मेरा लल्ला सिर्फ मेरा है – श्वेता अग्रवाल   : Moral Stories in Hindi

मीतू हॉस्पिटल के बेड पर लेटी अपने बच्चे के गोद में आने का इंतजार कर रही थी।आज अचानक ही ऑफिस में उसके पेट में तेज दर्द उठने के कारण

उसकी प्रीमेच्योर डिलीवरी करानी पड़ी थी। कमजोर होने के कारण बच्चा डॉक्टरों की निगरानी में था जिसे वह दूर से निहार तो सकती थी लेकिन गोद में ले दुलार नहीं सकती थी।

आज पूरे हफ्ते भर बाद उसका बच्चा उसकी गोद में आया था। अभी वह उसे सीने से लगा भी नहीं पाई थी कि उसकी ननंद रूपल हँसते हुए कमरे में आई “अल्ले, लल्ला मामी की गोद में खेल रहा है।”

फिर मीतू की ओर मुखातिब होकर बोली “भाभी, यह मेरी अमानत है आपके पास।जरा अच्छे से ध्यान रखना मेरे लल्ला का।”

यह सुनकर मीतू बुरी तरह चौंक गई। उसने सवालिया निगाहों से अपने पति मयंक की ओर देखा तो उसने माँ की ओर इशारा करते हुए कहा “माँ ने लल्ला को रूपल को देने का फैसला किया है ताकि उसका परिवार पूरा हो जाए। फिर अपने पास तो कृष्णा है ही।”

यह सुनते ही मीतू सकते में आ गई। उसे ऐसा लगा मानो किसी ने उसकी देह से उसका सारा खून ही चूस लिया हो।

उसने लल्ला को अपने सीने से कसकर चिपका लिया और शांत लेकिन दृढ़ स्वर में अपनी सासू माँ से बोली “माँजी, आपने ऐसा फैसला कैसे ले लिया? इतना बड़ा फैसला लेने से पहले आपने मुझसे पूछना भी जरूरी नहीं समझा?”

“अरे! इसमें पूछने वाली क्या बात है। किसी गैर को थोड़ी ना तेरी ननद को ही तो देने बोल रही हूँ।दो-दो छोरियाँ है इसकी।लल्ला को इसकी गोद में दे देने से इसका भी परिवार पूरा हो जाएगा। वंश बढ़ जाएगा इसका। एक ही बात है लल्ला इस घर में पले या उस घर में क्या फर्क पड़ जाएगा?”

“आप सबको फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन मुझे पड़ेगा।यह कोई साड़ी,गहने या कृष्णा के खिलौने नहीं है जो जब रूपल या उसकी बेटियों का मन करें, मैं उन्हें उठा कर दे दूँ।यह अंश है मेरा।आखिर मैं माँ हूँ इसकी।ऐसे कैसे अपने कलेजे के टुकड़े को रूपल को सौंप दूँ?”

“बड़ी आई माँ बनने वाली।माँ का मतलब भी मालूम है।दुधमुँहे बच्चे को घर में छोड़कर बाहर तफरी करने से कोई माँ नहीं बन जाता। यह तो मैं थी तो पल गया तेरा कृष्णा। माँ क्या ऐसी होती है?”सासू माँ ने मीतू पर तंज कसा।

“बस माँ, बहुत हो गया।मैं बाहर तफरी करने नहीं ऑफिस में खटने जाती हूँ। हाँ, होती हैं कुछ माएँ ऐसी भी जिन्हें ना चाहते हुए भी अपने कलेजे पर पत्थर रख अपने बच्चों को रोता-बिलखता छोड़ बाहर काम पर जाना पड़ता है ताकि आप सबकी अपेक्षाएँ,आप सबकी डिमांड्स पूरी हो सके।”

“बस करिए भाभी,अपनी महत्वाकांक्षाओं का ठीकरा हमारे सिर पर मत फोड़िए।”रूपल ने चिल्लाते हुए कहा।

“रूपल शांत हो जाओ।चिल्लाने की कोई जरूरत नहीं।मैं कोई ठीकरा नहीं हो फोड़ रही।सच्चाई बता रही हूँ। मैं तो कृष्णा के जन्मते ही नौकरी छोड़ रही थी ताकि कृष्णा के साथ उसका बचपन जी सकूँ।अपने मातृत्व को इंजॉय कर सकूँ। लेकिन तुम सबने मुझे मेरी नौकरी नहीं छोड़ने दी।

आज तुम सब जो ये ऐशो-आराम की जिंदगी जी रहे हो वह मेरी नौकरी की बदौलत ही है। मैं आजतक चाहकर भी कभी बैठकर अपने कृष्णा को प्यार से दो निवाले नहीं खिला पाई।उसके साथ खेल नहीं पाई। उसके आँसू ना पोंछ पाई क्योंकि मेरे हाथ तो सब्जियों के थैले,

ऑफिस की फाइलों, चाय-कॉफी की ट्रे, रसोई के बर्तनों और तुम सबकी अपेक्षाओं से बंधे पड़े थे। अरे! मैं तो आई तबसे ही तुम सबकी अपेक्षाओं की भेंट ही चढ़ते जा रही हूँ। मैंने तुम सब पर बहुत विश्वास किया। लेकिन बस,अब बहुत हो चुका।

मेरा लल्ला तुम सबकी अपेक्षाओं की भेंट नहीं चढ़ेगा।मैं इसे तुम्हें नहीं दूँगी।मैं ऐसी, वैसी, अच्छी, बुरी जैसी भी हूँ, माँ हूँ और यह माँ अपने दोनों बच्चों कृष्णा और लल्ला के साथ जा रही हैं अपने मातृत्व की नई दुनिया बसाने।”

ऐसा कहकर वह अपने दोनों बच्चों के साथ जाने लगी। तभी उसकी सासू माँ ने अपने बेटे से फुसफुसाते हुए कहा “रोक ले इसे।अभी तो मकान और गाड़ी की किस्त भी चुकानी है। यह चली जाएगी तो कैसे होगा?”

यह सुनकर मीतू हँसते हुए बोली “माँजी,अब कोई फायदा नहीं। “रिश्तो के बीच विश्वास का पतला धागा होता है”

जो आप सबकी करतूतों से चूर-चूर हो चुका है। आप सब की असलियत मेरे सामने आ चुकी है। ऐसा कहकर उन सबकी अपेक्षाओं के जाल को काटकर वह अपने बच्चों के साथ उड़ चली अपने नए आसमां की ओर।

धन्यवाद

श्वेता अग्रवाल

#रिश्तोके बीच विश्वास का एक पतला धागा होता है

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!