बाबा,अब तो इसे मार देने के अलावा कोई रास्ता नही बचा है।पूरे गांव में बिरादरी में थू थू हो रही है।
बेटा, सब्र कर। आखिर प्रकाशी हमारी बच्ची है,लाड़ प्यार से पाला है।उसको मार देने को सोचने भर से बेटा मेरा तो दिल कांपता है।कोई और राह निकाल बेटा।
कोई राह नही,पिछले बरस अपने गावँ के मुंशी काका ने भी अपनी बेटी का ये ही इलाज किया था।बाबा जब बेटी घर की इज्जत की दुश्मन बन जाये तो उसे मिटाना ही इलाज है।
पर मुंशी को मिला क्या,बिटिया भी गयी और खुद जेल में अब भी सड़ रहा है।मैं मानता हूं प्रकाशी ने गलती की है,लेकिन उस गलती को सुधारना का कर्तव्य भी तो हमारा है।
जब सब कुछ हो ही गया तो क्या सुधारे?मुँह दिखाने के काबिल हमे इस प्रकाशी ने कही का नही छोड़ा।बाबा लगता है हमे भी मरना ही पड़ेगा,कैसे घर से बाहर भी जाये?
ग्राम घाट में जगरु अपने पिता गिरधर ,पत्नी कम्मो और बेटी प्रकाशी के साथ रहता था।एक छोटा सा जमीन का टुकड़ा उसके पास था,जिसमे घर लायक अन्न पैदा कर लेता था,बाकी ग्राम में ही बड़े किसानों के यहां मजदूरी कर लेता था, जिससे उसे आर्थिक परेशानी नही झेलनी पड़ती थी। जगरु खुद जरूर अनपढ़ था,लेकिन वह अपनी बेटी प्रकाशी को खूब पढ़ाना चाहता था,उसकी दिलई इच्छा थी कि प्रकाशी बड़ी सख्शियत बन जाये,
भले ही उसके खर्चे के लिये उसे कितनी भी मेहनत क्यो न करनी पड़े।संयोगवश प्रकाशी होनहार निकली,उसकी पढ़ाई लिखाई में रुचि भी खूब थी।सब कुछ ठीक चल रहा था।प्रकाशी का संपर्क उसके ही कॉलेज के सहपाठी संजय से हो गया।संजय भी होनहार लड़का था और वह प्रशानिक प्रतियोगिता की तैयारी कर रहा था,
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संजय के ही प्रोत्साहित करने पर प्रकाशी ने भी उसी प्रतियोगिता की प्रिपरेशन करनी प्रारम्भ कर दी।चूंकि दोनो एक ही कॉम्पिटिशन की तैयारी कर रहे थे,सो दोनो का मिलना जुलना अधिक बढ़ गया था।प्रकाशी थी तो मजदूर की बेटी पर स्वर्ण जाति से थी तो संजय एक मध्यम श्रेणी परिवार से पिछड़ी जाति से था।
लेकिन दोनो इस जाति विभेद की सोच से बेखबर अपने कॉम्पिटिशन की तैयारी में व्यस्त थे।दोनो में आकर्षण बढ़ना स्वभाविक था।दोनो के मेल मिलाप की खबरे पहले विद्यालय में फैली, फिर ये समाचार प्रकाशी के पिता जगरु तक भी पहुंच ही गया।जगरु को संजय के होनहार होने या न होने से कोई मतलब नही था,उसे इससे भी कोई सरोकार नही था कि संजय का परिवार उससे अधिक सम्पन्न है।
जगरु के दिलोदिमाग में बस एक ही बात घूम रही थी कि उसकी बेटी ने अपने से नीची जाति के युवक से प्रेम करके उसकी तथा खानदान की नाक कटा दी है। प्रकाशी तर्क दे रही थी कि बापू संजय सुशील और मेधावी है उससे मिल तो लो,पर जगरु इसी बात से आहत हो अपना आपा खोता जा रहा था।उसे इस समस्या का इलाज ये ही समझ आ रहा था कि वह अपनी बेटी की ही हत्या कर दे।जगरु के पिता गिरधर हालांकि कोई दूसरी राह निकालने की सलाह दे रहे थे,पर जगरु कुछ भी समझने को तैयार नही था।
प्रकाशी अपने पिता के मंतव्य को ताड गयी,उसने सारी बात संजय को बता कोई रास्ता ढूढने को कहा।संजय को कोई रास्ता सूझ ही नही रहा था,वो कह रहा था प्रकाशी अब तू ही बता मैं अपनी जाति को कैसे ऊंची करूँ?तेरे पिता जब अपनी बेटी की ही नही मान रहे तो भला मेरी क्यो मानेंगे?उनकी बीमारी की दवाई कहाँ से लाऊं?
बिना घर की अनुमति के प्रकाशी का मन शादी का नही था।असमंजस की स्थिति में प्रकाशी घर वापस आ गयी।खूब दिमागी मंथन के बाद प्रकाशी ने समझ लिया कि इस ऊंच नीच की बीमारी की कोई दवाई नही है,इसका इलाज ऑपरेशन ही है।भावनाओं से ऊपर उठकर निर्णय लेना ही होगा।सोचकर प्रकाशी संजय के पास पहुंच गयी और बोली संजय चलो हम आर्य समाज मे आज ही शादी करके इस विभेद को मिटा देते हैं, बोलो समाज संघर्ष को तैयार हो?संजय ने विषम्य से प्रकाशी को देखा, उसके चेहरे के तेज को देख उसने प्रकाशी का हाथ पकड़ लिया और दोनो चल दिये नयी दुनिया बसाने—।
बालेश्वर गुप्ता, नोयडा
मौलिक एवं अप्रकाशित