मम्मी, दादी आ गई है, ये सुनते ही मुक्ता के सिर की त्योरियां चढ़ गई, और वो रसोई से बाहर आ गई, ड्राइंग रूम में लगी घड़ी की ओर देखते हुए बोली, ‘आप तो शाम को आने वाली थी, अभी तो सुबह के दस ही बजे हैं, अभी तो हम नाश्ता ही कर रहे हैं, अच्छा!! भाभी जी ने सुबह का नाश्ता और खाना भी हमारे माथे मढ़ दिया।’
मुक्ता के मुंह से ऐसी बातें सुनकर कामिनी जी अपमान के घूंट पीकर रह गई, आज शनिवार था और बड़े बेटे बहू दो दिन के लिए घूमने निकल गये, और उन्हें छोटे बेटे के घर के बाहर छोड़कर चले गए।
कामिनी जी ने बताया तो मुक्ता और भी बिखर गई, ‘ ये लो खुद तो घूमने चले गए और मुसीबत हमारे सिर छोड़ गये, एक फोन भी ना किया, हम भी घूमने जाने वाले थे, ये कहकर उसने अपने पति निमिष को आंखों से इशारा किया ताकि वो भी उसके झूठ को सच कह सकें।’
ये सुनकर कामिनी जी के हाथ-पैर सुन्न हो गये, बुढ़ापे में उन्हें कैसे दिन देखने पड़ रहे हैं, बड़ा बेटा रखने को तैयार नहीं है, कुछ महीने रखता भी है तो अहसान जताता रहता है, और छोटे बेटे की पत्नी इतनी मुंहफट है कि उनका कलेजा ही छलनी कर देती है, वो चुपचाप खड़ी थी, चाय का समय हो गया था और भूख भी लग रही थी, बच्चे और बेटा गरमागरम नाश्ता कर रहे थे, लेकिन उनके लिए कामिनी जी वहां है नहीं के बराबर थी, इतना तो कोई अनजान भी पूछ लेता है, जबकि ये तो पेट का जाया बेटा था।
उनको देखकर मुक्ता फिर से चिल्लाई, ‘लो इनकी नजर तो खाने से हट ही नहीं रही है, अंदर जाकर अपना सामान रखिए, बच्चों को चैन से खाने दो, आपको भी नाश्ता मिल जायेगा, मै आवाज दे दूंगी, मुक्ता ने उन्हें कमरे में भेज दिया, सजल आंखों के साथ कामिनी जी थैला उठाकर अंदर चली गई।
आधा घंटा हो गया पर बहू ने आवाज नहीं दी, मजबूर होकर वो कमरे से बाहर आई तो देखा, सब मिलकर टीवी देख रहे हैं, वो झिझकते हुए बोली, बहू चाय नाश्ता चाहिए।
अंदर कैसरोल में पराठा रखा है, और चाय बनाकर पी लीजिए, मेरे और इनके लिए भी बना देना, सिंक में बर्तन रखें है, वो भी साफ कर देना, रसोई भी बिखर गई है, उसे भी जमा देना, मुक्ता टीवी देखते हुए बोली।
कामिनी जी रसोई में गई कैसरोल में छोटा सा एक ही परांठा रखा था, वो उन्होंने खा लिया, एक और परांठे का मन था, पर वो मन मारकर रह गई, चाय चढ़ाकर रसोई व्यवस्थित करने में लग गई, बर्तनों से भरा सिंक
भरा था, उन्हें भी चाय पीकर साफ कर दिया।
मन ही मन ईश्वर को कहती रहती थी, हे! ईश्वर ऐसी अपमान जनक जिंदगी से तो मौत भली थी, मुझे भी अपने पति के साथ ही बुला लेते। हंसती- मुस्कुराती
जिंदगी थी और अब इतनी कड़वाहट है कि इसे सहा नहीं जाता है, इतना अपमान सहकर जीया नहीं जाता है।
अपने पति को याद करते हुए वो सिसक रही थी, ‘आप मुझे छोड़कर क्यों चले गए? मै इस तरह से कब तक जीऊंगी? आप थे तो हरा-भरा घर था, हमारा दो बच्चों का हंसता-खेलता हुआ परिवार था, जीवन में संतोष था, आप जितना कमाकर लाते थे, मै घर चलाती थी, दोनों बेटे मनीष और निमिष भी अच्छे पढ़-लिखकर नौकरी करने लगे थे, दोनों का विवाह भी अच्छे घरो में हुआ था, बहूएं भी अच्छी आई थी, पहले कितने आदर से बात किया करती थी, और अब तो नौकरानी से भी बुरी स्थिति कर दी है ‘।
‘आप क्या चले गए, जीवन से रंग, खुशी, आदर सम्मान, प्यार सब कुछ चला गया, इतना कड़वा सुनने की कभी आदत नहीं थी, पर अब रोज सुनती हूं,
