“अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस के अवसर पर सुश्री राधिका श्रीवास्तव ने दो सौ और पाँच सौ मीटर की रेस जीतकर देश में अपना परचम लहराया है।” अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस के अवसर पर रखी गई प्रतियोगिता में श्रेष्ठ दिव्यांग खिलाड़ी के रूप में राधिका को सम्मानित किया जा रहा था।
“राधिका ने अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांग दिवस के मौके पर एक दो सौ और पाँच सौ मीटर की रेस में ना केवल सहभागिता की, बल्कि उन्होंने अपनी अद्भुत क्षमता और परिश्रम से सभी को विस्मित कर दिया। उन्हें उनकी मेहनत और संघर्ष के लिए सम्मानित किया जा रहा है। राधिका सभी के लिए आदर्श हैं
कि किसी भी परिस्थिति में अग्रसर होना संभव है। उनका प्रयास एक उत्कृष्ट उदाहरण है जो सिद्ध करता है कि उत्साह, संघर्ष और संयम से हर मुश्किल का सामना किया जा सकता है।” राधिका के नाम की घोषणा करते हुए संचालक महोदय उसके बारे में बताते हुए कह रहे थे।
“आपकी हथेली में रज कण लगा हुआ है। क्या आप अपनी हथेली धोने के बाद ट्रॉफी लेना चाहेंगी।” मंच पर ट्रॉफी पकड़े हुए अतिथि महोदय उसकी बढ़ी हथेली देख़ क़र कहते हैं।
“नहीं सर, यह रज कण तो मेरे लिए मेहंदी है। ये तो मेरे लिए गर्व का विषय है कि मेरे द्वारा सीमा रेखा पार करते ही धरती माता ने मुझे अपने आलिंगन में ले लिया और मेरे हाथ को मेहंदी से रच दिया। मैं अपने इसी माटी सने हाथ से ही ट्रॉफी लेना चाहूँगी।” राधिका ट्रॉफी को निहारती हुई कहती है।
मेरे लिए यह ट्रॉफी मेरी माँ की तरफ से उपहार और विश्वास है। कभी मैंने मेरी माँ से पूछा था, “मेरा नाम आपलोग ने राधिका क्यूँ रखा माँ, मैं अपने ऊपर नीचे वाले पैर के साथ सही से चल तो पाती नहीं, ना खेल-कूद सकती हूँ, तो राधिका नाम मेरे लिए मज़ाक ही है ना।” वैशाखी के सहारे अपने छोटे-बड़े पैर के साथ घर में घुसती हुई नौवीं की राधिका रोती हुई कहती है।
राधिका का दाहिना पैर बाएँ पैर की तुलना में छोटा था, जिस कारण उसे वैशाखी के सहारे चलना पड़ता था और उसकी उम्र के बच्चे उसके साथ खेलना पसंद नहीं करतें थे, जिस कारण वह अक्सर अकेली पड़ जाती थी।
तब माँ ने कहा, “एक दिन तुम इसी पैर की बदौलत अपनी पहचान बनाओगी, बस लगन चाहिए, तभी तुम अपने हृदय में पनप रहे अशांति और नाउम्मीदी को दूर कर सकोगी। उस दिन से मेरी माँ, मात्र मेरी माँ नहीं रही, मेरी कोच बन गई और आज नतीजा आपके सामने है।” मंच पर से हुंकार भरती राधिका कहती है।
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“आज तो कुछ ढंग के कपड़े पहन लेती और ये हाथ में क्या लपेटा हुआ है।” राधिका के माता-पिता द्वारा दिए गए दावत में आई उसकी चाची उसके शरीर पर एथलीट वाले कपड़े और हाथ में तिरंगा के रंग का बँधा दुप्पट्टा देख़ राधिका से कहती है।
“चाची, ये सब तो मेरा श्रृंगार है। जब कभी मैं अड़ोस-पड़ोस या रिश्तेदारी में गई, सबने अफ़सोस ही जताया कि इसकी किस्मत में रंग-बिरंगी चूड़ियाँ लिखी भी हैं या नहीं और देखो आज तिरंगा ही मेरी कलाई को अपने रंग में रंग बैठा है। यह तिरंगा ही मेरे हाथ की चूड़ियाँ बन मेरी कलाई में लिपट गया।
इससे बड़ा सम्मान एक एथलीट के लिए और क्या हो सकता है और यह जो कपड़े हैं ना चाची, यही तो मेरी पहचान हैं। आप कह रही हैं, इसे अलग क़र दूँ, आज तो मेरे जीवन से सही मायने में अशांति ने विदाई ली है और शांति का त्यौहार आया है, तो इस खास अवसर पर स्वयं की पहचान को स्वयं से कैसे अलग क़र दूँ चाची”….
राधिका शायद अपने मन को अभी और व्यक्त करती, लेकिन अपने आसपास खड़े लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट से उसकी तंन्द्र भंग हुई और वो अपने चारों ओर सबका ज़मावड़ा देख़ चुप हो गई।
“बिल्कुल बेटा, तुम और तुम्हारे माता-पिता तुम्हारी इस सफलता के लिए बधाई के पात्र हैं। दिव्यांग तुम नहीं, दिव्यांग तो हम जैसे लोग और हमारे समाज की कुंद हो गई सोच है, जो केवल शारीरिक सक्षमता को ही पूजता है। हम सक्षम लोग तो थोड़ी सी अशांति में ही हार मान कर विलाप करने लगते हैं
और तुमने उस अशांति को ही अपना ढ़ाल बना लिया। हमें तो तुमसे सीखने की आवश्यकता है बेटा।” पड़ोस के बुजुर्ग राधिका के सिर पर आशीर्वाद का हाथ फेरते हुए कहते हैं और राधिका मुस्कुरा क़र अपनी वैशाखी के सहारे उनका चरण स्पर्श क़र आशीर्वाद लेना नहीं भूलती है।
आरती झा आद्या
दिल्ली
#अशांति