जानती हो उस दिन मेरा मन कचोट कर रह गया था। मैंने अपनी पूरी जिंदगी उसके दरवाजे पर ही बीता दिया लेकिन उसे तनिक भी लिहाज नहीं। बिना लाग लपेट के कह दिया था कि–” मैंने तुम्हारे परिवार का ठेका लिया है क्या? तुम अपने लड़के को पढ़ाओ या मत पढ़ाओ उससे मेरा क्या लेना देना?”
उस दिन मैं चुपचाप घर लौट आया था और तुमसे भी कुछ नहीं कहा। चूंँकि मेरा मन बहुत आहत था। यद्यपि तुम भांँप तो गयी ही थी लेकिन किसी वजह से तुमने मुझे पूछा नहीं था।
शिवानी बगल में बैठी रमेंद्र की बातें सुनकर मन ही मन सोच रही थी कि
आखिर यह आदमी अब तक अपने को इतना जज्ब कैसे किया है? उसने कहा —” अच्छा तो क्या वह पूर्ण रूप से मुकर गया या कोई आश्वासन भी दिया है।”
” उसने कोई आश्वासन नहीं दिया है।साफ साफ कह दिया था कि उससे मेरा कोई काम नहीं है। वह तुम्हारा मामला है। तुम समझो।”
” बहुत ही दगाबाज और झूठा निकला “–शिवानी ने कहा।
खैर छोड़ो किया भी क्या जा सकता है? वसंत की पढ़ाई पूरी तो होगी ही।
अच्छे काम में बाधाएं आती हैं। लेकिन समय के साथ सबका समाधान हो जाता है। संकल्प ले लिया है तो उसे किसी भी कीमत पर पूरा करके ही दम लूंँगा। शरीर पर भले बढ़िया कपड़े न पहनूँ। बढ़िया भोजन नहीं करुँ। शौक वगैरह न पूरा हो। कोई बात नहीं है लेकिन उसकी पढ़ाई बंद नहीं होगी। रमेंद्र के मन में यह सब कुछ चलता रहा। तरह तरह से सोचता रहा किन्तु शिवानी से उसने कुछ भी नहीं कहा।
फिर उसके मानस में चिंतन का क्रम जारी हुआ। मेरी कोई लड़की तो है नहीं कि उसकी चिंता करनी है। यदि होती भी तो क्या? उसे भी पढ़ाता लिखाता और अच्छे घर में उसकी शादी कर देता।
आज तो मुझे दो लड़के ही हैं।दूसरा अभी छोटा ही है। बड़े को पालिटेक्निक कालेज में नामांकन कराना है। पैसे कम पड़ रहे हैं। उसकी ही व्यवस्था करनी है। मालिक ने कहा था कि–” जब जरुरत होगी कहना मैं मदद कर दूंँगा। यह नहीं होगा कि पैसे के अभाव में उसका नामांकन नहीं होगा ।”
लेकिन भोला मालिक अब इंकार कर रहे हैं। इसके पीछे क्या कारण हो सकता है ? मुझे तो नहीं मालूम।वे ही जानें। इसी तरह से विचार प्रवाह में डूबता – उतराता जा रहा था। उसके चेहरे पर उदासी छायी थी।
शिवानी ने भोजन के लिए पूछा तो उसने कहा —” अभी खाने का मन नहीं करता। भूख नहीं लगी है। तुम जाओ खा लो। मैं बाद में खाऊंँगा।”
” आप तो कुछ खोये खोये लग रहे हो। वजह क्या है? कुछ बताओ भी।”
” कोई बात नहीं है। सब कुछ ठीक है”–उसने कहा।
इसी बीच बगल की ही रहने वाली लछमीना उसके घर किसी काम से आयी थी। उसे पता चला था कि भोला मालिक उसे पैसे क्यों नहीं दे रहे हैं? उसने कहा मुझे मालूम हुआ है कि वह उसे रुपये इसलिए नहीं दे रहे हैं कि उसका लड़का पढ़कर नौकरी करने लगेगा। वह भी उसकी तरह रहने लगेगा। बाद में उसकी बराबरी करने लगेगा और एक दिन ऐसा आयेगा जबकि वह मजदूरी करने से मना कर देगा।
शिवानी से लछमीना ने सब कुछ बतला दिया। उसने यह बात भोला के यहांँ ही कुछ दिन पहले सुनी थी । भोला अपनी पत्नी से कह रहे थे। भला इन सबके बाल-बच्चे भी पढ़ने लगे हैं। ये लोग भी आगे बढ़ जायेंगे। हम सबका मुकाबला करने लगेंगे। शिवानी इन सारी बातों को ध्यान से सुन रही थी और अपने भोला मालिक की नीयत के बारे में सोच रही थी कि हमारे मलिकार इतने गये गुजरे हैं। उन पर कोई भी कैसे विश्वास कर सकता है?
