मोह का अटूट बंधन – शुभ्रा बैनर्जी : Moral Stories in Hindi

पूरे एक साल के बाद अर्पिता आ रही थी मायके,बेटी(रितु) के संग।आने की जानकारी देते हुए फोन पर बताया था अर्पिता ने रीना को”भाभी,रितु के साथ आ रहीं हूं मैं।चार दिन रुकेंगें हम।वापसी में मां को भी अपने साथ लेकर आऊंगी।अब तो अच्छी तरह चल लेती हैं वो।रितु ने पिछले साल वादा ले लिया था उनसे हमारे पास आकर कुछ दिन रुकने का।तुम्हें क्या लगता है भाभी?मां को ले आऊं ना मैं एक महीने के लिए।”

अर्पिता की बात सुनकर रीना को बहुत खुशी हुई।इतने सालों बाद मां इस घर से बाहर निकल पाएंगी।पता नहीं कितने बरस इसी घर के इसी कमरे में बिताए हैं मां ने।पहले ससुर जी की तबीयत खराब थी,फिर बेटे की तबीयत बिगड़ी।दोनों बेटियों के घर तीसरे-चौथे माले पर होने की वजह से,कभी हिम्मत नहीं की उन्होंने जाने की।अब छोटी बेटी ने पुणे में ग्राउंड फ्लोर पर फ्लैट लिया है।बेटा -बेटी नौकरी करने लगे हैं।कार भी ले ली है उसने।उनके साथ मुश्किल से दो या तीन बार ही रह पाईं थीं,उनके जन्म के समय।

रीना की भी स्कूल की छुट्टियां होंगी,कुछ दिनों में।तब जाकर मां को ले आएगी।कुछ दिनों तक उनके इन्सुलिन,प्रेशर की दवाई देने से छुट्टी मिलेगी।यही सोचकर मां के पास खुशखबरी देने गई रीना”मां,छोटी आ रही है,बेटी के साथ।तुम्हें भी ले जाएंगे अपने साथ।कुछ दिन रहकर आना,अच्छा लगेगा। बहुत सालों से कहीं जाना नहीं हुआ तुम्हारा। क्या-क्या रखना है?बता देना।पैकिंग पहले से करके रखना।उनके आने के बाद फिर समय नहीं मिलेगा।”

रीना की खुशी के दो कारण थे,मां यह अच्छी तरह समझ रहीं थीं। उम्र का तजुर्बा किसी संस्थान से कम नहीं होता।बड़े अनमने ढंग से कहा उन्होंने “अब इस उमर में क्या सामान बहू मां?दो -चार साड़ी निकाल देना।दवाइयों का डिब्बा,एक दो किताबें रख लूंगीं पढ़ने के लिए,और क्या?”

“क्यों तुम खुश नहीं‌ हो क्या?कितना बड़ा शहर है पुणे पता है?ऊपर से नवासी तुम्हारी एक नंबर की घुमक्कड़।बैठाएगी तुम्हें कार में,और सैर करवाएगी।तुम्हारे तो मजे होंगें।मॉल भी चली जाना।”रीना ने मां की आंखों में चमक ओझल देखकर कहा।

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मां निर्विकार ही रहीं सारा दिन।पैकिंग अभी तक शुरू भी नहीं की थी।इधर रीना ने फोन पर अपनी बहन को बता दिया था”रिंकी,मैं आऊंगी कुछ दिनों के लिए रहने।मिष्टी(बहन की बेटी)से बता देना।क्या लेकर आना है ?पूछना उससे।”रिंकी ने चकित होकर पूछा”अरे!और मौसी जी (रीना की सांस)को कौन देखेगा दीदी?भैया(रीना का बेटा)छुट्टी ले रहा है क्या?”

