मेरा क्या कसूर था। – रश्मि पियुष : Moral Stories in Hindi

मेरी दादी को गुजरे तीस साल हो गए । तब मैं कॉलेज में पढ़ती थी। वैसे तो दादी बहुत ही सुन्दर और सीधी सादी थी। सबके साथ बहुत ही अच्छा व्यवहार था उनका । पूरे मोहल्ले भर की फेवरेट थीं वो। पर जैसे ही दादाजी का जिक्र होता, उनका पारा सातवें आसमान पर होता ।

चिढ़ जाती वो। उनके बारे में कोई बात ही नहीं करना चाहतीं। मोहल्ले के सारे बच्चे शाम होते ही दादी को घेर कर बैठ जाते और दादी तरह तरह की कहानियाँ सुनाया करतीं बच्चे फरमाइश करते और वो हंस हंस कर उन्हें पूरा करती रहतीं ।हम लड़कियाँ तो जैसे उन्हें अपना खिलौना ही समझतीं।

कोई उनके केश संवारती, तो कोई नेल पॉलिश लगाती।कभी हम सब किसी के घर से मेहंदी की पत्तियां तोड़ लाते और दादी से सिल बट्टे पर पिसवाते। दादी ने हमारी बातों का कभी बुरा नहीं माना। दादाजी भी हमारे साथ ही रहते थे पर हमने कभी भी दादी को उनसे बात करते नहीं देखा।

जब कभी हम पूछते, तो वो टाल जातीं। जबभी दादाजी उनसे कुछ कहते वो चिढ़ कर जवाब देतीं । मैं जब दसवीं में पढ़ती थी तभी दादाजी का देहांत हो गया था। तब भी दादी की आँखों में मैंने आँसू नहीं देखे | थोड़ा बहुत तो अपनी माँ से हमने सुन रखा था।

पर पूरी बात दादी के मुँह से ही सुनना चाहते थे। और एक दिन मैंने भी जिद ठान ली आज तो मैं उनसे सारी बातें जान कर रहूँगी। गर्मी की छुट्टियां चल रही थीं । दोपहर के भोजन के बाद जब घर के सारे लोग सो गए तो मैं दादी के कमरे में चली गई। उनके बगल में लेटकर मैंने कहा, “दादी, रोज आप हमें तरह तरह के किस्से सुनाती हैं। पर आज

मुझे आपकी कहानी सुननी है । आपकी और दादाजी की। बताओ न दादी प्लीज़।” आज दादी ने भी मेरी बात नहीं टाली। वे उठ कर बैठ गईं और मेरा सिर अपनी गोद में लेकर उन्होंने बात शुरू की। “मनु बेटा आज मैं तुम्हें सारी बात बताऊंगी | ध्यान से सुनना और बताना कि मेरा कसूर क्या था?

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तीन बहनें थी हम और एक भाई।पिताजी दारोगा थे। आठ साल की थी मैं जब हमारी माता जी चल बसीं। हम चारों भाई बहनों को देखने वाला कोई नही था। दूर की चाची ताई ने पिताजी को दूसरा व्याह करने के लिए खूब मनाया लेकिन वे नहीं माने। अपने बच्चों को वे सौतेली माँ के हाथों नही सौंपना चाहते थे।

जब वे सुबह अपने काम पर जाते तो उनके पीछे तीन भाई बहनों की जिम्मेदारी मेरे ऊपर होती। मैं सबसे बड़ी थी । कम उम्र में ही मैंने अपने पिता की गृहस्थी सम्हाल ली थी। फिर एक दिन मैंने पिताजी को अपने एक मित्र से बातें करते सुना । वे कह रहे थे कि कोई अच्छा घर वर देखकर इस साल शशि का ब्याह कर ही दूँगा ,

फिर और भी दो कन्या है । जितनी जल्दी अपना बोझ हल्का कर लूँ, अच्छा है। तब मैं ब्याह का मतलब सिर्फ गुड्डे गुड़ियों का खेल समझती थी। हाँ, रिश्ते की एक दीदी को देखा था दुल्हन के रूप में, सर से पांव तक गहनों से लदी हुई। तब मुझे लगा था कि ब्याह करने में बहुत फायदा है । खूब सारे नए नए कपड़े और गहने मिलेंगे ।

