मालती एक शांत स्वभाव और सादगी पसंद लड़की थी।बचपन से वो देखती आई थी कि चाचाजी और बुआजी जब भी माँ को भाभी कहकर पुकारते तो उनके चेहरे पर एक चमक आ जाती थी।उनका कोई भी काम हो, माँ मन लगाकर करतीं थीं।कई बार तो उसके पापा अपने भाई-बहन को डाँट भी लगा देते थें,
तब माँ बड़े प्यार-से कहतीं,” भाभी हूँ उनकी…हमसे ना कहेंगे तो और किससे कहेंगे…।” जैसे- जैसे वो बड़ी होती गई, उसे इस संबोधन में प्यार,स्नेह, आदर और ज़िम्मेदारी का एहसास होने लगा।
ग्रेजुएशन पूरा होते ही उसके माता-पिता ने अच्छा परिवार देखकर एक इंजीनियर लड़के सिद्धार्थ जो कि दिल्ली में ज़ाॅब करता था, के साथ उसका विवाह तय कर दिया।जब उसे मालूम हुआ कि सिद्धार्थ के एक छोटा भाई और बहन भी है, तो वो बहुत खुश हुई..।
शुभ-मुहूर्त में सिद्धार्थ के साथ उसका विवाह हो गया और वो ससुराल आ गई।सास सावित्री ने उसकी आरती उतारी..आशीर्वाद देकर गृह-प्रवेश कराने लगीं तभी उसकी ननद प्रिया आ गई और उसका रास्ता रोककर अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए बोली,” भाssभीss…पहले नेग,फिर प्रवेश..।” अपने लिये ‘भाभी’ संबोधन सुनकर वो रोमांचित हो उठी..उसने अपने पर्स से मुट्ठी भर रुपये निकाले और ननद की हथेली पर रख दिये।
सप्ताह भर ससुराल रहने के बाद मालती पति के साथ दिल्ली चली गई।अपनी व्यस्त गृहस्थी से समय निकालकर संदीप-प्रिया से फ़ोन पर बात करना वो कभी नहीं भूलती थी।मालती का यह लगाव देखकर सिद्धार्थ बहुत खुश था।एक दिन उसने मालती को बताया
कि किस तरह से माँ-बाबूजी ने मेहनत करके उसे पढ़ा-लिखाकर यहाँ तक पहुँचाया है..वह उन्हें सारी खुशियाँ देना चाहता है…संदीप और प्रिया को अच्छी शिक्षा देना चाहता है..लेकिन इन सब में मुझे तुम्हारा साथ चाहिए…।तब वो बोली,” आपकी सारी इच्छाएँ पूरी होंगी..मैं हमेशा आपके साथ हूँ।”
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तीज़-त्योहारों पर दोनों जब घर आते तब सिद्धार्थ तो अपने माँ-बाबूजी से बातें करता और संदीप-प्रिया भाभी-भाभी कहकर मालती के आगे-पीछे घूमते।वो भी उनकी फ़रमाईशों को पूरा करने में अपना जी-जान लगा देती।एक दिन की बात है..
मालती ड्राइंग रूम में बैठकर प्रिया का प्रोजेक्ट पूरा करा रही थी तभी प्रिया की सहेली तनुश्री आ गई।मालती उठकर जाने लगी तो प्रिया ने उसका हाथ पकड़ लिया और सहेली से बोली,” तनुश्री…ये मेरी भाभी हैं..रसोई में अन्नपूर्णा हैं तो हमें पढ़ाते समय माँ सरस्वती बन जातीं हैं।” सुनकर मालती खुशी-से फूली नहीं समाई थी।
देखते-देखते दो साल बीत गये..।तब सिद्धार्थ ने मालती से अपना परिवार बढ़ाने के बारे में कहा।वो बोली,” ज़रूर..दीपावली नजदीक है…घर होकर आते हैं..तब…।प्रिया की छुट्टियाँ हैं तो उसे साथ ले आयेंगे..उसका थोड़ा चेंज हो जायेगा..।”
मालती घर जाने की तैयारी करने लगी..एक दिन मार्केट जाकर उसने ढ़ेर सारी शाॅपिंग की..सोची कि शाम को सिद्धार्थ आयेंगे तो उन्हें दिखाऊँगी..वो सिद्धार्थ के आने का इंतज़ार करने लगी..तभी उसके फ़ोन की घंटी बजी..सिद्धार्थ का नंबर देखकर वो कुछ पूछती कि उधर से आवाज़ आई,
” सिद्धार्थ का एक्सीडेंट हो गया है।आप ज़ल्दी सिटी हाॅस्पीटल आ जाईये।” वो तुरंत हाॅस्पीटल पहुँची.. सिद्धार्थ को खून से लथपथ देखकर वो रो पड़ी।दस मिनट बाद सिद्धार्थ ने धीरे-से अपनी आँखें खोली..मालती का हाथ थामकर उसे देखा,” संदीप-माँ का ख्या..।” शब्द अधूरा रह गया और उसकी साँस हमेशा के लिये बंद हो गई।वह सिद्धार्थ से लिपट गई और फूट-फूटकर रोने लगी…पलभर में उसकी दुनियाँ उजड़ गई..उसके सपने बिखर गये।फिर उसे घर वालों का ख्याल आया तो उसने अपने आँसू पोंछे।स्वयं को मजबूत करके उन्हें फ़ोन किया और कहा कि तुरंत आ जाईये…।
जवान बेटे को चिरनिद्रा में सोये देखकर सिद्धार्थ के माता-पिता के आँसू ही नहीं रुक रहे थे।बड़ी मुश्किल-से मालती ने उन्हें संभाला…।
