरदस्ती अपनी राय थोपने से कई बार बहुत घातक परिणाम सामने आते हैं और फिर हमारे पास पछतावे के ऑंसुओं के अलावा कुछ नहीं बचता।

आपकी इस बारे में क्या राय है? अपनी राय कमेंट के माध्यम से अवश्य दें।

धन्यवाद

साप्ताहिक विषय कहानी प्रतियोगिता#पछतावे के ऑंसू

लेखिका – श्वेता अग्रवाल

        धनबाद, झारखंड।

शीर्षक-पछतावे के ऑंसू

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