“शुभम क्या बोल रहा था फोन पर वैष्णवी!… इस बार तो आ रहे न वो लोग दीवाली पर??”
लॉन में लैम्पपोस्ट के ऊपर बने चिड़िया के घोंसले को बरामदे में ईज़ी चेयर पर बैठे-बैठे देर से देख रहे थे समर प्रताप। पत्नी गरम चाय बना कर ले आयी थीं और आतुरता से पूछ रहे थे वे।
“अपना जी छोटा मत कीजियेगा जी!…शुभम कह रहा था कि उसे तो शायद छुट्टी मिल भी जाये, आपकी बहू को नहीं मिल पायेगी… तो इस दीवाली पर तो आना सम्भव नहीं…नये साल में देखेंगे!” वैष्णवी जी उन्हें ढाँढस बँधाती-सी बोलीं।
“और शुभिका?…उसका भी तो कॉल आया था न!” उदासी घुली आवाज़ में एक क्षीण आशा साँस ले रही थी।
“कह रही थी, अभी वाले प्रोजेक्ट ने तो दिन का चैन और रातों की नींद छीन ली है… टारगेट पूरा करने का इतना प्रेशर है कि वह अभी चार-छः महीने घर आने की सोच भी नहीं सकती।”
“इस बार भी त्यौहार पिछली बार की तरह अकेले ही मनाने पड़ेंगे, लगता है…बेरौनक, बिना किसी उत्साह के!” बरामदे से उठकर थके कदमों से भीतर जाने का उपक्रम करते वो बोले।
“एक बात बोलूँ जी! न तो शुभम बाहर जाना चाहता था, न ही शुभिका… शुभम तो यहीं रहकर आपके पुश्तैनी काम को सँभालना चाहता था… आपने ही उसके ऊपर भावनात्मक दबाव डालकर…एक तरह से उसे मानसिक प्रताड़ित करके जबरन इंजीनियरिंग करवायी… फिर ताने दे-देकर मज़बूर किया कि वह ख़ूब ऊँचा उड़े, बड़ा आदमी बनकर दिखाये।…
अब वह आपके दिखाये सपनों के जाल में इस कदर फँस चुका है कि चाह कर भी वापस नहीं आ सकता। शुभी के साथ भी यही किया….वह तो बी.ए. करके अपनी टीचरशिप में ही संतुष्ट थी…बस बी.एड. करना चाहती थी… आपने मैनेजमेंट की पढ़ाई का भूत चढ़ा दिया उसे…वह वही तो कर रही है, जो आप चाहते थे!” उनके पीछे आती हुई वैष्णवी का स्वर न चाहते हुए भी कुछ कड़वा हो चला था।
“अरे! जो किया, उनकी भलाई के लिए किया… तुमने ही एक बार दिखाया था न मुझे कि चिड़िया के बच्चे गिर जाने के डर से घोंसला छोड़कर उड़ना ही नहीं चाहते थे… फिर चिड़िया ने उन्हें जबरन पकड़ कर घोंसले से बाहर धकेलना शुरू कर दिया था और बच्चे उड़ना सीख गये थे!” समर प्रताप पुरानी घटना स्मरण कराते हुए बोले।
“जब चिड़िया से शिक्षा लेकर आपने अपने बच्चों को उड़ने को पर और खुला आकाश दे ही दिया है तब चिड़िया के जोड़े को देखकर यह भी तो सीखिए…. खाली हुए घोंसले में चिड़िया का जोड़ा उदास नहीं बैठा रहता, बल्कि दूसरी उड़ान के लिए फिर तैयारी में लग जाता है…प्रकृति ने सिखाया है उन्हें, कि ज़िन्दगी कभी रुकती नहीं है!” कुछ दार्शनिक अंदाज़ में बोलीं वैष्णवी।
“मेरे पास दूसरी उड़ान जैसा क्या है?” समर प्रताप के स्वर में असमंजस था।
ममतामयी मुस्कान उभर आयी थी वैष्णवी के चेहरे पर। इस प्रश्न के लिए सर्वथा तैयार जो थीं वे।
“आपके चचेरे भाई माधव पूछ रहे थे न, अपने दोनों बड़े बच्चों को हमारे पास भेजने को, कि उनके बीहड़ जंगल वाले गाँव में कोई सुविधा नहीं है अच्छी पढ़ाई की… अपने इस कस्बे में तो कई अच्छे स्कूल हैं….उन्हें ख़बर करके हाँ बोल दीजिए न!”
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(स्वरचित, मौलिक)
नीलम सौरभ
रायपुर, छत्तीसगढ़