रीना ने लंबी सांस लेकर पूरा वृतांत सुनाया”इतने सालों में तो कम से कम उनका जाना निश्चित हुआ।अब कुछ दिन मैं भी घूम लूंगीं।कब से कहीं नहीं जा पाई मैं भी।तेरे घर कुछ दिन रुककर शिप्रा(मंझली बहन)से मिलने चली जाऊंगी।बस एक महीने बाद जाकर ले आऊंगी मां को।टिकट कंफर्म होने पर बता दूंगी।”

रीना जैसे ही बहन से बात करके मुड़ी ,सामने मां खड़ी थीं।मेरी,पालक और धनिया साफ करके पेपर में‌ लपेट कर टेबल में रख रहीं थीं।उन्हें देखते ही रीना की आंख भर आई।ऐसे कितने छोटे-मोटे काम खुश होकर कर रही थीं वो जाने कितने सालों से।धुले हुए कपड़ों को रीना ने आज तक तह नहीं किया कभी।शाम को सबके कपड़े अलग-अलग तह करके जमा कर रखती थीं वो।बाद में रीना जगह पर रख दिया करती थी।बाजार से थैले भर-भर कर सब्जियां ले तो आती थीं‌ रीना।उसमें से अलग-अलग सब्जियां निकाल कर सही थैले

में कागज में‌ लपेट कर टेबल पर रखना उनका काम था।फ्रिज में‌ थैलों को बस रीना को रखना होता था।बाप रे!कितने सारे काम खुशी-खुशी कर देतीं थीं वो,तभी शायद रीना का स्कूल जाना संभव हो पाता था।शाम को रीना ने बेटे के ऑफिस से आते ही बुआ और बहन के आने की खबर दी।सबसे पहला सवाल त्योरी चढ़ाकर ही पूछा

उसने”क्यों दादी को ले जाने की क्या जरूरत है?यहां क्या दिक्कत है उन्हें। हॉस्पिटल पास में है,जब जरूरत हो ले जा सकतें हैं।वहां ट्रेफिक का हाल पता है आपको कुछ।सफ़र भी बहुत लंबा‌ होगा ट्रेन से।यहीं रहे दादी,बुआ लोग आकर देख लें ,यही उचित है।आपको तो पहले ही मना कर देना चाहिए।दादी कोई सामान तो नहीं,कि यहां से वहां उनको‌ पैक करके भेजेंगे।आप अपना स्वार्थ ना देखो घूमने जाने का।मौसी के घर जब जाने का मन‌ हो,जा सकती हो मैं‌ ड्यूटी से छुट्टी ले लूंगा।इस उमर में इतना लंबा सफर ठीक‌ नहीं‌ रहेगा उनके लिए।”,

सारी खुशियों पर घड़ा भर पानी फिर गया।ये ना-नुकुर शुरू कर दिया ना,अब कोई ना कोई अड़चन जरूर आएगी।बेटा है मेरा पर मेरे कहीं जाने से इसे बड़ी दिक्कत होती है।सारा दिन स्कूल,फिर खाना बनाना,और दादी की दवाइयां समय-समय पर देना,यही मेरी जिंदगी है।मैं कहीं घूमने जाने की बात करती हूं,तभी इसका मुंह सूज जाता है।

अर्पिता,बेटी रितु के साथ पहुंच गई मायके।आते ही रितु की ऑनलाइन नौकरी (वर्क फ्राम होम )शुरू थी।नानी के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताती।उनसे उन्हीं की शादी के बारे में पूछती।पुराने एल्बम देखकर सबके बारे में पूछती थी। अर्पिता ने आकर मां का बैग तैयार कर दिया।किताबें थोड़ी कम कर दीं।

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एक बैग ही अधिकतम जा सकता था साथ। देखते-देखते जाने का दिन भी आ गया।सुबह पांच बजे ट्रेन थी,सो रात को सब जल्दी सोने चल दिए।मां अपने पोते(रीना के बेटे) के साथ ही सोतीं थीं। नहीं-नहीं वो दादी के साथ उन्हीं के कमरे में सोता था बचपन से।आधी रात को ज़रा सा खांसी हुई नहीं कि दादी चादर से अच्छी तरह ढंक लेती।बदन छूकर देखती थीं रोज़,जब वो सो जाता था।सुबह रिपोर्टिंग करती “बहू,रात भर बुखार था इसे। अस्पताल लेकर जाना पड़ेगा।”रीना कभी तो खिसिया ही जाती।इतने बड़े घोड़े को बच्चा ही समझती हैं अभी तक।

