राधिका ने सात साल की अपनी बेटी रिया, और आठ साल की अपनी भतीजी जिया से अनेक सवाल के बाद, जब ये सवाल किया कि “तुम्हें सास कैसी चाहिए?” दोनों ने सवाल छूटते ही कहा, “मेरी नन्ना (नानी)जैसी, मेरी दद्दा (दादी) जैसी।” जिज्ञासावश…राधिका ने कहा,…”क्यों? तुम्हें अपनी नानी के जैसी ही, या तुम्हें अपनी दादी के जैसी ही सास क्यों चाहिए?” दोनों बच्चियां, पहले मैं बोलूंगी, पहले मैं बोलूंगी, लड़ने लगी। तभी राधिका ने कहा, जिया बड़ी है पहले वो बोलेगी।
जिया ने कहना शुरू किया।….”दद्दा ने आजतक मम्मा और चाची को गाली नहीं दिया है, मारा नहीं है। षड्यंत्र नही करती है, परिवार के विरुद्ध, जैसा कि टीवी सीरियल में दिखाता है। और किचन में भी मम्मा और चाची की हेल्प कर देती है। सब्जी काटती है, हमें खाना खिलाती है, अच्छा, अच्छा डिश बनाती है, और मम्मा और डैडी से मार खाने से भी बचाती है।
और सभी का अच्छे से ध्यान रखती है। मेरी सास ऐसी होगी, तो मैं तो खूब खुश हो जाऊंगी।” और सास का अच्छे से ध्यान भी रखूंगी। ठीक है रिया अब तुम बोलो। रिया ने भी कहा, “नन्ना के जैसी ही सास चाहिए, नानी मामी सबके कामों में हेल्प करती है, और अच्छा खाना बनाती है, और कभी लड़ती नहीं है मामी सब से।” दोनों बच्चियों की बातें सुन, राधिका का अपने माँ के प्रति गर्व से सीना और चौड़ा हो गया। रश्मि जी भी अपने प्रति अपने घर की बच्चियों से, इतनी अच्छी-अच्छी बातें सुन मन ही मन प्रफुल्लित हो रही थी। वहीं उनकी दोनों बहुएं,….सुगंधा और रजनी
अपनी सास की तारीफ सुन, और जल-भून गयी। मुँह बनाकर धीरे-धीरे एक दूसरे से कहती है, ऊंह,…बड़ी आई बहुत अच्छी सास। रश्मि जी जो शिक्षित, अनुशासित, मितव्यव्यी, समझदार, जागरूक, संस्कारप्रिय और परिस्थिति के अनुसार चलनेवाली, उन्नत सोच रखनेवाली धैर्यवान महिला थीं। सभी के लिए उनका नियम एक सा रहता था, बेटे और दामाद में फर्क न करती थी तो, बेटी और बहु को भी बराबर नजर से देखती थी।
हाइ सोसायटी में रहने के बावजूद भी बेहद साधारण और सादगी से रहती थी। दरअसल उन्होंने बड़ी गरीबी और दिक्कतों के बीच अपने बच्चों को पाला और पढ़ाया था। आज सभी बच्चे अच्छा कमा रहे थे, और अच्छे विचार रखते थे। इसके लिए रश्मि जी और उनके पति का दिन-रात कड़ी मेहनत और संघर्ष का परिणाम है। रश्मि जी की सबसे बड़ी बेटी राधिका, दो बेटे, राजन और रितेश, थे।
बेटी की शादी के बाद, बारी- बारी से बिना दहेज लिए दोनों बेटों की शादी हो गयी। रश्मि जी की सोच थी,…..बहुएं अलग-अलग संस्कार अलग-अलग परिवार से आई है। तो तुरंत उनपर अपने घर के संस्कार या अपना विचार नहीं लादना है। दूसरे घर की बच्ची को मेरा घर और यहां के लोगों को समझने में समय तो लगेगा ही। हमारी पसंद, नापसंद, वो एक पल में नहीं समझ जायेगी।
साथ ही, मैं यदि उसकी सभी जरूरतों का ख्याल रखूंगी, तो वो भी मेरा मान जरूर करेगी। बड़ी बहु हो या छोटी बहु, दोनों के प्रेग्नेंसी में रश्मि जी ने उन दोनों को पूरा आराम दिया, खुद रसोई और अन्य काम करती थी। घर का काम हो या, बाहर का हर काम में वो आगे रहती थीं। बेटे और बहु की लड़ाई में यदि बेटे की गलती होती थी, तो बहू का ही पक्ष लेती थी।
