“पापा जी, आई एम् सॉरी! पर चाचा जी बड़े हैं, आदरणीय हैं। आपकी और मम्मी जी की अनुपस्थिति में उन्हें मान-सम्मान देना और उनकी आवभगत करना मेरा कर्तव्य है। मैं उन्हें कैसे मना करती? वे कह रहे थे कि वे फिर से आएंगे और आपसे डिस्कस करके ही अनुज भैया की रिंग सेरेमनी का प्रोग्राम फाइनल करेंगे।” श्वेता ने अपने ससुर रामदयाल जी के गुस्से को शांत करने की कोशिश करते हुए कहा।
“आप बहू पर गुस्सा क्यों उतार रहे हैं? वह अपने चाचा ससुर को कैसे बोल सकती है कि वे मिठाई का डिब्बा वापस ले जाएं? गलती तो मनोहर की है। जिन बड़े भाई-भाभी ने उसे पढ़ा-लिखा कर पैरों पर खड़ा किया, उसने उनकी ही इज्ज़त का ख्याल नहीं रखा। खुद ही बड़ा बन गया। बिरादरी में नाक कटवा दी उसने आपकी।” रामदयाल जी की पत्नी कुसुमलता ने अपने पति के गुस्से को और भड़का दिया।
अब तो रामदयाल जी के गुस्से की सीमा न रही। क्रोध में जलते हुए वे अपने छोटे भाई मनोहर को भला-बुरा कहने लगे और उसका दिया हुआ मिठाई का डिब्बा अपने घर के आंगन की दीवार से पीछे खुले मैदान में फेंक दिया।
रामदयाल जी का गुस्सा पूरी तरह शांत भी नहीं हुआ था कि उनका भाई मनोहर फिर से आ गया।
मनोहर को देखते ही रामदयाल जी का ग़ुस्सा ज्वालामुखी बनकर फूट पड़ा, “तुझे शर्म नहीं आई, मुझे मान दिए बिना अनुज का रिश्ता तय कर दिया? आठ साल बड़ा हूं तुझसे! तू जो आज पैसे वाला सेठ बना इतरा रहा है, इस लायक तुझे मैंने ही बनाया! मंजरी और पवन (रामदयाल जी के बच्चे) के रिश्ते तय करने से लेकर शादी तक मैंने तुझे अपने साथ-साथ रखा, तुझे पूरा मान दिया और तूने मुझे इसका ये सिला दिया?”
मनोहर अपने बड़े भाई-भाभी के चरणों में झुककर माफी मांगते हुए बोला, “भैया, भाभी, अब पहले जैसा समय नहीं रहा। गौरी नामक एक लड़की अनुज ने खुद ही पसंद कर ली। जब मैंने उससे कहा कि रिश्ता जहां तेरे ताऊ-ताई जी चाहेंगे, वहीं तय होगा, तो वह बगावत पर उतर आया और कोर्ट मैरिज की धमकी दे दी। मैंने मजबूरन हां कर दी। अनुज ने तुरंत गौरी को खबर दे दी होगी, तभी उसके घरवाले मिठाई के कुछ डिब्बे लेकर मेरे ऑफिस आ गए। अनुज की मम्मी और मैं भी अभी लड़की से नहीं मिले हैं, और रिंग सेरेमनी तो आपके आशीर्वाद से ही होगी।”
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“बस, बस, अब ज्यादा बातें मत बना! तुम बाप-बेटे ने अपनी मर्जी से नई रिश्तेदारी जोड़ ली, तो रिंग सेरेमनी और शादी में भी सब खुद ही करो, हमारी क्या जरूरत है?” रामदयाल जी गुस्साते हुए अपने कमरे में चले गए और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया।
मनोहर घर लौट गए, सोचते हुए, “भैया अभी गुस्से में हैं। वे हमें बहुत प्यार करते हैं। दो-तीन दिन में अनुज और उसकी मम्मी के साथ फिर से जाएंगे, तो वे मान जाएंगे।”
अगले दिन मनोहर को इधर-उधर से पता चला कि रामदयाल ने उनका मिठाई का डिब्बा बिना पैकिंग खोले ही घर के पीछे फेंक दिया। उन्होंने उस स्थान पर खुद जाकर देखा, तो जानवरों ने डिब्बे को फाड़ दिया था और मिठाई बिखर गई थी।
यह देखकर मनोहर के गुस्से का ठिकाना न रहा। उसके मन में हजारों विचार एक साथ कोंधने लगे। जैसे:
“भैया ने इतना ओछा काम किया!”
