Moral stories in hindi : वृद्धाआश्रम के एक समारोह में, जब जिलाधिकारी पहुँची तो स्वागत के लिये खड़े वृद्ध को देख वो चौंक गई। “चाचा जी,आप और यहाँ “पूछते ही वृद्ध के आँसू बहने लगे।”हाँ बेटा, अपने गुनाह की सजा काट रहा हूँ, कोख में लड़की सुन ही, उसे आने नहीं देता था फिर लाइन से तीन लड़के, मन खुशी से भर उठा।
मैंने कोख में लड़कियाँ नहीं आने दी, और लड़कों ने अपने घर में नहीं रहने दिया।अब उन अजन्मों के प्रति शायद मेरा यही प्रायश्चित हैं।”अभी आपकी ये बेटी हैं, सामान पैक करिये, अपने घर चलिये। नहीं बेटी अब यही मेरा घर हैं।बहुत कहने पर भी सतीश जी जाने को राजी नहीं हुये।
जाते भी कैसे जिन लड़कियों की अवहेलना करने से वो बाज नहीं आते थे, आज किस मुँह से जाते। जिन बेटों पर गर्व कर वो मित्र को सुनाते थे, समय ने उन्हें सही जवाब दे दिया। आज वही लड़कियाँ अपने माँ -बाप के गर्व का कारण हैं।
घर आ जिलाधिकारी बहुत अन्यमस्क थी। पिता ने पूछा तो सोना ने,सतीश चाचाजी के बारे में बता दिया।सुना तो था कि बेटे -बहू अच्छा व्यवहार नहीं करते थे.. पर वृद्धाआश्रम में पहुंचा देंगे ये सोचा ना था।दोनों बाप -बेटी के आगे अतीत चलचित्र की तरह घूमने लगा, जैसे कल की बात हो।
” बहुत -बहुत बधाई महेश बाबू,, अबकी भगवान ने सुन ली, आखिर चार लड़कियों के बाद भाग्य से बेटा आ ही गया।”महेश बाबू के मित्र सतीश जी बोले। सामने ही महेश बाबू की दूसरी कन्या चाय और लड्डू की ट्रे ले खड़ी थी ।मूक ऑंखें मानों पूछ रही, क्या हम भाग्य से नहीं आये, या बेटी होकर जन्म लेना अपराध हैं।
बधाई स्वीकारते, कोने में सर झुकाये बड़ी लड़की को देखते महेश बाबू बोले -अरे तो हमारी लड़कियाँ कौन से कम भाग्य से आई, चार -चार लक्ष्मीयाँ हैं, उनके होते हमें क्या कमी।
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“सब कहने की बात हैं, जब शादी के लिये चप्पल घिसेंगे तब पता चलेगा,”सतीश जी व्यंग से बोले।”चप्पल क्यों घिसऊंगा, हमारी लक्ष्मीयों को मांगने, लड़के वाले खुद आयेंगे, लड़कियाँ अपना भाग्य खुद ले कर आती हैं “महेश बाबू बोले।
सतीश जी लड्डू खा, चाय पीकर व्यंग से हँसते चले गये, उनके तो तीन बेटे हैं, बुढ़ापे में राज करेंगे, लड़कियाँ तो अपने घर -बार की हो जाती हैं, पूछूंगा बुढ़ापे में महेश बाबू से, बड़ा लक्ष्मी -लक्ष्मी कर रहे थे। बुढ़ापे में लड़कियों के ससुराल वाले थोड़ी ना ले जायेंगे रहने के लिये।वृद्धाआश्रम में ही रहना पड़ेगा।
महेश बाबू के बेटे का नाम, बड़ी बेटी ने सक्षम रखा। समय बीता, सक्षम भी स्कूल जाने लगा। महेश बाबू लड़का -लड़की में भेद नहीं करते थे, अलबत्ता पत्नी और उनकी माँ, सक्षम को जरूर ज्यादा लाड़ करती थी, उनका इहलोक और परलोक जो सुधारने आया हैं। लाड़ -प्यार की वजह से सक्षम अब असक्षम होता जा रहा था।
महेश बाबू पत्नी और माँ को समझाते पर बेटे और पोते का मोह दोनों छोड़ नहीं पाती। पत्नी बेटे के साथ ही समय व्यतीत करती, लिहाजा घर के काम बेटियों को सँभालने पड़ते। बड़ी सोना, अपने नाम के अनुरूप ही सोना थी, घर के साथ अपनी तीनों बहनों मोना, मिन्नी और मनका की देखभाल वही करती थी।
महेश बाबू की आय इतनी नहीं थी कि पांच बच्चों की पढ़ाई का बोझ उठा सके, वे ओवर टाइम करने लगे, ज्यादा मेहनत से उनका स्वास्थ्य खराब होने लगा, तब उनकी बड़ी बेटी ने पिता से लड़ -झगड़ कर उनका ओवर टाइम करना छुड़वा दिया।
खुद शाम को ट्यूशन पढ़ाने लगी, उसका पढ़ाने का ढंग इतना अच्छा था, उसे दो बैच में पढ़ाना पड़ता। उसके बाद देर रात तक वो स्वयं पढ़ती। मेहनत तो रंग लाती हैं, सोना की मेहनत रंग लाई, सिविल सर्विसेज की परीक्षा का परिणाम जिस दिन आया, महेश बाबू के घर बधाई देने वालों का ताँता लग गया।
फिर बधाई ने महेश बाबू का घर नहीं छोड़ा, एक के बाद एक बधाई का सिलसिला जारी रहा, बाकी तीनों ने भी सोना की सहायता और अपनी मेहनत से डॉ., इंजीनियर, बैंक ऑफिसर बन गई, कोई कुछ नहीं बन पाया तो वो सक्षम था। महेश बाबू ने कहा था ना, कि लड़कियाँ अपना भाग्य ले कर आती।
सभी लड़कियों के लिये खुद ही रिश्ते आये, महेश बाबू को चप्पल घिसने की नौबत नहीं आई। सबका विवाह हो गया। कुछ समय बाद सक्षम को समझ में आया मेहनत करने से ही मंजिल और इज्जत मिलती हैं, बेटा होने से नहीं। सोना ने उसको रेस्टोरेंट खुलवा दिया। सक्षम ने अपनी मेहनत से रेस्टोरेंट के पूरे शहर में तीन -चार आउटलेट खुलवा दिया।
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दूसरे दिन महेश बाबू सोना के साथ वृद्धाआश्रम गये, सतीश जी देखते ही गले लग गये। दोनों मित्र बहुत देर तक बातें करते रहे, महेश बाबू ने बताया, जब से उनकी पत्नी की तबियत खराब हुई हैं, सोना उन्हें अपने साथ ले गई। दामाद बाबू और उनके घरवालों ने भी सोना का समर्थन किया।
सोना के घर में दामाद बाबू के माँ -बाप के साथ, सोना के माँ -बाप भी रहते हैं।चलते समय सोना ने साथ चलने की बहुत जिद की। सतीश जी बोले मै मिलने आता रहूँगा। महेश बाबू से बोले -मित्र, सच हैं लड़कियाँ बड़े भाग्य से आती हैं और अपना भाग्य खुद लेकर आती।
मै अहंकार में बेटों को वो शिक्षा नहीं दे पाया जो देना चाहिये था। उनकी गलतियों को, लड़के होते ही ऐसे, सोच पर्दा डालता रहा।बिना बेटी के घर ही नहीं, जग सूना हैं।
—संगीता त्रिपाठी
गाजियाबाद