कुछ दिन पहले मैं वापस लौटी थी पूरे 6 महीने बाद अपने शहर में। पढ़ाई खत्म कर।
कई बातें जो फोन पर नहीं हो पाती थी वह जानने के उत्सुकता बनी रहती थी।
“मां मैं घूम कर आती हूं!”मां की बात सुने बगैर मैंने अपनी स्कूटी उठाई और निकल पड़ी।
चौराहे पर एक प्लास्टिक की शेड लगाकर एक प्रौढ़ महिला लगभग 60-65वर्ष की रही होगी,बैठी मशीन पर सिलाई कर रही थी।
कुछ एक कस्टमर भी थे जो उससे कुछ बातें कर रहे थे।
“ यह कोई दर्जी तो नहीं लग रही है, बहुत ही सभ्रांत परिवार की लग रही है! कौन है ये,पहले तो इसे कभी नहीं देखा?”सोचती हुई मैं घर लौट आई।
“मां,,,, मैंने वो सारी बातें बता कर उनसे पूछा,वो कौन हैं?”
“अरे मत पूछ, वह बीना श्रीवास्तव है। तुम तो जानती हो उसे!”
“कौन बीना,,, श्रीवास्तव?”मैं अपने दिमाग पर जोर डालते हुए बोली
“अरे वही बीपी पब्लिक स्कूल की टीचर! तुम भूल गई उसे?”
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“अरे वो म्यूजिक टीचर दामिनी मैम!!!वो तो अब तक रिटायर भी कर गईं होंगी। वह इस हाल में कैसे?”मै बहुत ही आश्चर्य चकित थी।
“ रिटायरमेंट का ही तो असर है कि इस बुढ़ापे में ये सब करना पड़ रहा है!”मां ने ठंडी सांस भरी।
“मगर हुआ क्या था?”
“वही पुरानी कहानी, बेचारी बहुत ही दुखियारी है। क्या करे,अब यहां चौराहे पर बैठ थोड़ा बहुत सिल लेती है,उसी से अपना और अपने बीमार पति का खर्चा निकाल लेती है!”
“मगर ,,, टीचर थी तो रुपए तो होंगे ना उनके पास? बैंक बैलेंस भी होगा ही।”
“अरे नहीं रे, कहां से पैसे? प्राइवेट स्कूलों में पेंशन थोड़े ही मिलती है?
पति पत्नी दोनों कमाते थे। रिटायर कर गई।
जमापूंजी घर खरीदने में लगा दिया।
बच्चों ने धोखे से हड़प लिया।
इस सदमे में पति को हार्ट अटैक आ गया। उनकी बीमारी और इलाज में आधा पैसा निकल गया।
अब घर से बेघर होकर वहीं कोचिंग सेंटर के नीचे वाले कमरे में रहतीं हैं दोनों पति-पत्नी।
दामिनी दिन में सिलाई करती हैं और शाम में दोनों पति-पत्नी ट्यूशन पढ़ा लेते हैं।”
“हे भगवान क्या दिन आ गया है?पर बेटा कैसा है उनका, अपने साथ नहीं रखता?”
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“कलयुग है सोनाली! अगर रखना होता तो इतना झमेला क्यों करता? इनके मरने के बाद सारी संपत्ति उसी की तो होती मगर आजकल के बच्चों में सब्र कहां?
उसने वह घर बेच दिया और दोनों बच्चों ने अपने लिए एक बड़ी सोसाइटी में फ्लैट ले लिया है ।
वहां इन दोनों को जाना माना है गार्ड इन्हें घुसने नहीं देता!”
मां बड़बड़ाती जा रही थी ।
“मां बाप बच्चों के के लिए क्या नहीं करते मगर बच्चे वही बच्चे मां-बाप को अपना बोझ समझ लेते हैं?
पता नहीं आजकल के जमाने में क्या संस्कार आ रहे हैं !”
