मित्र – डाॅ उर्मिला सिन्हा : Moral Stories in Hindi

 बरसों बाद इस शहर में आना हुआ। पुराने मित्र के बेटे की शादी थी… बड़ी मनुहार से बुलाया था,” तुम्हें बेटे के विवाह में सपरिवार आमंत्रित कर रहा हूं…भाभी जी और बच्चों के साथ आओ।”

   मैं भी भावुक हो गया,” कोशिश करता हूं… बच्चे बाहर हैं… पत्नी की तबीयत ठीक नहीं रहती “।

” कोशिश नहीं करना है…आना है… भाभी का मन भी यहां आकर बदल जायेगा।”

    मैं ने पत्नी से बात की… उस समय मेरा स्टेटस काफी अच्छा था  जब मैं मित्र के शहर में था… हम-दोनों साथ-साथ स्कूल जाते… जहां मेरे पिता सरकारी अधिकारी थे। क्वार्टर गाड़ी…अर्दली  सब मिला हुआ था… शान-शौकत में कोई कमी नहीं थी वहीं मित्र विमल के पिता जी की छोटी सी राशन की दूकान थी… विमल पांच भाई-बहन… दादा-दादी… चाचा-चाची…उनका परिवार सभी साथ- साथ रहते थे… खपरैल घर था। अभाव का बोलबाला था…निर्धनता झांक रही थी।

     मैंने पत्नी से कहा,”  रेखा मेरे मित्र के बेटे का विवाह है… बहुत बुलाया है… चलो दो दिन घूमकर आते हैं…” थोड़ी ना-नुकुर के बाद पत्नी शादी में जाने के लिये राजी हो गई। वैसे भी अकेले घर में बोरियत ही थी।

  जब  मैं पत्नी के साथ पुराने शहर पहुंचा तब शाम ढल रही थी। कस्बाई  मुहल्ले के स्थान पर सजा-धजा खूबसूरत शहर खड़ा था। मैं अपने मित्र का पुराना बदहाल टूटा-फूटा घर खोज रहा था। लेकिन यहां तो अट्टालिकाएं खड़ी थी।पता यहीं का दिया था।

    खैर मैंने एड्रैस निकाल कर ड्राइवर को दिया…” किसी से पूछ लो।”

   बताने वाले ने सामने इशारा किया… मैं अचकचा गया क्योंकि वहां बड़ी सी हवेली खड़ी थी… शायद उसी के अगल-बगल मेरे मित्र का पुराना मकान होगा… मैंने अपने आप को दिलासा दिया।

     लेकिन घर के बाहर फाटक पर मित्र का नाम देख मैंने गार्ड से पूछना उचित समझा। गार्ड ने मुझे सलामी दी और फाटक खोल दिया… मेरे आने की सूचना पर मेरे मित्र विमल दौड़ कर मुझे गले लगा लिया,” कैसे हो माधव… तुम आये मेरा अहोभाग्य।”

 बंगले की सजावट, ताम-झाम,मित्र विमल का रुतबा… मैं चकित हैरान परेशान। पत्नी ने भी मुझसे सुनकर अपने मन में निर्धन साधनहीन परिवार की छवि बना ली थी और यहां जैसे मां लक्ष्मी की कृपा चारों ओर फैली हुई है।

धन-संपत्ति आदमी- जन … जेवर कपड़ों की जैसे बहार आई हुई थी।

  मेरी अफसरी और कमाई इसके समक्ष गौण था। पत्नी ने आंखें तरेरी ” तुम तो कहते थे…अब मैं शादी में इनके समक्ष फीकी लगूंगी… क्योंकि मैंने समझा ही नहीं कि महंगे कपड़े ले चलूं…बस ऐसे ही साधारण ढंग से चली आई।”

 मेरी बोलती बंद थी… मुझे वही पुराने दिन याद थे।जब मेरे और विमल के जीवन स्तर में जमीन आसमान का फर्क था। इसने बुलाया हम चले आये कृष्ण सुदामा की मित्रता निभाने… यहां आकर पता चला कि सुदामा विमल नहीं बल्कि मैं हूं।

     तभी कीमती जेवरों कपड़ों से लदी फंदी उसकी पत्नी आ पहुंची,” माया…यह मेरे बचपन का दोस्त माधव 

   और उसकी पत्नी रेखा… मेरे खास मेहमान हैं।”