“हमारी शुभ शगुन की मिठाई के साथ इतनी नीच हरकत!”
“नाराजगी अपनी जगह, लेकिन यह तो सीधे हमारे अशुभ की कामना है!”
“मैंने जिन भाई-भाभी को माता-पिता समान माना, वही हमारे अमंगल की कामना कर रहे हैं!”
‘ऐसे अशुभचिंतक भाई- भाभी का होना न होना बराबर है।”
इस घटना ने मनोहर और उनके परिवार के मन में रामदयाल के प्रति नफरत के बीज बो दिए। अनुज ने भी कह दिया, “ऐसे ताऊ-ताई से क्या आशीर्वाद लेना!” इसलिए मनोहर ने अपने बड़े भाई और उनके परिवार को अपने बेटे अनुज के विवाह के किसी कार्यक्रम का निमंत्रण ही नहीं दिया।
वहीं रामदयाल जी सोच रहे थे कि मनोहर दोबारा अनुज के साथ उन्हें मनाने जरूर आएंगे। फिर वे उन्हें खरी-खोटी सुनाकर, अपने रौब और अहम को बनाए रखते हुए विवाह की रस्मों में शामिल होंगे। लेकिन यह उनकी एकतरफा इच्छा ही रह गई, और नफरत की दीवार और मजबूत हो गई।
दस साल पहले तक दोनों भाई अपने परिवारों सहित एक ही घर में रहते थे। उनके माता-पिता की छत्र-छाया में हंसता-खेलता संयुक्त परिवार था। एक-दूसरे का सहयोग करते हुए सब मिलकर उन्नति कर रहे थे।
रामदयाल के विवाह के समय मनोहर सिर्फ 15 साल के थे और इसलिए बड़े भाई-भाभी ने उन्हें पुत्रवत स्नेह दिया। मनोहर भी उन्हें भरपूर इज्जत देते थे। इसी तरह रामदयाल के दोनों बच्चे मंजरी और पवन, मनोहर के बच्चों अनुज और पावनी से काफी बड़े थे। सब एक दूसरे से स्नेह करते थे।
सबसे छोटी पावनी तो घर-भर की लाडली थी। वह दादी -नानी बनकर सब बड़ों को कुछ न कुछ समझाती रहती। उससे बातों और बहस में कोई न जीत पाता। रामदयाल तो अक्सर सबसे कहते, “देखना! पावनी बड़े होकर एक नामी वकील बनेगी। तब हम सब मिलकर वैष्णो मां के दरबार में माथा टेकने चलेंगे।”
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जब रामदयाल के बच्चे विवाह योग्य होने लगे तो तब तक उसके माता-पिता काफी वृद्ध हो गए। तो उन्होंने ‘अब तो अगली पीढ़ी का परिवार बढ़ने का समय आ गया है’, कहते हुए बंटवारे की सलाह दी। वे चाहते थे कि खुशनुमा माहौल में ही संपत्ति का बंटवारा हो जाए और उनके बाद भी दोनों भाईयों के बीच आजीवन प्रेम बना रहे।
रामदयाल बड़े थे। उन्होंने इस समय तक ज्यादा संपत्ति अर्जित की थी, मनोहर की पढ़ाई पर भी अपनी ओर से काफी खर्च किया था। लेकिन फिर भी उन्होंने मनोहर को समान हिस्सा दिया। वे स्वयं माता-पिता के साथ पुराने घर में ही रहते रहे, पर उन्होंने मनोहर को इसी मोहल्ले में नया आलीशान घर बनाकर दिया।
कहने को दो मकान हो गए थे। पर सब दिल से एक ही थे। किसी का भी जन्मदिन हो, कोई भी त्योहार या उत्सव हो, सब मिलकर आनन्द से मनाते थे। आस-पड़ोस और रिश्तेदारी में सभी इनके प्रेम प्यार और एकजुटता की दाद देते।
लेकिन अब न जाने किसकी नज़र लग गई! दोनों परिवारों में एक गहरी खाई बन चुकी थी। त्योहार, जन्मदिन आदि अलग-अलग मनाए जाने लगे थे। दोनों परिवारों को एक दूसरे से कुछ लेना-देना नहीं रह गया था। उनके बीच की नफरत और अहम की दीवार बढ़ती जा रही थी।
