अरे,दुर्गा काका,कैसे हैं आप,कल से आपसे बात ही नही हो पायी।काका सब ठीक है ना?
हाँ-हाँ, सब ठीक है छोटे सरकार।अब तुम आ गये हो तो और सब ठीक हो जायेगा।
और सब ठीक हो जायेगा, यानि कुछ गड़बड़ है?काका बताओ ना क्या बात है?
कुछ नही बबुआ,पूरे दो साल में आये हो,आराम करो,बाते तो होती रहेंगी।
छुटपन से आपने पाला है मुझे,क्या मैं आपकी आंखों की भाषा नही समझता?बबुआ कह कर हक जताते हो पर दिल की बात नही बता रहे,बताओ क्या बात है?
ठाकुर रघुराज सिंह का नाम पूरे इलाके में था,भले ही जमीदारी चली गयी हो,पर रघुराजसिंह का रुतबा और ठसक आज भी पहले ही जैसी थी।आज भी हवेली के गेट पर दरबान रहता,आज भी उनकी गाड़ी का दरवाजा ड्राईवर उनके लिये कोर्निश करके खोलता और वे शान और अकड़ के साथ कार में बैठते।आज भी शाम से ही उनके आहते में महफिल जमती,दो दो नौकर आधी रात तक खिदमत में लगे रहते।हफ्ते में एक दो बार जाम भी छलकते।ठाकुर रघुराज सिंह जी की दिलेरी आज भी जमीदारी के समय जैसी ही थी।आलीशान जीवन जीने की शैली ज्यो की त्यों थी।
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समय परिवर्तन हो चुका है,यह अहसास वे अपने पास तक फटकने भी नही देते थे।जमीदारी के समय मे तो पूरी कायनात उनकी थी तो आमदनी की कोई कमी थी नही,पर अब? अब आमदनी बहुत ही सीमित हो गयी थी।जो जमीन बची थी उससे भी कुप्रबंधन के कारण पूरी आमदनी प्राप्त नही हो रही थी,जबकि खर्चे वो ही पहले जैसे थे,उनमें कटौती करने की ठाकुर साहब सोच भी नही सकते थे।उनका मानना था जमीदारी चली गयी तो क्या, पर दिल और दिमाग तो हमारा जमीदारी वाला ही है।
नतीजा ये हुआ कम आमदनी और खर्च अधिक होने के कारण ठाकुर साहब पर कर्ज बढ़ने लगा। ठाकुर रघुराज सिंह के पास हवेली में ही दुर्गा अपनी किशोर अवस्था से ही चाकरी कर रहा था,उसके आगे पीछे कोई था नही,अपने बेटे को को जरूर पढ़ा लिखा दिया था,शहर में वह नौकरी करने लगा था।उसने अपने पिता से कई बार आग्रह किया भी कि अब उन्हें नौकरी करने की जरूरत नही है,वे शहर ही उसके पास चलकर रहे,पर दुर्गा कह देता,बेटा जीवन भर बाबू सरकार का नमक खाया है,
इस उम्र में उन्हें छोड़ कर जाने को दिल नही मानता।दुर्गा वास्तव में ठाकुर साहब का दिल से वफादार था।वह जानता था कि इस प्रकार ठाकुर साहब का रहन सहन,शान शौकत और महफिलों में दौलत लुटाने से आगे चलकर उन्हें परेशानी आयेगी ही।एक बार हिम्मत करके दुर्गा ने ठाकुर साहब से कहने का साहस किया कि बाबू सरकार छोटा मुँह बड़ी बात ,सरकार आमदनी कम होती जा रही है और—-।आगे की बात ठाकुर साहब ने काट दी और बोले दुर्गा हिसाब किताब देखने का तुम्हारा काम नही है,जो करते हो वही करो।अब दुर्गा क्या बोलता,चुपचाप सिर झुकाकर चला गया।
दुर्गा देख भी रहा था और समझ भी रहा था कि ठाकुर साहब तनावग्रस्त रहने लगे थे,कर्ज देने वाले अब तकादा करने लगे थे।ज्यो ज्यो दिन बीत रहे थे,तकादे वाले अपना संयम खोते जा रहे थे,उनकी ट्यून बदल ती जा रही थी।घर का सामान बिकता जा रहा था,पर ठाकुर साहब अपनी झूठी शान बान बनाये रखने पर अडिग थे।