मां की बात सुनकर मेरा खाने का मन ही नहीं हुआ।
मैं उठकर खड़ी हो गई।
दुर्गापुर के मार्केट से मैंने कई कपड़े लेकर आई थी ।उन्हें सिलने देना था ।मां के लिए साड़ियां भी लाई थी, उन में फॉल लगाना था और ब्लाउज भी सिलने थे ।
मैंने मां से कहा मां मैं दामिनी आंटी के पास से होकर आती हूं।
उन्हें कपड़े भी दे दूंगी सिलने के लिए।”
“ ठीक है सोनाली, चली जा ।कुछ मेरे पास भी कपड़े हैं वह भी दे देना।
किसी बहाने से हमें उनके मदद कर देनी चाहिए। मगर हां उनसे ज्यादा कुछ कुछ कहना मत। कहीं बुरा न लग जाए!”
“हां ,मैं अपने हाथों में कई पॉलिथीन लेकर पैदल ही वहां चली गई।
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वह अनवरत आंखें गड़ाए मशीन में बैठी हुई थी ।
उस समय उनके पास कोई भी नहीं था।
सड़क पर भी ज्यादा लोग आ जा नहीं रहे थे ।
सिर्फ आवाज मशीन की आ रही थी। मैं चुपचाप उन्हें देख रही थी ।
तभी उनकी नजर मेरे ऊपर पड़ी तो वह हल्के से मुस्कुराते हुए अपने पैर मशीन पर थमा दिए और कहा” कपड़े सिलवाने हैं क्या?”
मोटे चश्मे से झांकती हुए उनकी आंखें मेरी तरफ देख रही थी।
थोड़ी देर देखने के बाद उन्होंने मुझे पहचान लिया और कहा “तुम सोनाली हो ना!”
“ जी मैम नमस्ते !आप कैसी हैं ?”
“देख रही हो बुढ़ापे में मेरा हाल!”
मेरी आंखें भर आई ।मन किया मैं उनसे कहूं मैं आप मेरे साथ चलिए मेरे घर,मगर कह नहीं पाई।
मुझे चुप देख कर उन्होंने पूछा
“कपड़े सिलवाने हैं?”
उन्होंने मेरे कपड़ों के नाप ले लिए। साड़ी कपड़े रखकर अपनी साथ रखी हुई डायरी पर लिखती चली गई फिर मुझे एक पर्ची थमा कर बोली “तुम 8 दिन बाद ले जाना।
मैं सारे कुछ तैयार करके रखूंगी।”
“ मैम, आप शाम को लौटते समय घर आइए, चाय पीने!”
“अरे नहीं रे, तुम मेरे ऊपर तरस मत खाओ! गलती मेरी है। मैंने पैसे कमाए, दिन रात मेहनत की बच्चों के लिए।
बच्चे एक दिन कामयाब हो जाएं लेकिन मैं ही गलती की थी ना !
बच्चों में संस्कार नहीं भरा जो सबसे ज्यादा जरूरी था। मैं चिड़िया की तरह सुबह-सुबह फुर्र हो जाती थी और दिन भर अपने आप को कामों में झोंक कर यह सोचती थी कि महीने भर लाई हुई तनख्वाह ही सब कुछ है।
मैंने उस समय उन्हें प्यार ही नहीं दिया। न समय ।
उन्हें समय, प्यार दोनों के लिए मोहताज कर दिया था,आज बच्चों के मन में मेरे लिए कोई प्यार नहीं, कोई इज्जत नहीं और न समय है।
मैंने गलती की थी ना इसलिए मेरे बच्चे भी बड़े होते ही फुर्र हो गए।
अब गला साथ नहीं देता क्या म्यूजिक सिखाऊंगी ।
कुछ दिनों में ही मैं अपना एक बुटीक खोलना चाहती हूं।बस भगवान साथ दे दे।
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बस बेटा, बच्चों की याद आती है, उनके प्यार की मोहताज हो गई हूं मैं। उनकी याद आती है!”दामिनी मैम की आंखों में आंसू थे।
“मैम मैं भी तो आपकी बेटी की तरह हूं, बेटे ना सही बेटे सही! आपने भी तो मुझे म्यूजिक सिखाया था ना!
आप ही के कारण मैं आज संगीत में इतना कुछ सीख चुकी हूं, सब आपकी बदौलत।
आप मेरे साथ मेरे पास आ जाया कीजिए।”
“ हां बेटा!” दामिनी मैम के होठों पर एक हल्की सी मुस्कुराहट आ गई थी।
प्रेषिका -सीमा प्रियदर्शिनी सहाय
#मोहताज
साप्ताहिक विषय मोहताज के लिए
पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित रचना