सिद्धार्थ की अंतेष्टी के बाद मालती सास-ससुर के साथ घर चली आई। ससुराल आने के बाद मालती गुमसुम-सी रहने लगी।घर का कोना-कोना उसे सिद्धार्थ की याद दिला रहा था।मेहमानों के जाने के बाद वो अपनी सास के गले लगकर रोना चाह रही थी कि उसकी सास ने उसे झटक दिया,” मेरे बेटे को तो खा गई… अब किसे लीलने को आई है।” मालती चकित रह गई।सास के व्यंग्य-बाण से उसका कलेज़ा छलनी हो गया था।
बेटे के दुख में मालती के ससुर राधेश्याम जी ने बिस्तर पकड़ लिया..।सास के दुख पर ये दोहरा प्रहार था।कहते हैं, सास को माँ बनने में बेशक समय लगता हो लेकिन एक माँ को सास बनने में मिनट भी नहीं लगता।यद्यपि सिद्धार्थ की कंपनी से मिला एक-एक रुपया मालती ने अपनी सास की हथेली पर रख दिया था
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लेकिन फिर भी उसकी सुबह सास की गालियों से ही होती और रात भी…।जिस घर में उसे लक्ष्मी कहा जाता था, आज उसी घर में वो प्रताड़ित की जा रही थी।संदीप और प्रिया जो कभी उसे भाभी-भाभी’कहकर घेरे रखते थें, वो आज अपनी माँ के भय से उसके पास जाने से भी कतराने लगे थे।
दिन बीतते रहे..एक दिन प्रिया ने अपनी माँ से किताब खरीदने के लिए रुपये माँगे..मालती रसोई में थी..उसे देखकर सावित्री जी विफ़र पड़ी,” उसे कह.. खाने में ज़हर मिलाकर हमें खिला दे..और..।” वो बोलती रहीं और मालती की आँखों से टप-टप आँसू बहते रहें।
अगली सुबह प्रिया ने अपनी माँ को एक कागज थमा दिया जिस पर लिखा हुआ था,” माँजी, मैं जा रही हूँ, मालती।” घर में कोहराम मच गया..सावित्री जी ने कह दिया, अब उसका नाम कोई नहीं लेगा..।
समय अपनी गति से चलने लगा..घर के आर्थिक हालात देखते हुए संदीप पढ़ाई छोड़कर कुछ काम करने का विचार कर रहा था कि एक दिन एक सज्जन आये और संदीप की माँ को एक लिफ़ाफा देते हुए बोले,” सिद्धार्थ ने मुझे कुछ रुपये दिये थे..वही लौटाने आया हूँ।” माताजी प्रसन्न…संदीप ने फ़ीस जमा करा दी।
ग्रेजुएशन कंप्लीट करके संदीप बैंक की तैयारी कर रहा था कि एक दिन एक सज्जन उससे मिलने आये और उसे एक लिफ़ाफा देते हुए बोले,” आपके भाई सिद्धार्थ ने आपके नाम से एक स्कीम में पैसा लगाया था, जिसके तहत अब आपको हर महीने एक निश्चित राशि मिलती रहेगी।” पैसा हाथ में आ जाये तो फिर इंसान कौन-कहाँ के बारे में नहीं सोचता।
संदीप को बैंक में नौकरी मिल गई।अब हर महीने उसे तनख्वाह मिलने लगा.. स्कीम वाला पैसा भी उसे नियमित रूप से मिल रहा था जिससे घर के हालात सुधरने लगे।राधेश्याम जी भी अब चलने-फिरने लगे थे…प्रिया ने भी अपनी पढ़ाई पूरी कर ली तो एक अच्छा वर तलाश कर सावित्री जी ने उसका विवाह कर दिया।संदीप का भी विवाह हो गया।उसकी पत्नी दीपा पति के साथ-साथ सबका ख्याल रखती थी।
समय के साथ संदीप एक बेटी और एक बेटे का पिता बन गया, प्रिया भी दो बेटों की माँ बन चुकी थी।सावित्री जी और राधेश्याम जी के दिन अपने पोती- पोते और नातिनों के संग खेलने में बीतने लगे। कुछ दिनों तक लोगों ने मालती के बारे में पूछा, फिर पूछना छोड़ दिया।
देखते-देखते बीस बरस बीत गये।राधेश्याम जी का देहांत हो गया..सावित्री जी भी कमर-दर्द की शिकायत रहने के कारण अब धीरे-धीरे चलती थीं।संदीप ने बेटी की शादी तय कर दी।
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एक दिन संदीप शादी के लिय शाॅपिंग करके लौट रहा था तो उसकी नज़र ‘ प्रिया बुटीक’ पर पड़ी।वह कुछ सोचता,तभी वहाँ से अपने सहकर्मी केशव को वहाँ से निकलते देखा तो पूछ लिया,” केशव जी..ये बुटीक..पहले तो यहाँ…।” केशव बोले,” हाँ..पहले यहाँ स्टेशनरी शाॅप था।
कुछ साल पहले ही मेरी दीदी की सहेली मालती जी ने यहाँ बुटीक खोला है।शादी के दो साल बाद ही उनके पति की मृत्यु हो गई थी।घर में बीमार ससुर, पढ़ने वाले देवर-ननद की ज़िम्मेदारी..तब उन्होंने घर से बाहर कदम रखा..कुछ सालों तक रेडीमेड शाॅप में काम किया…फिर सिलाई का काम किया..उनका काम सबको पसंद आने लगा तब उन्होंने खुद का काम शुरु किया.. .महिलाओं को सिलाई सिखाई..अपने वर्कशाॅप में ही उन्हें काम दिया और फिर बुटीक खोली।जानते हो..
