2 साल पहले कोरोना में अमरकांत जी का निधन हो गया था। उसके बाद से उनकी पत्नी की लगभग अकेली ही थी। उनके तीन बेटे थे ,तीनों ही शादीशुदा ।परिवार लेकर अलग-अलग शहर में नौकरी कर रहे थे। जब तक अमरकांत जी जीवित थे तब तक रुक्मणी जी को कोई फर्क नहीं पड़ता था लेकिन उनकी मृत्यु के बाद वह पूरी तरह से अकेली हो गई थीं ।
उनका मन नहीं लगता था ।अपने बच्चों के साथ रहने का मन करता था लेकिन फिर वही इगो आड़े आ जाता जो हर घर में हो रहा था वह अपने बेटे बहू के साथ शहर में एडजस्ट नहीं कर पाती थी।
शहर में दिक्कत भी थी। यह भी नहीं कहा जा सकता की सारी गलतियां बेटे बहू की ही होती है।
छोटे परिवार के साथ घर के भी साइज छोटी हो जाती हैं जिसमें वह सुविधा और खुली हवा नहीं मिल पाती थी।
थोड़े दिन तक रुक्मणी जी वहां रहती और फिर वापस अपने घर लौट आया करती थीं
इधर 2 सालों से उनके तीनों बेटे सुशांत विक्रांत और अभयकांत उन पर जोर दे रहे थे कि इन इस घर को बेचकर तीनों बंटवारा कर लेते हैं और अपने लिए बड़ा घर ले लेते हैं।
यह सुनकर रुक्मिणी जी के पैरों के तले से जमीन ही खिसक गई।
“ यह क्या कह रहे हो बेटा! यह तुम्हारा पुश्तैनी घर है। तुम्हारे पापा और मेरे खून पसीने से खड़ा किया हुआ घर।इसे तुम बेचने का सोच भी कैसे सकते हो और फिर अगर तुमने इसे बेच दिया तो मैं कहां जाऊंगी?”
“ मां आप हमारे साथ रहिएगा।कब तक इस तरह से अकेले,,,आपकी तबीयत भी ठीक नहीं रहती! और हम कैसे आपको देखने आ सकते हैं?”
“नहीं बेटा मैं ठीक हूं और भगवान न करे कि मैं तुम लोगों को कोई भी तकलीफ़ दूं।
मेरी जिंदगी बागवान नहीं है और नहीं मैं उसने काम करने वाली कोई एक्ट्रेस !
यह मेरा घर है ।वैसे भी तुम्हारे पापा तो चल दिए।
अब मेरी कितनी सांसें बची हुई है, मैं भी तो जब तक हूं तभी तक ना। मेरे बाद तो यह सारा घर तुम ही लोगों का होगा। अभी तो मुझे इसी घर में रहने दो। कम से कम शांति से नींद तो आ जाती है। “
“हमारे यहां क्या प्रॉब्लम है मां आपको? अगर आप के कारण हमारे पास एक अच्छा बड़ा घर हो जाए तो क्या दिक्कत है?”
“नहीं बेटा तुम बात समझ नहीं रहे हो दिक्कत वह नहीं है। तुम तीन हो तुम्हारे पास अपने घर है। तुम्हारे पापा ने तुम तीनों को पूंजी भी दिया था घर खरीदने के लिए। उसके अलावा यह घर तुम्हारा अपना है। तुम तीनों यहां आकर एक हो सकते हो। लेकिन अगर इस घर को बेच दोगे ना तो फिर तुम तीन अलग-अलग ही रहोगे।समझ रहे हो ना मेरी बात! एकता में ही बल है। अगर अलग-अलग रहोगे तो कभी भी एक नहीं हो पाओगे।”
रुक्मणी जी की दलील उन तीनों को समझ में नहीं आया। हर हाल में उसे घर को अपने हिस्से में लेना चाहते थे। उनका कहना था की मां अब उम्रदार हो गई है उन्हें परिवार की जरूरत है। और उन तीनों को घर की।
उन्होंने हर तरह से समझाया लेकिन रुकमणी जी अपनी जिद पर डटी हुई थीं ।
छह महीने बीते। उनके छोटे बेटे अभय ने उन्हें अपने पास बुला लिया था । दो महीने बाद रुक्मणी जी खुशी-खुशी अपने घर रामपुर लौटने की इच्छा जाताई तो अभय ने भी कुछ नहीं कहा बल्कि खुशी से ही घर पहुंचा दिया ।
उसके इस कदम से रुक्मणी जी थोड़ी ताजुब में भी पड़ गई। इस बार तीनों में से किसी ने भी उन्हें घर बेचने के लिए कंविंस नहीं किया था।
अब एक और सच्चाई सामने आ गई। उनके हाथ में कोर्ट का नोटिस आ गया था– इस मकान को बेचने के लिए!