बेटे जब अकेले में कहते, “माँ तुम नहीं जानती, इन चालू महिलाओं को, सिर्फ तुम्हारे सामने नाटक करती है, अच्छा होने का, अंदर से तुम्हारे प्रति विष भरा है।” रश्मि जी बिना परेशान हुए कहती, मुझे सब पता है, पर बेटा तुम तो मेरे अपने हो न, वो दूसरे घर से आई है, मुझे तो उसे अपना बनाना है न। तो फिर उसको प्यार न करूंगी, सहानुभूति न रखूंगी,
केयर न करूंगी, तो मायका से उसका ध्यान कभी हटेगा नहीं, और ससुराल को कभी वो अपना घर समझ नहीं पायेगी। इसलिए मैं सिर्फ वहीं देखती हूँ , जो वो दिखाती है। वो नहीं देखती जो सच है। आखिर बेटा भी क्या करते, पत्नी का सम्मान वो भी खुश हो जाते थे। रश्मि जी के दोनों बेटों का ज्वाइंट बिजनेस था, जिसका पैसों का पूरा हिसाब-किताब रश्मि जी रखती थीं।
बस यही बात दोनों बहुएं नहीं चाहती थीं। उनदोनों की सोच थी, हमारा पति कामता है तो हमें हिसाब रखना चाहिए। जबकि रश्मि जी का कहना था, दोनों का व्यापार साथ है, तो दोनों के मन में ये बात न हो कि, वो अपनी पत्नी पर खर्च ज्यादा कर देता है, या वो कम कर पाता है। इसलिए मेरे पास पैसा रहेगा तो दोनों का विश्वास बना रहेगा। और बेटा दोनों भाई साथ रहोगे तो, उन्नति ज्यादा होगी। ऐसी बात नहीं थी
कि दोनों भाईयों में मनमुटाव या खींचा-तानी नहीं होती थी, होती थी। पर रश्मि जी अपनी समझदारी से, दोनों भाई में कोई बड़ा झंझट या अलगाव की स्थिति न हो, ध्यान रखती थी। बस इसी बात पर दोनों बहुओं को लगता, सास हमें आजादी से जीने नहीं देना चाहती है। जबकि हमें अपने पति के साथ स्वतंत्र और अपने तरीके से रहना है।
दोनों अपने अपने स्तर से पति को मनाने की कोशिश करती कि क्यों न हम अलग रहें, इससे हमारा और हमारे बच्चे का अच्छे से विकास हो पायेगा। पर रश्मि जी समझदार और सुलझी हुई महिला थीं, वो जानती थी, कि बिना मेरी गलती की तो बेटा मुझे छोड़कर जायेगा नहीं, और मैं ऐसी कोई गलती नहीं करूंगी, कि बेटे को मुझसे दूर जाना पड़े। रश्मि जी खुद तथा दोनों बहुएं मिलकर घर की साफ-सफाई, खाना-पीना, घर आदि सबका ध्यान रखती थी। इस बात से भी बहुएं चिढ़ी रहती थी कि,… घर के कामों के लिए नौकरानी क्यों नहीं रखती हैं?
जबकि रश्मि जी का मानना था, हम सक्षम है काम में, तो फिर कामवाली रखकर पैसा भी दो, और शरीर को भी आलसी बनाओ, क्या जरूरत है? और बहुएं कहती बाहर खाने जाना है, कभी-कभार तो इजाजत दे देती थी, पर बार-बार कहने पर साफ मना कर जाती थीं कि बाहर का खाना स्वास्थ्य और स्वाद सभी दृष्टि से हानिकारक है। इसलिए जो खाना है, मैं घर में ही बना देती हूँ।
बस बहुओं का मुंह चढ़ जाता था। कहना आसान है, कुछ लजीज बनाने में, मेहनत कितना है, इन्हें तो समझ आता नहीं है। इन्हें काम करने की आदत है तो बस सबको अपने जैसा ही समझती हैं। बहुएं जब कभी किसी बात से इनसे लड़ती थीं, तो पहले चुप होकर सुनती थीं, फिर बाद में समझाकर धीरे-धीरे जवाब देती थी, तबतक, बहुओं का गुस्सा कम हो जाता था, और बात आगे बढ़ने से रुक जाता था। और
बहुओं का इस कदर ख्याल रखती, या अपने बातों से अपना बनाती ताकि कम से कम मायका जाने का अवसर मिले। रसोई में खाना स्वादिष्ट भी हो और खर्च भी कम हो, इसका रश्मि जी पूरा ख्याल रखती थी। इस बात से उनकी बहुएं खफा रहती थी, कि रसोई में भी हमें आजादी नहीं है। जबकि हमारे पति कमाते हैं,…फिर भी इनको नमक, हल्दी में भी हिसाब लगाना है। इन सब बातों से विचलित नहीं होतीं थीं रश्मि जी।