काम मिलने के अगले महीने से ही मालती जी अपने देवर को पैसे भेजने लगीं।वो कहतीं हैं कि मेरे पति नहीं रहे तो क्या हुआ..उनके अधूरे सपने को मैं पूरा करूँगी..।उनकी दिन-रात की मेहनत रंग लाई..ननद की शादी पर तो उन्होंने सबको लड्डू खिलाये थे…।यहाँ तक पहुँचना आसान नहीं था उनके लिये..राह में बहुत मुश्किलें आईं..लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी…उनके पिता ने मदद करनी चाही तो उन्होंने मना कर दिया।बोलीं कि अपने परिवार की मदद मैं अपनी मेहनत से करूँगी..।” केशव बोलते जा रहे थे और संदीप की आँखों से झर-झर आँसू बह रहे थे।
” अरे..आप तो रोने लगे.. चलिये..उनसे मिलाता हूँ।”
” आज नहीं..फिर कभी..।” कहकर संदीप वहाँ से चला गया।घर आकर वो खूब रोया।अगली सुबह वो सीधे बुटीक गया और मालती के पैरों पर गिरकर माफ़ी माँगने लगा।मालती ने उसे उठाया.. उसके आँसू पोंछे तब वो बोला,” भाभी..आपने हम सबके लिये इतना त्याग किया..इतनी मेहनत की..क्यों?”
मालती हँसने लगी,” भाभी कहते हो और पूछते हो क्यों..।घर में सब कैसे..।”
” घर चलिये..और खुद ही देख लीजिये।”
संदीप के साथ मालती को देखकर सभी चौंक पड़े..सावित्री जी कुछ कहने ही वाली थीं कि संदीप ने उन्हें सारी बात बताई और कहा कि हर महीने जो रुपये हमें मिलते हैं, वो भाभी ही भेजती हैं।
सावित्री जी की आँखों से पछतावे के आँसू बहने लगे, हाथ जोड़कर मालती से बोलीं,” हमें माफ़ कर दो बहू..तुमने तो भाई-भाभी दोनों का कर्तव्य निभाया.. हम ही..।”
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” बस माँजी..।” मालती उनके आँसू पोंछने लगी तभी उसे किसी की सिसकियाँ सुनाई दी, मुड़कर देखा तो प्रिया रो रही थी।मालती ने अपनी दोनों बाँहें फैला दी और भाभी’ कहकर प्रिया उससे लिपट गई।
विवाह की वेदी पर संदीप की बेटी बैठी हुई थी।पंडित जी ने कन्यादान के लिये माता-पिता को बुलाया तब संदीप मालती को ले गया।वहाँ बैठे लोगों ने पूछा कि कौन है? तब पहले की तरह ही गर्वित मुस्कान के साथ संदीप बोला,” मेरी भाभी हैं।”
अब मालती अपने घर से ही बुटीक जाती है।कुछ समय बाद सावित्री जी का देहांत हो गया..संदीप का बेटा मुंबई में नौकरी करने लगा.. मालती की उम्र भी ढ़लने लगी तब संदीप ने नौकरी छोड़ दी और बुटीक संभालने लगा।
विभा गुप्ता
# भाभी स्वरचित, बैंगलुरु
सच है, भाभी कभी भी अपने देवर या ननद को दुखी नहीं देख सकती..वो अपनी ममता, स्नेह और त्याग से उनके चेहरों पर मुस्कुराहट ले ही आती है।मालती भी ऐसी ही भाभी थी जिसने अपने देवर-ननद को भाई की कमी महसूस नहीं होने दी..खुद कष्ट सहे लेकिन उनपर कोई आँच आने नहीं दिया।