ठाकुर साहब का बेटा राजीव विदेश से अपनी आई टी की पढाई पूरी करके वापस आया था जिसे हवेली की वर्तमान स्थिति का आभास तक नही था।दुर्गा ने ही राजीव को बचपन से ही खिलाया था,दुर्गा ही उसे दुलार में बबुआ कहता था तो राजीव दुर्गा को काका बोलता था।
राजीव के आने के बाद दुर्गा को लगा कि शायद बबुआ सब ठीक कर देगा।शाम को मौका मिलने पर दुर्गा ने सब स्थिति से राजीव को अवगत कराकर मिन्नत की-रे बबुआ बचा ले हवेली की इज्जत।झूठी आन शान से बाबू सरकार को बाहर निकाल ले।
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राजीव के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गयी थी,जिसका समाधान एकदम उसके पास नही था।उधर ठाकुर साहब बेहद तनाव में रहने लगे थे,असल मे समाधान उनके पास भी नही था।राजीव के आने पर ठाकुर साहब को लगा कि अब उनकी इज्जत उनके बेटे के सामने भी नही बचेगी।इसी तनाव में ठाकुर साहब को रात्रि में ही दिल का दौरा पड़ गया।तुरंत उन्हें एम्बुलेंस से शहर के हॉस्पिटल लाया गया।राजीव साये की तरह अपने बाबूजी के साथ तीमारदारी में लगा रहा।तीन दिन से ठाकुर साहब आईसीयू में थे और बाहर बैठा रहा राजीव अपने बाबूजी के इंतजार में।
ठाकुर साहब को चार दिन बाद रूम में शिफ्ट कर दिया गया। आज दुर्गा जब घर से आया तो एक लिफाफा जो राजीव के नाम था,दे गया।इस लिफाफे में वास्तव में राजीव के लिये एक बड़ी कंपनी का नियुक्ति पत्र था।अपॉइंटमेंट लेटर को देख राजीव की आंखे चमक उठी।उसे अपने घर की समस्या का हल समझ आ गया था।राजीव जी जान से अपने पिता की सेवा में लगा था।दस दिनो बाद डॉक्टर्स ने उन्हे अगले दिन डिस्चार्ज करने को बोल दिया।डिस्चार्ज की बात सुनकर ठाकुर साहब का चेहरा उतर गया।
राजीव समझ गया कि अपने कस्बे का तनाव फिर उसके पिता पर सवार हो गया है और यह अब इस स्थिति में खतरनाक है।राजीव ने अब देर करना उचित नही समझा और वह अपने पिता से बोला-बाबूजी मुझे घर की सब जानकारी दुर्गा काका से मिल चुकी है।मैंने सब समाधान सोच लिया है बस आपकी सहमति की आवश्यकता है।आश्चर्य से ठाकुर साहब अपने बेटे का मुँह देखते रह गये, उन्हें आज पहली बार लगा वे अकेले नही है, उनका बेटा उनके साथ खड़ा है।
राजीव ने बताया बाबूजी हम अपनी कुछ जमीन बेचकर सब कर्ज चुका देंगे,मैं उन सब से खुद बात कर लूंगा,आप निश्चिंत रहे।मेरी नौकरी लग गयी है अब हम शहर में रहेंगे।बाबूजी अब हम जमीदार नही हैं, ये सत्य तो स्वीकार करना ही होगा।
आज पहली बार ठाकुर साहब अपने ही बेटे की ओर चुप चाप देख रहे थे और सोच भी रहे थे कि उनका बेटा उनसे भी बड़ा हो गया है।आंखों से दिखावे और झूठी शान का पर्दा उतर गया था,उनके मुँह से एक भी शब्द नही निकला पर उन्होंने राजीव का हाथ अपने हाथ मे लेकर दबा लिया।राजीव इस स्पर्श का भाव समझ रहा था।
कुछ दिनों में ही राजीव ने योजनानुसार कर्ज वालो का कर्ज उतार दिया और अपने पिता को साथ लेकर शहर चला आया,जहां उसकी जॉब लग चुकी थी।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
मौलिक एवम अप्रकाशित
#दिखावे की जिंदगी