नफ़रत की दीवार – आरती झा आद्या  : Moral Stories in Hindi

आज पहली बार उसे अपने नाम के साथ सिंह लिखने की इच्छा नहीं हुई, आज पहली बार इसे मिटा देने की इच्छा हो रही थी।

पासपोर्ट के फॉर्म में जब उसने “Mother’s Name” के कॉलम में ‘मीरा सिंह’ लिखा, तो उसका हाथ काँप गया। सिया की पहचान हमेशा मीरा सिंह से जुड़ी रही थी — एक सशक्त, सिंगल मदर, जो अपनी बेटी सिया को सिंगापुर में पली-बढ़ी दुनिया की सबसे स्मार्ट और स्वतंत्र बेटियों में गिनती थी। लेकिन आज, यही नाम सिया के भीतर एक अजनबीपन भर रहा था।

उसने अपने जन्म प्रमाणपत्र पर एक बार फिर नज़र डाली — अस्पताल का नाम, तारीख, डॉक्टर की हस्ताक्षर…। आज जब उसने मीरा से अपने किसी पेपर के लिए पूछा तो मीरा ने ऑफिस से कहा कि उसके कबबर्ड में देख ले और उसी क्रम में सिया के हाथ में एडॉप्शन पेपर लग गया था और वह विस्फारित सी कागज को तब तक उलटती पलटती रही, जब तक कि बिल्डिंग के नीचे से उसके दोस्तों का कॉल नहीं आ गया और पासपोर्ट ऑफिस में फॉर्म भरते हुए उसकी साँसें उखड़ने लगीं।

***

वो मीरा के सामने पहुँची — आँखों में ग़ुस्सा, काँपते हाथों में कागज़ लिए हुए।

“क्या आप मेरी माँ हैं?”

मीरा कुछ पल उसे देखती रही। फिर धीमे से बोली — “मैं तुम्हें गोद देने वाली माँ हूँ… पर जन्म देने वाली नहीं और मातृत्व कभी भी बायोलॉजिकल नहीं होता।”

मीरा ऑफिस से आते ही कबबर्ड की हालत देख समझ चुकी थी कि सिया सत्य से परिचित हो चुकी है।

सिया को जैसे किसी ने ज़मीन से उखाड़ दिया हो। ग़ुस्से में उसका स्वर काँपने लगा।

“तो ये बीस साल का रिश्ता क्या था? झूठ?” और अगर बायोलॉजिकल नहीं होता तो जन्म देकर डस्टबिन में डाल दो, यही ना।” सिया चीख पड़ी।

“नहीं,” मीरा की आवाज़ में ठंडक थी, “एक सच को छिपाने की मजबूरी थी। तुम्हारी ज़िंदगी के लिए…”

“किसने माँगा था ये बलिदान? मुझसे तो कभी नहीं पूछा आपने, कभी बताया तक नहीं!” सिया चीख़ पड़ी।

मीरा ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसने बस एक चिट्ठी सिया की ओर बढ़ा दी — एक धुँधलाया हुआ पत्र।

“मेरी बच्ची,

अगर कभी जान सको कि मैं कौन हूँ, तो नफ़रत मत करना। मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकी, इसलिए तुम्हें बचा लिया। मीरा मेरी सबसे करीबी थी। मैंने उसे तुम्हारी ज़िंदगी सौंप दी — क्योंकि वहाँ तुम मर जाती। मैं जीती रहूँगी, पर हर दिन एक मौत मरती रहूँगी।”

नीचे साइन था — शालिनी।

**

सिया अब भारत आ चुकी थी। दिल्ली के एक वृद्धाश्रम में मीरा के बताए पते पर पहुँची। वहाँ एक सूखी, झुकी हुई वृद्धा बैठी थी — आँखें बंद थीं, पर चेहरा वैसा ही जैसे आईने में अपना अक्स देख लिया हो।

“शालिनी?” सिया ने सख़्ती से पूछा।

वृद्धा ने आँखें खोलीं — कुछ पल देखा — फिर कांपती आवाज़ में बोली, “तू… मेरी सिया?”

“आपने मुझे छोड़ दिया। जन्म दिया और छोड़ दिया! और मीरा? उन्होंने भी झूठ बोला। आप लोगों ने मुझे क्यों नहीं बताया? क्या मैं इतना हक़दार भी नहीं थी सच की?”

शालिनी की आँखों में आँसू उतर आए। लेकिन उसने कोई बहाना नहीं दिया। बस बोली —

“तेरे पैदा होते ही नर्स ने मुझे होश में लाकर बस इतना कहा — तीसरी बेटी हुई है। मैंने सिर्फ़ मीरा को देखा, और उसका हाथ थाम कर कहा — ‘इसे बचा ले, प्लीज़।’”

सिया हँस पड़ी — कड़वा हँसी।

“और आपने फिर पलटकर देखा तक नहीं? कैसा माँ-पन था आपका!”