इधर मुक्ता और उधर मनीष की पत्नी नेहा भी कड़वी और दिल दुखाने वाली बातें किया करती है, दोनों अपने परिवार में खुश है, बस एक मेरी वजह से दोनों ही परिवारों में तकलीफ होती है, क्या मां बच्चों के परिवार का हिस्सा नहीं होती है? और वो रोये जा रही थी, थोड़ी देर बाद खुद ही शांत हो गई, मन हल्का हो गया था।
मनीष और निमिष दोनों के अपने फ्लैट थे, दोनों ने अपने घर बैंक से कर्ज लेकर लिये थे, जिसकी महीने की वो मोटी ईएमआई भरा करते थे। उनके महीने की कमाई से उनकी पत्नी और बच्चों के खर्चे तो चल रहे थे, पर एक मां का खर्चा दोनों को अखरता था, दोनों ने एक-एक महीना बांध रखा था, कामिनी जी एक महीने बड़े बेटे के पास रहा करती थी और एक महीने छोटे बेटे के पास रहा करती थी।’
उनके पति की अपनी एक दुकान थी, जो उनके जाने के बाद बेटो ने किराये पर दे दी, और उसका दोनों आधा-आधा हिस्सा रख लेते थे।
कामिनी जी के पति को गये हुए अभी छह महीने ही हुए थे, उनका अपना घर भी किराये पर चढ़ा दिया था। वो तो अपने घर में ही रहना चाहती थी, लेकिन रिश्तेदारों ने समझा दिया था कि बुढ़ापे में अपने बच्चों के साथ ही रहना चाहिए, बच्चे ही सहारा होते हैं।
आज के अपमान के बाद वो रात भर सो नहीं पाई, बड़ी ही बेचैनी से उन्होंने रात गुजारी, और सुबह जल्दी उठकर अपना सामान बांधा और किसी को भी बिना बताए वो अपने छोटे शहर में स्थित घर में चली गई, वहां जाकर पडौसियो के घर में शरण ली, वहां अपनी सहेली को अपनी हालत के बारे में बताया और उससे मदद मांगी।
सहेली की बेटी वकील थी, उसने मदद करने का वादा किया, दोनों बेटे उन्हें ढूंढते हुए शाम तक आये, और घर ले जाने की जिद करने लगे, पर उन्होंने साथ जाने से मना कर दिया, ‘तुम सबके साथ अपमान से भरी जिंदगी जीने से अच्छा है, मै यहां अकेले रह लूंगी, तुम दोनों को मेरा खर्चा उठाने की भी जरूरत नहीं है, आज के बाद दुकान का किराया मै लूंगी और घर का भी, मेरा जीवन अच्छे से गुजर जायेगा, मुझे तो पता ही नहीं था कि घर और दुकान का इतना मोटा किराया आता है, वैसे भी तुम दोनों के पापा के जाने के बाद इस पैसे पर मेरा हक है।’
तभी मनीष चिल्लाया, ‘मां ये पागलपन की बातें छोड़, मै और निमिष तो ये घर और दुकान बेचने की सोच रहे थे, काफी अच्छा पैसा मिल जायेगा, फिर तेरा कितना ही खर्चा है अकेले इतने सारे पैसों का क्या करेंगी?’
निमिष भी बोला, हां मां, हमारे साथ चलो, आप तो हमारे घर में कहीं भी रह लोगे, बेकार ही यहां इतने बड़े घर में रहोगे और किराया भी हाथ से जायेगा।
कामिनी जी भी गुस्से में बिफर पड़ी, ‘ मुझे अपने बेटो के साथ नहीं रहना है, अब और अपमान की जिंदगी बर्दाश्त नहीं होती है, मां को चाहें दो रोटी कम दे देते, पर जितना अपमान तुम दोनों के घरों में हुआ है, उसे सहने के बाद, मै तुम्हारे घर में पांव भी नहीं रखना चाहती हूं, पति के जाने के बाद पत्नी कहीं की नहीं रहती है, उसके अपने बच्चे ही उसकी उपेक्षा करते हैं, और बहूएं अपमान करती है।’
‘तुम जाकर अपना परिवार संभालों, मै अपने आपको संभाल लूंगी, बुढ़ापे का सहारा ना बेटा-बेटी होते है, ना ही बहू होती है, बुढ़ापे का सहारा तो बस पैसा होता है, मेरे पास पैसा है, दो नौकर रख लूंगी,मेरा बुढ़ापा अच्छे से कट जायेगा, मुझे अपमान की जिंदगी अब और मंजूर नहीं है, दोनों बेटे सिर झुकाकर चले गए।
दुकान का किराया उन्हें मिलने लगा, और घर का एक कमरा उन्होंने रख लिया, बाकी का किराये पर चढ़ा दिया, कामिनी जी अब सम्मान के साथ अपने ही घर में रहने लगी।
धन्यवाद
लेखिका
अर्चना खंडेलवाल
मौलिक अप्रकाशित रचना