Moral stories in hindi : “सलोनी जल्दी उठ जाओ और जाकर चाय बनाओ…!”अलसाते हुए सलोनी की आंखें खुलीं।
वह उठकर ब्रश कर चाय बनाने के लिए चल पड़ी।
उसने अपने मम्मी पापा और खुद के लिए चाय बनाया था ।जैसे चाय खत्म हुआ, उसकी मां अनीता जी ने कहा
“सलोनी, जल्दी से जाओ और नाश्ता बना लो!”
” जी मां, यह कहकर वह रसोई में चली गई फिर वह अपने माता-पिता और अपने दोनों भाइयों के लिए जल्दी से पराठे और गरम-गरम आलू की भुजिया बनाने लगी ।
” सलोनी… यह, सलोनी…वह…!!” सलोनी का सारा दिन इसी में बितता था।
जब भी सलोनी चिढ़कर जवाब दिया करती
“मां आपने तो मुझे घर की नौकरानी बना लिया।”
” क्यों तुझे ससुराल नहीं जाना क्या?”
” ससुराल जाना है तो क्या हुआ मां?”
” काम धाम नहीं सीखोगी तो वहां तुम्हें बैठाकर कौन खिलाएगा। काम धाम सीखना ही होगा।
घर के सारे काम धाम सीख लो, यही काम आएंगे।”
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सलोनी चिढ़कर बोलती
“मां और जो वह मैं पढ़ाई कर रही हूं वह कोई काम नहीं आयगा क्या?”
“नहीं उसका कोई काम नहीं है! वह सब सिर्फ डिग्री के लिए होता है। तुम्हें घर के कामकाज सीखने चाहिए।नौकरी चाकरी के सपने छोड़ दे बेटी, यह सब अपने घर में जाकर करना।”
“यह मेरा घर नहीं है!”
“नहीं यह तेरा घर नहीं है।यहां तुम्हें नहीं रहना।तेरा असली घर तेरा ससुराल है।वहां तेरा अपना अधिकार होगा।
वहां तेरी घर गृहस्थी रहेगी बेटी।”
सलोनी निरुत्तर हो जाती।वह धीरे धीरे सारे काम सीखते चली गई।
आलम यह हुआ कि वह बीस साल में एक बहुत ही समझदार युवती बन गई।
दिखने में सुंदर, पढ़ी लिखी, घर के कामकाज में दक्ष युवती के लिए लड़का मिलना कोई कठिन काम नहीं था।
इतने सालों में उसने अपने सपनों का खून करना भी सीख लिया था।
सलोनी की शादी हो गई और विदा कर ससुराल आ गई।
सलोनी का पति विकास अपने माता-पिता के साथ ही रहता था।
ससुराल में रहने के कारण सलोनी को दिन भर काम में ही उलझे रहना पड़ता था।
वह संयुक्त परिवार में रहती थी तो काफी ज्यादा मर्यादा का पालन भी करना पड़ता था।
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धीरे-धीरे वह और संकुचित होती चली गई। आगे की पढ़ाई और अच्छी नौकरी सब सपने धरे के धरे रह गए।
अपने घर गृहस्थी की जंजीरों में उलझी सलोनी अपने आप को भी भूल गई थी कि वह भी एक जीती जागती इंसान थी और उसके भी कुछ सपने थे।
“सलोनी, वीना दीदी और जीजाजी अपने परिवार के साथ आ रहे हैं।चलो जल्दी से खाना बना दो।”
एक दिन सलोनी का पति विकास ने बुखार में तपती सलोनी से कहा।
“पर विकास, मैं तो उठ भी नहीं पा रही…आप तो जानते हैं न..बुखार से बदन हाथ टूट रहा है।”
“अरे बुखार ही तो है.. अगर तुम नहीं खाना बनाओगी तो बनाएगा कौन…?”
“पर..जी…,मैं नहीं बना सकूंगी…आप मांजी को बोल दीजिए ना…!” बुखार में तड़पते हुए सलोनी बोली।
” क्या बात कर रही हो तुम…!तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यह बोलने की।
देखो सलोनी तुम्हारे रहते हुए मां खाना बनाएगी?
तुम अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जा रही हो…अपने दायरे में रहो!
तुम इस घर की बहू हो… बहू ही बनकर रहना… मालिक बनने की जरूरत नहीं है !
वह गुस्से में कांपते हुए बोला
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“अगर घर में मेहमान आ रहे हैं तो यह तुम्हारा फर्ज है उनकी खातिरदारी करना …!
यह तुम्हारा यह तुम्हारी ड्यूटी है…!”
एक हफ्ते से बुखार की तपिश से पीड़ित सलोनी अपने पति की बात सुन कर भयभीत हो गई।
“ड्यूटी…!,अधिकार…!!”सलोनी बुदबुदा उठी…।
कहीं बेटी होने के नाते अधिकार नहीं और कहीं बहू… होने के नाते…!
मेरा अधिकार कहाँ है…?सबके अपने अपने अधिकारक्षेत्र… हैं…पर मैं सिर्फ कर्तव्यों के लिए बनी हूँ…!”
“ठीक है विकास…मैं आ रही हूं…..!”अपने आँखों में आँसू भरकर वह दवा खाकर अपने कमरे से बाहर आई।
सासु मां अपने कमरे में बैठी टीवी देख रही थी।
कांपते पैरों को संभाल कर चलती हुई सलोनी रसोई में पहुंच तो गई यह सोचकर कि वह इस घर की बहू है …इसका मतलब क्या हुआ…!!
वीना दीदी ने भोजन के टेबल पर बैठ कर खाते हुए कहना शुरू किया
” अब नीति के लिए लड़का देखना शुरू कर दो।वह बारहवीं में आ गई है…।समय से घरबार मिल जाना चाहिए।”
गुस्से और बुखार में तपती सलोनी यह सुनते ही चीख उठी
“नहीं, किसी को मेरी बेटी के लिए चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है!”
“यह तुम क्या कह रही हो सलोनी?”विकास फिर गुर्राया।
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“हाँ यह मैं बोल रही हूं…जानती हूं कि यह मेरे अधिकारक्षेत्र से बाहर है, मैं मुँह खोल रही हूं कितना बड़ा जुर्म कर रही हूं…आखिर मैं इस घर की बहू हूँ…मुझे अपने दायरे में रहना चाहिए…
मगर मैं एक मां हूँ.. यह भी आप सबलोग अच्छी तरह जान लीजिये।”सलोनी हांफने लगी।
“हम क्या नीति के दुश्मन हैं बहू!”सासु मां ने कहा।
“मांजी, एक लड़की बहुत ही उम्मीद और हिम्मत से एक घर छोडकर बहू बनकर आती है।वहां भी उसे उसका दायरा और सीमा बताया जाए तो फिर वह कैसे जी पाएगी…वह तो घुटघुट कर जीने को मजबूर हो जाएगी न…!
आज जब मैं बुखार में तप रही थी तो भी भोजन और सत्कार की जिम्मेदारी मेरी ही है…बताइए…मुझे आराम का अधिकार नहीं है…!”
“नहीं, नहीं मैं अपनी बेटी को तिलतिल कर मरने नहीं दूंगी।उसे उसका अधिकार मिलेगा।और सबसे बड़ा अधिकार होगा उसे खुलकर जीने का अधिकार मिलेगा, खुली हवा में सांस लेने और हर सोच की छूट मिलेगी…!
यह मेरा अटल निर्णय है..!”
आज सलोनी को बोलते हुए देख कर सबलोग चुप थे।
प्रेषिका–सीमा प्रियदर्शिनी सहाय
साप्ताहिक विषय- #अधिकार