“आपने मुझे छोड़ दिया था,” सिया का स्वर कठोर था, पर उसकी आँखें भीग चुकी थीं।

“हाँ,” शालिनी बोली, “पर मैं रोज़ तुम्हें ओढ़ती रही। तुम्हारी उम्र जितनी रातें मैंने खुद से माफ़ी माँगते बिताई हैं।”

“माँ होने के लिए कभी अधिकार नहीं माँगा मैंने…” शालिनी फुसफुसाई, “बस एक बार तुझे देखना चाहा था… तेरे हाथ बहुत छोटे थे, और आँखें… मेरी जैसी थीं। लेकिन मुझे पता था, मैं बचा नहीं सकती तुझे। तेरी दो बहनों की राख आज भी मेरे सपनों में चीखती है।”

अगर मैं माँ बनने की कोशिश करती तो तू आज इस धरती पर नहीं होती। मुझे तुम्हें मारने को कहा गया था। तीसरी बेटी को पैदा करना ही अभिशाप माना गया था मेरे घर में और मैं जानती थी कि इस बार अगर तू बच भी जाती, तो तुझे भी जला दिया जाता, मार दिया जाता… जैसे पहली दो को मारा गया।”

“मुझे देखना भी कभी नहीं चाहा?” वह बोली।

“हर साल जन्मदिन पर चुपके से मन्दिर जाकर तेरे लिए प्रार्थना करती थी। बन्द आँखों से तुझे हर बार देखती रही और हर बार दुआ की कि तू कभी मुझे ना पहचाने… क्योंकि तब तुझे वो दर्द भी पहचानना पड़ता।”

पर मैंने तो सुना है अब आपके दो बेटे भी हो गए हैं, फिर इस कोठरी में आप कैसे?” सिया व्यंग्य से हँस पड़ी।

शालिनी ने गहरी साँस ली, फिर कहा, “मैं माँ बनने के लायक ही नहीं थी शायद, मैं उनकी भी माँ नहीं बन सकी। पर तुम्हारे लिए रोती थी हर रोज़। तेरी हँसी कभी भूली नहीं… मेरी ममता तुझसे दूर नहीं गई, बस तेरी सुरक्षा के लिए मौन हो गई थी। वारिस के लिए मारी गई मेरी दोनों बेटियों की रूहें मुझे हर रात को जलाती हैं और मैं दोनों बेटों को इसका कसूरवार ठहराती हुई कभी उनकी माँ नहीं बन सकी, खानापूर्ति ही करती रह गई और मेरी भावशून्यता ने उन्हें भीे मेरे प्रति भावशून्य कर दिया।

शालिनी की बातों से सिया का गुस्सा जैसे पिघलता गया। मैंने आपको कितना गलत समझा…” सिया की हिचकियाँ बंध गईं।

“नहीं, बेटा। तुम बिल्कुल सही थी। मैंने तुम्हें छोड़ दिया था। माँ बनने के लिए पहले समाज से लड़ने की हिम्मत चाहिए थी, जो मुझमें नहीं थी। लेकिन मैंने तुम्हारी दोनों बहनों के साथ-साथ तुम्हें भी खो दिया। मैंने एक साथ ही अपने पाँचों बच्चों को खो दिया। 

सिया ने एक क्षण उसे देखा। कुछ क्षण वैसे ही जैसे कोई नदी थम जाए और माँ-बेटी के बीच नफ़रत की काई को बढ़ने से रोक दे।

उसने शालिनी की हथेलियाँ थामीं, “आप मेरे साथ चलेंगी।”

“नहीं, मैं कहीं नहीं जाऊँगी। घृणा है मुझे खुद से, कायर हूँ मैं और अब तु भी जा यहाँ से।” शालिनी सिया का हाथ झटकती हुई कहती है।

“आपने जो किया, परिस्थितिवश किया। आप अपने चारों ओर नफ़रत की दीवार खड़ी ना करें।” सिया नफरत से सनी हुई आई थी और शालिनी की स्थिति देख उस नफ़रत को परे धकेलती हुई कहती है।

“नहीं, अब ये नफ़रत की दीवार मेरे साथ ही ख़त्म होगी। जा तु यहाँ से।” शालिनी सिया को धकियाती हुई कमरे से निकालती हुई कहती है।

सिया के लाख जतन और वृद्धाश्रम के लोगों द्वारा समझाने के बाद भी शालिनी उसके साथ जाने के लिए तैयार नहीं हुई तब सिया फिर से आने का वादा कर लौट गई।

***

मीरा बालकनी में बैठी थी — वही पुरानी कॉफ़ी मग, वही अधूरी किताब लिए सामने पार्क में खेलते बच्चे और उनकी माओं को देखती हुई।

सिया आकर चुपचाप उसके घुटनों के पास बैठ गई।

“आपको ग़ुस्सा नहीं आया… जब मैंने आपको झूठी कहा? डस्टबिन कहा।”

मीरा मुस्कुरा दी।

“माँ होने के लिए ग़ुस्सा करना भी भूलना पड़ा मुझे…”

सिया ने उसका हाथ थामा।

“मैं यहाँ से नफ़रत लेकर नफ़रत करने गई थी, पर लौटते हुए बस एक सवाल साथ ले आई हूँ — क्या मोहब्बत वाक़ई इतनी चुपचाप होती है? जो ज़िंदगी बचाने के लिए नाम, सच, सब छोड़ दे? जैसे आपने किया। आपने सच कहा था, मातृत्व बायोलॉजिकल नहीं होता है।”

मीरा की आँखें भीग गईं।

“ज़रूरी नहीं हर दीवार नफ़रत के वशीभूत होकर खड़ी की जाए — कुछ दीवारें नफ़रत से बचाने के लिए भी खड़ी होती है, है ना!” 

**

एक साल बाद…

सिया ने अपनी पहली किताब प्रकाशित की — “नफ़रत की दीवार”

उसकी प्रस्तावना में सिर्फ़ एक वाक्य था:

“ये कहानी दो माँओं के नाम —

एक, जिसने मुझे जन्म दिया और छोड़ दिया… ताकि मैं बच सकूँ।

और एक, जिसने मुझे गले लगाया… ताकि मैं जी सकूँ।”

आरती झा आद्या 

दिल्ली

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