   माया भाभी ने उचटती नजर हमपर डाली और एक  सेविका की ओर इशारा किया,” इन्हें इनके कमरे में पहुंचा दो… डिनर पर मिलते हैं।”

  मैंने उलट कर देखा विमल और उसकी पत्नी कहीं दिखाई नहीं दिये शायद दुसरी ओर चले गये थे।

   कहां मन में ख्याल लेकर आया था कि विवाह में पांच-दस हजार की जरूरत हुई तो बेहिचक मदद कर दूंगा लेकिन यहां तो पासा पलटा हुआ है… मित्र के वैभव के सामने अपना वजूद फीका पड़ गया है।

     सेविका ने बड़ी अदब से सुसज्जित कमरे में उन्हें पहुंचाया जो आधुनिक उपकरणों से परिपूर्ण था।

  इंटरकाम बजा, उधर से विमल की आवाज आई

,” डाइनिंग हॉल में आ जाओ… भाभी जी के साथ।’

 डाइनिंग हॉल की भव्यता देखते बन रही थी जैसे किसी पांच सितारा होटल में आ गये हों। हृदय ने सरगोशी की…”क्या विमल ने अपने जमीन पर होटल बनवा लिया … किंतु पैसे… पैसे कहां से आये।”

बफे सिस्टम था… विविध व्यंजन सजे हुये थे… मेहमानों से घर भरा हुआ था… आखिर अल्लादीन का चिराग मिला कहां से …यह सुख-समृद्धि आई कैसे…मेरी भूख मर गई थी… रेखा भी इस बदले माहौल में अपने को अनफिट समझ रही थी… क्योंकि दिल में अपने पति के पोस्ट और सरकारी सुख-सुविधाओं का अहंकार था।

    दूसरे दिन बेटे का विवाह…  ” मेरा बेटा मेरे कारोबार में ही हाथ बंटाता है”  अपने सुदर्शन बेटे का परिचय कराते मित्र ने कहा।बेटे ने झुककर हम दोनों के पैर छुए।बेटे की विनम्रता शालीनता ने हमारा दिल जीत लिया। बड़ी धूमधाम और भव्यता पूर्ण विवाहोत्सव संपन्न हुआ… बहू जैसे चांद की ज्योत।

    मित्र की बिटिया मेडिकल की पढ़ाई कर रही थी… सुंदर और सुशील।

     अब बिदाई की बेला… मैं ने धीरे से विमल के कानों में कहा ” आखिर यह सब हुआ कैसे!”

   ‌ मित्र विमल ने अकेले में राज खोले,” दर असल बाबूजी की छोटी सी राशन की दूकान… किसी प्रकार चल रही थी… मुझे भी नौकरी नहीं मिली मैं भी उसी दूकान पर निर्भर हो गया… मैंने धीरे धीरे मार्केट का उतार-चढ़ाव समझा और अपनी पूरी शक्ति झोंक दी… इसी बीच एक साधारण कन्या से मेरा विवाह हो गया… अब उसकी किस्मत या मेरी मेहनत… रंग लाने लगा। मैं कम दाम में जरुरी सामान खरीदता और महंगा होने पर बेंच देता। मुनाफा बढ़ने लगा। प्रतिष्ठित व्यापारियों संग उठना-बैठना हुआ और लक्ष्मी की कृपा बरसने लगी।बेटा भी पढ़-लिखकर मेरे काम में हाथ बंटाने लगा।

     मेरी साख आमदनी दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी और मैं इस मुकाम पर पहुंचा हूं। बिटिया पढ़ाई में तेज थी अतः मेडिकल कॉलेज में प्रवेश मिल गया।”

  तभी उसकी पत्नी माया हमें हमारे बिदाई का सगुन देने आई …पत्नी के लिए महंगी साड़ी मेरे लिए सूट का कपड़ा…सोने की अंगुठी ।

” इतना कीमती तोहफा…इसकी क्या जरूरत थी” रेखा हड़बड़ा गई।

” यह हमारी ओर से तुच्छ भेंट ” माया ने अदाकारी दिखाई।

    हम खुशी-खुशी बिदा हो रहे थे… पलटकर देखा तो हमारे लाये हुये उपहार विमल और माया अपने नौकरों में बांट रहे थे… मेरी आंखें फटी की फटी रह गई।

मुंह से निकला ” #ये धन-संपत्ति न अच्छे-अच्छे का दिमाग खराब कर देता है…”।

  मौलिक रचना -डाॅ उर्मिला सिन्हा

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!