और फिर एक दिन रिश्ते की कुछ चाची और भाभियों ने मिलकर मुझे उबटन लगाया और देवताओं के गीत गाने लगीं। फिर तो ये सिलसिला चार-पांच दिनों तक चलता रहा।उसके बाद एक दिन उन्होंने मुझे अच्छे से नहला धुला कर पीले रंग की साड़ी पहना दी। तब ऐसे ही एक पीली धोती पहनाकर मंडप में बैठा दिया जाता था।

श्रृंगार के नाम पर आँखों में खूब मोटी काजल ।बारात आने का शोर उठा । सब लोग दूल्हे को देखने भागे। लेकिन मुझे उससे क्या लेना देना, मैं तो कमरे में रखे अपने दहेज़ के सामान को देखने में मग्न थी।बड़े बड़े बक्सों में कपड़े, गहने । फिर मुझे ले जाकर बैठा दिया गया। मुझे बहुत मजा आ रहा था ये सब देखकर ।

लंबी सी घूँघट के अंदर से ही मैं सारी बातें सुन और समझ रही थी। पर मुझे नींद भी आ रही थी, फिर कब सुबह हुई पता ही नहीं चला ।सबने मुझे अच्छे से तैयार किया ।नई लाल साड़ी और गहनों से लाद दिया गया। ये सब मेरी ससुराल की तरफ से आया था। बारातियों ने खूब छक कर भोजन किया।

पूरी, कचौरी, छः-सात तरह की मिठाइयां। फिर उन लोगों को दांत साफ करने के लिए सोने का खरका टूथपिकदिया गया जिसे बारातियों ने इस्तेमाल के बाद फेंक दिया। बाद में इस बात को लेकर खूब हंगामा हुआ।खैर, अब विदाई का वक्त आ चुका था।

पिताजी और छोटे भाई बहन खूब रोये ।दुःख तो मुझे भी हो रहा था उन्हें छोड़कर जाने का, पर अंदर ही अंदर खुश भी बहुत हो रही थी। नया घर, नए लोग, खूब सारे गहने कपड़े।” दादी का किस्सा अधूरा ही रह गया क्योंकि मेरी सहेली माला ढेर सारे फटे पुराने कपड़े और सुई धागा लेकर दादी से कपड़े की गुड़िया बनवाने आ गई।

दादी किसी की भी बात तुरंत मान लेती थीं। वो गुड़िया के हाथ पैर मुँह बनाती रही और हम दोनों बड़े गौर से देखते हुए खुश होते रहे। एक घंटे की मेहनत के बाद गुड़िया बन कर तैयार हो गई । काले धागे से उसकी लंबी चोटी बनाई गई,फिर एक रंगीन चमकदार कपड़े की साड़ी पहनाकर उसे दुल्हन की तरह सजाया गया।

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माला ने कहा,”दादी ये तो बिलकुल आपके जैसी बन गई”, इस बात पर दादी खूब खिलखिलाकर हंस पड़ी। फिर माला अपने घर से पकौड़े और टमाटर के सॉस लेकर आ गई। दादी ने कहा, ये किस चीज की चटनी है, जब माला ने उसे टमाटर की सास बताया तो उन्होंने अपना सर पकड़ लिया और माला की माँ से कहने लगी, बताओ तो दुल्हिन, टमाटर की भी कहीं सास होती है, और ये कहकर खुद ही हंस पड़ी। तभी माँ ने आवाज लगाई कि कुछ पढ़ाई लिखाई भी कर ले, सारा दिन दादी को परेशान किये रहती है। तब जाकर हमारी बैठक ख़त्म हुई।

दादी की कहानी अधूरी थी । अतः दूसरे दिन फिर मैंने उन्हें पकड़ा । आज तो दादी भी पहले से तैयार बैठी थीं। ऐसा लग रहा था कि वे जल्दी से जल्दी अपनी सारी बात बता देना चाहती हैं। उन्होंने फिर कहना शुरू किया, ” हाँ तोबिट्टी जब मैं ससुराल आई तो मेरा खूब स्वागत किया गया ।बारह वर्ष की उम्र में दुल्हन बनना, मुझे बहुत अच्छा लग रहा था । चार पांच दिनों के बाद पग फेरे के लिए मैं फिर मायके आ गई। मैंने अभी तक तुम्हारे दादा जी को देखा नही था। कुछ ही दिनों में ससुर जी ने कहार भेज दिए,