आधी रात में उठकर ही रास्ते का खाना बना रही थी रीना,तभी मां रसोई में आकर बोली”बहू मां,मैं जानती हूं।मेरी वजह से तुम बाहर किसी रिश्तेदार के यहां नहीं जा पाती।मेरी तबीयत का ख्याल कर के मेरा पोता परेशान रहता है।यह मेरा दुर्भाग्य है जो,मेरे बहू और पोते की जिंदगी में ग्रहण बनकर लगी हुई हूं।

पर बहू,यह मेरा अपना घर है।तुम्हारे बाबा(पति),पति(मां का बेटा) का।यह घर,यह कमरा,यह शहर अब मेरा हो गया है।मैं कहीं और जाकर रह नहीं पाऊंगी रे।पोते को देखें बिना मैं कैसे रहूंगी।वह घर मेरी बेटी का है।दामाद का है।भले कितना भी बड़ा हो,पर मैं हक के साथ तो इस छोटे से घर में तुम लोगों के साथ रह सकतीं हूं। अर्पिता और रितु जिद कर तो रहें हैं मुझे ले जाने के लिए,पर मैं मां होकर अगर ना कहूंगी,तो उनके मन में बैर ही पलेगा।यह काम तुम ही कर सकती हो बेटा।कैसे करना है,तुम जानो।अगर भेजने का मन बना लिया है ,तो मैं तुम्हें रोकूंगी भी नहीं।”

मां बोलते हुए रोने लगी।उन एक जोड़ी बूढ़ी आंखों में बेटी के साथ चलने का उत्साह दिख ही नहीं रहा था।रीना ने करीब से बहुत टटोलने की कोशिश की,पर उनका ना जाने का फैसला ही शक्तिशाली रहा।उन बूढ़ी आंखों में अपने पति,बेटे और अब पोते में ही खुद को पाती हैं वो।

उन्हें कोई अफ़सोस भी नहीं,कहीं ना जा पाने का। रहती हैं तो,रीना का एक हांथ बनकर ही।उन आंसुओं ने रीना का अंतर्मन हिला दिया।इस उम्र में जाकर पता नहीं यहां वापस आ भी पाएंगी कि नहीं? छटपटाहट में क्या करेंगी ?मां के पास जाकर सीने से लग गई रीना,रोते हुए बोली”कहीं मत जाओ तुम।तुम्हें कोई और झेल ही नहीं पाएगा।तुम चली जाओगी,तो मुझे कौन देखेगा मां।नहीं जाओगी तुम,बस खुश।”जल्दी से समझा बुझाकर सुला दिया उन्हें।

सुबह सब उठकर जाने की तैयारी करने लगे ही थे कि रीना के रसोई से जोर से आवाज आई।रीना गिर पड़ी थी,या यूं कहें गिरी पड़ी थी।रितु और रीना के बेटे ने उठाया।”अरे आप तो चल नहीं पा रहीं।टूटी है क्या टांग की हड्डी?रितु ने पूछा तो रीना ने बिना नजरें ऊपर किए कहा”पता नहीं ,मैं पहले गिरी भी नहीं कभी। बहुत दर्द हो रहा है।”,रितु ने कहा”चलो मामी ,हम लोग निकल जाएंगे,तुम साथ चलो।वहीं दिखा देंगें।

रितु की नानी ने झट कहा”नहीं यहां है ना डॉक्टर जैन।दोपहर में चली जाएगी।पोता जाएगा साथ में।

ट्रेन का वक्त हो गया था।रीना के बेटे ने अपनी बुआ और बहन को स्टेशन छोड़ा।वापस आकर पूछा रीना से”मां चलो जैन सर के पास अभी।”

दादी ने फिर रहस्य से पर्दा उठाया”अरे,मैंने प्याज,लहसुन कच्चे राई तेल में गर्म करके लगा दिया है।बस एक दिन बांधना पड़ेगा,फिर सारा दर्द गायब।”,पोता भी अब तक सारा रहस्य समझ चुका था।

रीना ने बत्तीस सालों से साथ रहकर ,आज पहली बार ऐसे आंसू देखें।ये आंसू नहीं, अपने घर का मोह था।इस मोह में वे बिना सीप के अपनी मोती आप भर रहीं थीं।मां तो नींव‌ है इस घर की।

शुभ्रा बैनर्जी 

आंसू बन गए मोती

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