जब वो नाचती तब लगता ही नहीं की उसके शरीर में हड्डी का एक टुकड़ा भी है। वो जहाँ भी जाती सारे पुरुष दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते। पुरुष तो उसके रुप पर मोहित हो ही जाते स्त्री भी उसके रुप से जलने लगती।
लंबे घुंघराले कमर तक लटकते बाल, सुराहीदार गर्दन, मुट्ठी में पकड़ आ जाए ऐसी कमर, कमर से उपर किसी पेपर जैसा चिपटा पेट, नाभी से लेकर पैर तक शरीर की बनावट ऐसी… की लगता किसी चित्रकार ने अप्सरा की तस्वीर बनायी हो।
जब वो कमर को झटका देकर नाचती तो एक तरफ़ घुंघराले बाल उछलते तो दुसरी तरफ़ वो नयनों को भी अदाओं से भर लेती।
जवान हो रहे लड़के अलग बातें करते तो बुजुर्ग हो गए पुरुष अलग, अगर देखा जाए तो रुबीना हर उम्र के पुरुषों के लिए मनोरंजन का बहुत बड़ा ज़रिया बन चुकी थी।
कमाई तो सबकी हो ही रही थी लेकिन पुरे मेले में सब करतब वालों को इस बात की टीस थी की उनसे ज़्यादा रुबीना के छावनी में भीड़ लगी रहती। किसी-किसी शो में तो टिकट भी कम पड़ जाती है, तब बहुत मुश्किल हो जाती टिकट वाले मैनेजर को। सब से हाथ जोड़ कर विनती करता है अगले शो में जाने के लिए… हर शो पैंतालीस मिनट का बना रखा है उसने।
वैसे मेले में कुछ करतब वाले ऐसे भी थे जो मानते थे की अगर रुबीना नहीं होती तो इस मेले में इतनी भीड़ नहीं होती।
और अगर भीड़ नही होती तो हमारा भी करतब कोई देखने नहीं आता। रुबीना का शो देखने के बाद भी लोग दुसरे करतब देखते, मेले में खाते-पीते, बच्चों के लिए खिलौने और ग़ुब्बारे ख़रीदते।
याद है न वो कहानी “किसान ज़्यादा अंडे के लालच में रोज़ एक सोने का अंडा देनेवाली मुर्गी को काट देता है”
हाँ, कुछ ऐसा ही जाल बिछाया जा रहा था रुबीना के लिए भी। कुछ करतब वाले सोच रहे थे की अगर कोई हादसा हो जाए तो रुबीना का नाच-गाना बंद हो जाएगा और अगली बार मेले में सारी भीड़ इधर आ ज़ाया करेगी।
आख़िरी शो करने के बाद रुबीना पुरी तरह से थक चूकी थी, थकती भी कैसे नहीं? दोपहर दो बजे से रात के दस बजे तक शो करती है। हर शो के बाद मुश्किल से पन्द्रह मिनट का समय मिलता है सुस्ताने के लिए। इसी बीच पानी पीना , चाय पीना या फिर प्रसाधन (टॉयलेट) के लिए जाना और फिर से मुस्कुराते हुए अगले शो के लिए तैयार।
थकान से चुर हो गई थी, स्टेज के दुसरी तरफ़ वाली तंबु में सब आराम करते थे जो की स्टेज से तक़रीबन दो सौ मीटर दूर थी। जैसे-तैसे लंगड़ाते हुए जा ही रही थी की ऐसा लगा मानो दस-बारह लोगों के झुंड ने घेर लिया, उसमें से एक रुमाल में लगा कर कुछ सुँघाने की कोशिश करने लगा।
रुबीना अपने कमर में खोंसी कटार निकाल कर झपट पड़ी, आव देखा न ताव और कटार सिधा छाती में दे मारी।
उसका ऐसा हाल देख कर बाक़ी सब भी भाग गए।
भीड़ जुटी तो सब ने पहचान लिया की ये लोग तो दामोदर के दस्ते के लोग थे और दामोदर ज़मीन में गीरा तड़प रहा है।
दामोदर की भी अलग ही कहानी है, सरपंच के लिए काम करता था, सरपंच के चुनाव हारने के बाद अलग हो गया और छिनतई-मार-काट करने लगा।
भीड़ में से कोई रुबीना को दोषी ठहरा रहा था, तो कोई उसकी अदाओं को “जब देखो मर्दों को उकसाते रहती है”, “इतना गंध मचा रखा है की ऐसा तो होना ही था”, “कुछ मान मर्यादा का ख़्याल नहीं है”
एक तो थकान उपर से लड़ने में सारी ताक़त ख़त्म, फिर भी रुबीना उन सभी से उलझ गई:
“तुमलोग तो मान मर्यादा की बात ही न करो”, “देर रात तक मेरे तंबु के पास मंडराते रहते हो”, “क्या समझते हो? मैं इज़्ज़त बेचती हूँ?”, “अरे बेगैरत इंसानों, मेरी जगह तुम होते तो कब के बीक गए होते”, “मैं जब पैदा हुई तो झाड़ी में फेंक दी गई”, “मेले में जब शब्बो मासी नाच कर थकी और प्रसाधन के लिए खेत की झाड़ियों में गई तो मुझे उठा कर लाई”, “शब्बो मासी के पास यही था मुझे देने के लिए इसलिए मैं भी नचनिया बन गई”, “बोल है दम? शादी कर के ले जाएगा मुझे? मैं सब छोड़ दूँगी”
ख़ैर, तू क्या अपनाएगा मुझे, मेरी तरक़्क़ी तो देखी नहीं जाती तुम लोग से इसलिए इस भाड़े के गुंडे को ले लाए मुझे ख़त्म करने।
जा तू भी मेहनत कर तू भी तरक़्क़ी करेगा, मैं अपनी कला दिखा कर कमाती हूँ न की कला के आड़ में इज़्ज़त बेच कर।
तत्कालीन सरपंच भी आ गए, सारा माजरा जान कर पुलिसवालों से कहा की रुबीना ने जो किया वो आत्मरक्षा में किया इस लिए हमारा अनुरोध है की इसका बयान ले कर छोड़ दिया जाए और इस भाड़े के टुटपुँजिए गुंडों पर कार्रवाई की जाए।
साथ में उन लोगों पर भी कार्रवाई की जाए जिन्होंने अपनी जलन और कुंठा मिटाने के लिए इन गुंडों को बुलाया था।
मैं सरपंच होने के नाते आश्वासन देता हूँ की हमारे गाँव से सटे इस मेले के जगह को और भी सुरक्षित किया जाएगा। पुलिस की एक और टुकड़ी बुला कर सुरक्षा को पुख़्ता किया जाएगा।
इस मेले को इसी तरह एक सप्ताह और चलाया जाएगा… ताकि रुबीना को इस समाज पर भरोसा हो सके… मैं रुबीना से भी कहना चाहता हूँ की तुम्हारे माता-पिता कौन थे जानने से ज़्यादा जरुरी इस बात को मानना है की तुमने ज़िंदगी को ग़लत रास्ते पर न भटका कर अपने कला के माध्यम से अच्छे राह चुने।
हम लोग समस्त गाँव के तरफ़ से तुम्हारी कला और हिम्मत का सम्मान करते हैं। मेले के आख़री दिन तुम्हें तुम्हारे साहस और निष्पक्ष कला प्रदर्शन के लिए सम्मानित किया जाएगा। तब तक तुम निडरता से अपनी कला का प्रदर्शन करो और इस मेले के ज़रिए लोगों का मनोरंजन करो।
मुकेश कुमार (अनजान लेखक)