मुझे लिवाने के लिए। मैं फिर ससुराल आ गई। मगर इस बार वो पहले जैसी बात नही रही। एक दो दिन के बाद ही सास ने कहा, “कब तक आराम करोगी दुल्हन मैंने तो सुना था कि काम काज में खूब होशियारहो। अब तुम्हें ही घर बार सम्हालने होंगे ।”बस दूसरे दिन से ही मैं काम में लग गई। सुबह से ही उठकर चूल्हा लीपती चक्की में गेहूं पिसतीफिर उसी आटे से रोटियां बनाती। ससुर जी को ताजे पीसे आटेकी रोटियां ही पसंद थी। फिर सास और देवर, ननद को भोजन देती ।

उसके बाद तुम्हारे दादाजी की बारी आती । धीरे धीरे इस भेद भाव का कारण मुझे समझ में आने लगा था । तुम्हारे दादाजी की अम्माँ सौतेली थी ।जब तक उनके बाबूजी घर में रहते तब तक अम्माँ का व्यवहार ठीक रहता पर जैसे ही वे चौपाल की तरफ निकलते बस उनके मिज़ाज बदल जाते । कभी कभी तो दोनों माँ बेटे में

खूब झगड़ा होता। और दोनों का सारा गुस्सा मुझपर निकलता। मैं चुपचाप मूक दर्शक बनी रहती।अब वो मुझसे अकेले में खूब बातें करते और अपनी सौतेली माँ के जुल्म के बारे में बताते।इसी तरह दिन बीतते रहे बीस साल की उम्र तक मैंने पांचबच्चों को जन्म दिया।लेकिन उनमें से तीन बच्चे जन्म के तुरंत बाद ही दुनिया से चले गए।

बच गए सिर्फ दो बेटे बड़ा बेटा राजदेव और छोटा प्रेमदेव, तुम्हारा पापा । दोनों बेटे अभी बहुत छोटे थे। समय का चक्र चलता रहा। एक दिन सुबह सुबह घर में कोहराम मच गया । ससुर जी का अचानक देहांत हो गया, हृदयाघात से। कुछ दिन तो रोने धोने में ही बीत गए। पर उनके जाने के बाद अब घर में कलह और भी बढ़ गई। आए दिन मां बेटे में बहस होती । अब तो खाने पीने की भी खींच तान होने लगी।मुझे अपने पिताजी पर गुस्सा आता खुद दूसरी शादी नहीं की ताकि बच्चों पर सौतेली मां की छाया न पड़े।

फिर मेरी शादी ऐसे घर में क्यों की? शायद इसलिए कि हम उनपर बोझ थे। खैर दिन बीतते रहे। अभी ससुर जी को गए कुछ ही दिन हुए थे ।एक दिन सबेरे सोकर उठी तो देखा कि बाहर का किवाड़ खुला पड़ा है और तुम्हारे दादाजी घर में नहीं हैं। मैंने सोचा खेतों की तरफ गए होंगे । परन्तु इंतजार करते करते सारा दिन बीत गया, उन्हें लौटकर नहीं आना था सो नहीं आए। झगड़ा सौतेली मां से था परन्तु सजा पत्नी और बेटों को मिली। एक दिन बीता, फिर हफ्ता, फिर महीना लेकिन वे ना आए।

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छोटे देवर जी पूरे गांव में ढूंढ आए । फिर पिताजी को पता चला । उन्होंने भी अपने तरीके से बहुत खोज बीन की । लेकिन जाने वाले का कोई पता नहीं चला। थक कर पिताजी भी वापस चले गए । कब तक मेरी चिंता करते ।इधर अम्मा हर रोज मुझे कोसती कि मेरे ही कारण ये घर से भाग गए।

मैं रो रो कर अपना दिन गुजार रही थी।खाने को बचा खुचा बासी खाना मिल जाता उसी को अपने बच्चों को खिलाती, बच जाता तो खुद खाती, नहीं तो पानी पीकर रह जाती। बड़ा बेटा शांत था परन्तु छोटा बहुत ही शरारती था। बड़ा घर में पढ़ाई कर रहा होता और छोटा कभी आम के बागीचे में दोस्तों के साथ आम तोड़ रहा होता तो कभी दूसरों के खेत में घुसकर भुट्टे या मटर की फलिया खा रहा होता ।