लेकिन बाकी सबके विपरीत पावनी और मंजरी फोन के जरिए संपर्क में रहती थीं। पावनी हॉस्टल में रहकर वकालत की पढ़ाई कर रही थी। उसे कभी भी कोई समस्या होती तो वह उसका समाधान अपनी मंजरी दीदी की सलाह से ही करती। आखिर बचपन से ही मंजरी दीदी उसकी आदर्श थीं। जब भी उसकी स्कूल की छुट्टियां हुआ करती थी तो वह मंजरी दीदी के पास उनकी ससुराल पहुंच जाया करती थी।
बेशक दोनों परिवारों में वर्षों से बातचीत बंद थी, पर जब पावनी का जन्मदिन आता तो रामदयाल के हाथ उसे शुभकामना देने के लिए स्वतः ही फोन की ओर बढ़ जाते, पर भाई के प्रति नफ़रत उन्हें घेर लेती और उनका अहम उनके हाथों को पीछे खींच लेता।
दूसरी ओर यही हाल मनोहर का था। हर छोटे-बड़े फंक्शन के अवसर पर उन्हें मंजरी की कमी खलती। आखिर उन्हीं की गोद में खेलकर ही तो मंजरी बड़ी हुई थी।
मंजरी और पावनी, दोनों समझदार बहनें अपने पिताओं की भावनाओं को समझती थीं। उनका उद्देश्य इस नफरत को खत्म करना था। इसके लिए दोनों ने मिलकर योजना भी बना रखी थी और वे सही मौके की प्रतीक्षा कर रही थीं।
दोनों बहनें प्रतिदिन ईश्वर से प्रार्थना करती थी। सच्चे मन से की गई उनकी दुआ सफल हुई। आज पावनी का एलएलबी का परिणाम घोषित हुआ। उसने डिस्टिंक्शन के साथ परीक्षा पास की, और यह समय था दोनों बहनों के लिए अपनी योजना को साकार करने का।
दोनों बहनें रामदयाल जी के पास पहुंची और मंजरी ने उन्हें उनका पसंदीदा रसगुल्ला खिलाते हुए कहा, “पापा, पावनी ने आपका सपना पूरा किया। उसके वकील बनने पर आपको बहुत बधाई हो।”
रामदयाल भावुक हो उठे, “सच! पावनी बेटा! शाबाश, मेरी बच्ची! तो अब मांग न अपने ताऊजी से, क्या मांगती है?”
पावनी मुस्कराते हुए बोली, “ताऊ जी, आपने कहा था कि जब मैं वकील बनूंगी, तो हम सभी साथ मिलकर वैष्णो मां के दरबार में माथा टेकने जाएंगे। यही मेरी इच्छा है।”
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“अरे! बचपन से तुझे मैं हमेशा जीतते देखता आया हूं। आज भी जीत गई तू। हम जरूर चलेंगे।” रामदयाल जी ने पावनी को गले लगा लिया।
इसके बाद दोनों बहनें मनोहर के घर पहुंची। वर्षों बाद दोनों बेटियों को एक साथ देखकर मनोहर भाव विभोर हो गए और अनायास ही उनके मुंह से निकला, “मंजरी, बेटा, आती रहा कर न!”
मंजरी बोली, “चाचा जी, यदि आप चाहते हैं कि मैं आती रहूं और पावनी वकालत की प्रैक्टिस शुरू कर दे, तो आइए, हम सब मिलकर वैष्णो मां से आशीर्वाद लेकर एक नई शुरुआत करें।”
चाचा जी अपनी प्यारी भतीजी की बात नकार नहीं पाए।
दोनों परिवार एक साथ बड़े वाहन में सवार होकर वैष्णो मां के दरबार के लिए निकल पड़े।
पवन, श्वेता, अनुज और गौरी के चेहरों पर अद्भुत खुशी थी, और चारों बार-बार मंजरी और पावनी का धन्यवाद कर रहे थे।
वैष्णो मां के दरबार में जाते हुए पूरा परिवार “जय माता दी” के नारे लगाता हुआ आगे बढ़ा। वहां रामदयाल जी और मनोहर जी ने एक-दूसरे को गले लगा लिया। फिर सब एक-दूसरे के गले मिले और दोनों परिवारों के बीच के सभी मतभेद समाप्त हो गए।
बेटियों की समझदारी ने नफरत की दीवार को गिरा दिया और परिवार में एक नया प्रेम का अध्याय शुरू हुआ।
-सीमा गुप्ता (मौलिक व स्वरचित)
साप्ताहिक विषय: #नफ़रत की दीवार