हम लोग उनके लिए जान देने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं लेकिन एक वे हैं जो हमारे बारे में ऐसी बातें करते हैं। कोई बात नहीं है। सबका मालिक तो भगवान ही होता है। उससे बड़ा सहायक दूसरा कोई नहीं है। मेरा लड़का पढ़ेगा जरुर पढ़ेगा। उसकी मदद तो ईश्वर ही करेंगे।
नामांकन का समय करीब ही था। रुपये का अभी तक इंतजाम नहीं हुआ था। जब इस बात की जानकारी वसंत को हुई तो उसे अपने कैरियर को लेकर चिंता हुई। अचानक उसके मन में यह ख्याल आया कि उससे एक बार अजीत ने कहा था कि उसने बैंक ऑफ बड़ौदा से शिक्षा लोन लिया है। क्यों नहीं मैं उससे संपर्क करके इन बातों से अवगत हो जाऊंँ?
ऐसा ही किया। अजीत ने बताया कि ” बैंक से लोन लिया जा सकता है। बहुत आसान प्रक्रिया है। सरकार ने विद्यार्थियों की पढ़ाई के लिए ऐसी व्यवस्था बनायी है।”
एक दिन दोनों बैंक गये। प्रबंधक ने बताया कि अमुक अमुक कागजात और एक गारंटर अपने साथ लेकर आइयेगा। अगले ही दिन लोन मिल जायेगा। यह बात बिलकुल ही सच निकली। वसंत ने अपने पिता को बताया। इससे रमेंद्र को बहुत राहत
मिली। शिवानी भी खुश हो गई कि अब मेरा वसंत पढ़ लेगा। बैंक प्रबंधक ने कहा ” तीन वर्षों तक यह लोन मिलेगा। पढ़ाई पूरी करने के बाद जब नौकरी करने लगेंगे तब किस्तों में इस रकम की अदायगी की जायेगी।”
रमेंद्र के लिए यह किसी किला के फतह करने से कम नहीं था। उनका हौसला बुलंद हो गया और मन ही मन सोचने लगे भोला मालिक जब यह सुनेंगे तो चौंक जायेंगे। वे मुझसे पूछेंगे तो मैं कहूंँगा कि आप से भी बड़ा मालिक मेरी मदद के लिए तैयार हो गया है। आपने तो मुझे ऐन मौके पर ही धोखा दिया है। अब आप मेरे लिए मलिकार नहीं रह गये हैं। मैं आपकी मजदूरी करने से बाज आया। न जाने कितने प्रसंगों और संदर्भों को एक साथ जोड़ते फिर घटाते इसके बाद गुणा-भाग करते रहे और मन में ही उछलते कूदते फांँदते रहे।
शिवानी भी रमेंद्र से कम खुश नहीं थी। वसंत के लिए ढेर सारी बधाइयांँ और शुभकामनाएंँ देती और उसे बार-बार गले लगाती अनंत आशीर्वाद देती। अनेक मन्नतें मांँगती।
वसंत ने अपना नामांकन पटना पालिटेक्निक कालेज में करवा लिया। वहांँ छात्रावास में रहने लगा।
भोजन के लिए मेस की व्यवस्था थी साथ ही जो छात्र अपना भोजन स्वयं बनाना चाहते थे उनके लिए कोई रोक टोक नहीं थी। वसंत को अपने बारे में सब कुछ पता था। उसने अतिरिक्त खर्च से बचने के लिए अपने ही से भोजन बनाना पसंद किया। ऐसे बहुत लड़के थे।
धीरे-धीरे समय बीतता गया। पढ़ाई पूरी होने से पहले रमेंद्र कभी कभी उससे मिलने पटना जाते थे और उसके लिए ठेकुआ – नमकीन बनवा कर ले जाते थे। वसंत मां के हाथों का बनाया हुआ खाकर बहुत ही खुश होता था और शिवानी भी संतुष्ट होती कि मैंने अपने बेटे के लिए दिया है।
अब तो वसंत की पढ़ाई समाप्त हो गयी। प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हो गया।
ईमानदारी से पढ़ाई की थी। अपने माता-पिता की हैसियत से भलीभांँति परिचित था। अतः उसने थोड़ी सी भी कोई कोताही नहीं बरती थी। कहा गया है कि ईमानदारी का फल मीठा होता है। वही हुआ जिसका कयास लगाया जा रहा था। उसकी नौकरी बिहार सरकार के कम्प्यूटर शाखा में हो गयी। पटना में ही रहना था। पहले तो दो चार सालों तक किराये पर ही रहा। फिर बाद में सरकारी आवास मिल गया। व्यवस्था परिवर्तन से उसे बहुत अच्छा लगता।