वह कोर्ट के नोटिस को लिए अपने हाथों में बैठी सन्न सी पड़ी हुई थीं ।
तभी वकील आकर उनसे बोला” माता जी आपके तीनों बेटे इस घर में बेचना चाहते हैं।”
“ कैसी बातें करें हैं आप वकील साहब! घर तो मेरे नाम से है !”
“मगर साइन तो आप ही ने किया है ना मांजी। अब कुछ भी नहीं हो सकता।”
अब तो रुक्मिणी जी कहीं की नहीं रह गई थी। उनके मुंह से कुछ भी नहीं निकला। अभय ने उनसे इतनी बुरी तरह से धोखा दिया था। बीमार मां की सेवा करने के बहाने उसने साइन ले लिया था और घर बेचने के लिए तैयार हो गए थे। और तो और बाकी दोनों भाई भी उसका साथ दे रहे थे।
“जब तक मैं जीवित हूं तब तक इस घर में कोई भी नहीं आ सकता?” रुक्मणी जी रो पड़ीं ।
“नहीं मांजी अब इस घर पर आपका कोई अधिकार नहीं है ।ग्राहक ने घर खरीद लिया है और आपके तीनों बेटों के लिए 50-50 लाख रुपया भी बंटवारा कर लिया है।”
रुक्मणी जी अपनी आंखें फाड़कर चारों ओर देखती रही फिर वकील ने कहा
“आपको क्या करनी है आप बेटों के साथ चलिएगा मांजी। इस उम्र में अकेले कौन रहता है भला?”
रुक्मिणी जी के पास कहने को कुछ भी नहीं था जो था वह भी चला गया था।
घर बिक चुका था।तीनों बेटे बहुत खुश थे । उनके अकाउंट में रुपए आ गए थे।
“सबसे पहले कौन रखेगा मां को?” बड़े बेटे सुशांत ने तीनों से पूछा।
मां जहां जाना चाहती है ,वहां जा सकती है।”
“ नहीं बेटा मैं कहीं नहीं जाना चाहती। मुझे आशा किरण में छोड़ दो मैं वही रह लूंगी ।”खिन्न होकर उन्होंने कहा।
“कैसी बातें कर रही है मां आप?”तीनों बेटों के आंखों में चमक आ गई।
उन तीनों की खुशी रुक्मणी जी से अछूती नहीं थी।
“अरे सच्ची तो कह रही हूं अब जिंदगी का क्या भरोसा ?जो सपने थे वह भी बिक गए। जिस घर में तुम्हारे पापा की छाया थी वह भी चला गया। अब मैं कहां जाऊंगी। भले ही मेरा घर नहीं रहा अब, पर दूर से देख कर मन तो भर लूंगी ना।
इसलिए मुझे आशा किरण में पहुंचा दूंगी।”
“ ठीक है मां,हम बीच-बीच में आपसे मिलने आते रहेंगे और आपको नियम से पैसे भेजते रहेंगे।” तीनों बेटों ने अपने पल्लू झाड़ते हुए कहा।
जब घर के सारे मामले रफा दफा हो गया तब तीनों ने अपनी मां को उठाकर वृद्धाश्रम पहुंचा दिया। जल्द आने का वादा कर वहां उनका अकाउंट भी खुलवा दिया।
“ हम पैसे की कमी नहीं होने देंगे अपना ख्याल रखना मां ।यहां आपको खुली हवा भी मिलेगी जो आपको अपने घर पर मिलती थी।”
“हां बेटा मुझे तो अपना घर ही मिल गया।” रुक्मणी जी रो पड़ीं।
तीनों बेटे वापस चले गए। वह गुलमोहर के पेड़ के नीचे बैठ उन्हें जाते हुए देखती रही।
“ देखो ना, मेरी ममता का क्या सिला मिला है?क्या इसी दिन के लिए मां-बाप बच्चे पैदा करते हैं और उन्हें पालते पोसते हैं ताकि उन्हें एक दिन बोझ समझ कर वृद्धाश्रम की चौखट पर फेंक दिया जाए।”
पीछे से कंधे थपथपाते हुए आशा किरण की मैनेजर वहां आईं और उनसे कहा “माता जी,सारा संसार ही स्वार्थी है तो हम और आप क्या कर सकते हैं? बस आप अपनी बस हिम्मत बचाकर रखिए और हम कुछ भी नहीं कर सकते। यहां सब लोग ऐसे ही हैं!”
रुक्मणी जी अब भी रो रही थीं।
“रुक्मणी जी,आप अंदर चलिए आपका कमरा तैयार है ।”
रुक्मणी जी धीरे-धीरे कदमों से अंदर की ओर बढ़ चली। एक अनजान से कमरे की तरफ ,जहां वह एक रात भी काट पाएंगी या नहीं पता नहीं, इस रात की सुबह होगी भी या नहीं पता नहीं! वह थके-हारे कदमों से आगे बढ़ने लगी।
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सीमा प्रियदर्शिनी सहाय
# स्वार्थी संसार
पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित रचना बेटियां के साप्ताहिक विषय स्वार्थी संसार के लिए।