आए दिन कोई न कोई शिकायत लेकर घर आ जाता । अम्मा उसे मारने दौड़ती तो उन्हें ही मुंह चिढ़ा कर भाग जाता। मैं अकेली बहुत परेशान होती और सोचती कि आखिर मेरा कसूर क्या था। क्यों मिली मुझे इतनी बड़ी सजा? सौतेली मां के कोप से बचकर ये घर से भाग गए, परन्तु एक बार भी मेरे और बच्चों के बारे में नहीं सोचा ? बड़ा राज देव पढ़ने में होशियार था सो स्कूल के मास्टर जी उसे पढ़ने के लिए अपने साथ ले जाते। छोटा भी किसी तरह मैट्रिक तक पढ़ गया पर उसके आगे पढ़ना उसके बस की बात नहीं थी।

अब वो शहर जाकर छोटी मोटी नौकरी करने लगा और जो भी कमाता उन पैसों से बड़े भाई की कॉलेज की फीस भरता। कुछ पैसे मुझे भी भेजता। अब दिन अच्छे से कट रहे थे। बड़े बेटे की शादी के लिए रिश्ते आने लगे। एक सीधी और सरल लड़की को मैं बहू बनाकर घर ले आयी। छोटे देवर जी भी शहर में नौकरी करने लगे । उनकी भी शादी हो गई । अब अम्मा उन्हीं के साथ शहर में रहने लगीं। तुम्हारे पापा की शादी के बाद मैं निश्चिंत हो गई। मेरे दोनों बच्चों का बचपन बहुत ही कष्टपूर्ण बीता ।

परन्तु अब वे दोनों अपने पैरों पर खड़े हो चुके थे और अपनी जिंदगी सुखपूर्वक गुजार रहे थे। पूरे बाईस साल तक मैंने अपनी जिंदगी कष्ट में गुजारी। अब मेरे बेटे मुझे सुखी देखना चाहते थे। छोटे की शादी के कुछ दिन ही हुए थे कि अचानक किसी ने एक दिन उसे कहा कि ” तुम्हारे बाबूजी को किऊल स्टेशन पर देखा गया है। वे बहुत बीमार हैं। स्टेशन पर ही एक कोने में पड़े रहते हैं। किसी ने कुछ दे दिया तो खा लिया नहीं तो चुपचाप सोए रहते हैं। मैंने उन्हें घर चलने को कहा तो मना कर दिया।

अब तो तुम्हें ही कुछ करना होगा, नहीं तो वे बचेंगे नहीं।” संदेश देने वाले व्यक्ति हमारे करीबी रिश्तेदार थे।इसलिए उनकी बात सुनते ही उसी समय प्रेमदेव घर से निकल गया, अपने बाबूजी को घर वापस लाने के लिए। वे सच में बहुत बीमार थे ।जब घर वापस आए तो उनका काफी इलाज कराया गया। मैं ने भी उनकी सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी।धीरे धीरे वे पूरी तरह स्वस्थ हो गए। मगर बिटिया सच कहूं तो मेरे मन में उनके प्रति थोड़ी भी दया नहीं थी।

मैंने पूरे बाईस साल जिस तकलीफ को झेला, वो दिन मैं कभी नहीं भुला सकती। चाह कर भी मैं इन्हें माफ़ नहीं कर पाई। अभी भी इन्हें मुझको छोड़कर भाग जाने का कोई अफ़सोस नहीं था। वे खुश होते कि मैंने अपना कोई कर्त्तव्य पूरा नहीं किया फिर भी मेरे दोनों बेटे कितने सुखी हैं। एक बार भी उन्होंने मुझसे नहीं पूछा कि तुमने किस तरह बच्चों को पाला? छाती ठोक कर कहते, देखो मेरे बेटे हैं दोनों | और उनकी बातों से मुझे चिढ़ होती । बाप का कौन सा कर्त्तव्य निभाया आपने ?

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सारी जवानी बीवी बच्चों को मरने के लिए छोड़ दिया। और अब कहते हैं, मेरे बेटे हैं। दोनों बेटों ने उन्हें माफ़ कर दिया। बहुएं भी खूब खातिरदारी करतीं पर बिटिया मैंने आज तक उन्हें माफ नहीं किया। अब ये तो भगवान के घर चले गए, शायद मैं भी वहीं जाकर उन्हें माफ कर पाऊं। मगर वो बाईस साल तो फिर लौटकर नहीं आ सकते ना ? तू ही बता बिट्टो, मेरा क्या कसूर था?” इतना कह दादी तो चुप हो गई, लेकिन मेरे मन में आज भी उनका ये सवाल घुमड़ रहा है। आप ही बताएं कि मेरी दादी का कसूर क्या था? यही न कि वह एक औरत थीं।

लेखिका : रश्मि पियुष (लेखिका उमा वर्मा जी की दिवंगत बेटी)

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