बहुओं को कहती, तुम्हारा पति है तो मेरा भी बेटा है, जब सुबह छः बजे से उठकर रात बारह बजे तक मेरा बच्चा काम करता है। तो क्या मैं, उसके पैसों का दुरुपयोग होने दूंगी। मैं फिजूलखर्ची और दिखावे की दुनिया के सख्त खिलाफ हूँ। रश्मि जी ने अपनी बहुओं से ये भी कह रखा था, तुम्हारी योग्यता के अनुसार यदि तुम्हें जॉब मिलता है, या तुम दोनों बाहर जाकर जॉब करना चाहती हो तो वो भी करो, मैं अकेले घर संभाल लूंगी। तुमलोग जब खुद से पैसे कमाएगी तभी पैसों के महत्व को समझ पाओगी। रश्मि जी कहती,
हाँ, अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ाओ, बैंक में पैसे रखो, जरूरत पर खर्च करो, पर जहां तक बचत कर सकते हो, जरूर करो। पर बहुएं सब आजकल की चकाचौंध की दुनिया में, बस सोचती पैसा है तो ये क्यों नहीं, पैसा है तो वो क्यों नहीं। रश्मि जी का कम खर्च करना, दोनों बहुओं को हमेशा अच्छी-अच्छी बातें समझाते रहना, बस यही अखड़ता था बहुओं को।
जैसे, बच्चों पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान दो, मोबाइल में ज्यादा न घुसो। मोबाइल सबकुछ सच नहीं दिखाता। सच देखना है तो आसपास के लोगों से जुड़ो, कुछ क्रिएटिव करो आदि, आदि। रश्मि जी समय की बहुत पाबंद थीं, समय पर काम बहुएं न करती तो वो खुद कर लेती थीं। उनकी सोच थी, हम जैसा करेंगे, वैसे ही हमारे बच्चे भी सीखेंगे। इसलिए काम समय से हो, सही हो इसका ध्यान वो खुद रखती थीं,
ताकि बच्चों ने अच्छे संस्कार डाल सके। एक बार छोटे बेटे-बहु में, बहु के मायके को लेकर लड़ाई हो गयी। बेटे ने अपनी पत्नी रजनी से कह दिया, तुम अपने माता-पिता से बात नहीं करोगी, या तो मायके से संबंध रखो, या मुझसे। बात रश्मि जी तक के कानों में भी आई, उन्होंने बेटे से साफ कह दिया, ये तो तुम गलत कह रहे हो, तुम्हारा किसी बात को लेकर दिल दुखा है ससुराल के प्रति तो, तुम बात मत करो, तुम वहां न जाना।
पर उसे अपने माता-पिता से बात करने से कैसे रोक सकते हो? तुम्हें भी यदि दोनों में से एक चुनने कहे तुम्हारी पत्नी तो तब तुम मुझे छोड़ दोगे न? उसे यदि किसी चीज का बुरा लगेगा, तो वह खुद बात न करेगी, यूं, दबाव डालकर किसी को अपने माता-पिता से दूर करने की कोशिश करना बेवकूफी है। कुछ दिनों बाद बेटे-बहु में सबकुछ सामान्य हो गया। रश्मि जी को झूठ से सख्त चिढ़ थी, फिर भी कभी जब उनकी बहुएं कुछ छिपाती या झूठ बोलती तो वो सच उनके द्वारा ही बाहर आए इंतजार करती थी।
उस मोहल्लें की सभी बहुएं कहती “#काश ऐसे समझनेवाली सास हर घर में हो।” तो क्यों न बहुएं घर को मंदिर बना दें। जैसा मंदिर रश्मि जी का घर है। आसपास की सास भी प्रेरित होती थीं रश्मि जी से। पर सभी का ज्ञान तो अपने-अपने तरीके का होता है न। वहीं रश्मि जी कि बेटी कहती, मम्मा तुम सिर्फ कमाल की माँ ही नहीं, बेहतरीन सास भी हो।
आज दोनों बच्चियों की बातें सुन….रश्मि जी का दिल गदगद हो उठा। बारी-बारी से अपने बेटे को सुनाती, मेरे घर की बच्चियों को मुझसा सास चाहिए। मेरे लिए यही सबसे बड़ा इनाम है। रश्मि जी ने मन ही मन कहा, आज भले बहुओं की आंखों ने गड़ रही हूँ, पर कल समय के साथ इन्हें भी जरूर मेरे बताए रास्तों की अहमियत समझ आयेगी। और फल की चिंता मैं क्यों करूं, बस अपना हर रिश्तों में बेस्ट देना है। तबतक शाम होने चला था,…उठकर रसोई की ओर चली गयी रश्मि जी, अपनी बहुओं की मदद हेतु।
चाँदनी झा