अभी तक उसकी शादी नहीं हुई थी।
अब लड़की वाले आने लगे थे। तब तक वह मांँ के ही साथ रहने लगा।
गांँव पर अकेले कुछ दिनों तक रमेंद्र और छोटा बेटा हरि ही थे।
एक दिन वसंत ने अपने पिता से कहा कि –” आप हरि को लेकर यहांँ ही आ जाइये। उसका नामांकन बढ़िया स्कूल में करवा दूंँगा।”
कुछ दिनों बाद वे लोग भी पटना में एक ही साथ रहने लगे। सारी सुविधाएंँ उपलब्ध थीं। कहीं कोई दिक्कत नहीं थी।
समय बीतता गया। शिवानी ने कहा बेटा अब तुम्हें शादी कर लेनी चाहिए। तुम अपनी पसंद से भी करना चाहो तो कर सकते हो हमलोगों की तरफ से कोई बाधाएंँ नहीं आयेंगी। हांँ, यदि तुम कहीं कोई सलाह मशविरा करना चाहोगे तो फिर हम तैयार ही हैं।
मांँ की बातें सुनकर उसने कहा — ” मांँ ऐसा नहीं होगा। आप लोगों की उपस्थिति में मैं अपना विवाह अपने से नहीं कर सकता बल्कि आप लोगों की मर्जी से होगा। “
रमेंद्र ने अपने एक रिश्तेदार की लड़की जो पटना में ही एक विद्यालय में शिक्षिका थी उससे वसंत की शादी तय कर दी। जिसे सबने पसंद किया था और भरपूर सराहना भी की । शादी संपन्न हो गयी। बहू रीमा बहुत ही खूबसूरत और आज्ञाकारी थी। इस परिवार में जब शामिल हो गयी तब उसने ऐसा महसूस किया कि हमारे माता-पिता तो साथ में ही हैं। वसंत को भी रीमा खूब पसंद थी क्योंकि वह उसके माता-पिता को प्रिय लगती थी। जिस बहू से घर में खुशियांँ बढ़ जाये वह सबकी प्यारी हो जाती है। वैसे वह अत्यंत ही व्यवहारिक थी चूंँकि एक शिक्षक भी थी।
रमेंद्र का पारिवारिक जीवन सुखमय हो गया। अब मजदूरी करने की आवश्यकता नहीं होती। शिवानी भी खुश और संतुष्ट रहने लगी। वसंत भी ऐसा ही महसूस कर रहा था।
एक दिन रमेंद्र ने वसंत से कहा — ” बेटा हमलोग दो चार दिनों के लिए रीमा को लेकर गांँव चलें। वहांँ के देवी देवताओं के आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए।”
वसंत ने कहा ” जब आप जाना चाहें मैं तो चलने के लिए तैयार हूंँ।”
यह जानकर शिवानी और रीमा भी खूब खुश थीं कि वे गांँव जायेंगी और गृह देवता के साथ साथ ग्राम देवी और ग्राम देवता के दर्शन पूजन करके आशीर्वाद प्राप्त करेंगी।
आषाढ़ पूर्णिमा को वे सब गांँव चले गये। उसी दिन देवी देवताओं के दरस-परस हुए। शिवानी द्वारा की गयी मन्नतें पूरी की गयी। देवी देवताओं को प्रसन्न किया गया और आस-पास प्रसाद वितरण किया गया।
रमेंद्र अपने मलिकार भोला के घर प्रसाद देने के लिए गया। उनके पैरों को छूकर आशीर्वाद प्राप्त किया और भगवान का प्रसाद उन्हें दिया। वे अचंभित रह गये और कुछ देर तक सोचते रहे क्या यह सही में वही रमुआ है जो मेरे घर मजदूरी करता था और अपने लड़के को पढ़ाने के लिए रुपये मांँगा था और मैंने देने से इंकार कर दिया था। हाय रे !हाय राम! कितना समय बदल गया है। अब रमुआ मेरा मुकाबला कर सकता है।मेरा मुहताज नहीं हो सकता। इसके पास भी वही लक्ष्मी जी रहने लगी हैं जो मेरे पास हैं । आज मुझमें और रमुआ में कोई फर्क नहीं है अब वह क्यों उसका मुहताज ( मोहताज ) होगा।
अयोध्या प्रसाद उपाध्याय, आरा
मौलिक एवं अप्रकाशित।