“देख विदिशा, इस बार राखी पर तुझे यहाँ आना ही पड़ेगा। भला ये भी कोई बात हुई…भाई की कलाई पर इकलौती बहन की राखी ना सजे।”
सुबह सुबह ही मम्मी का फोन आ गया था।
उधर वो गहन धर्मसंकट में पड़ी हुई थी। जब जब मम्मी फोन पर आने का आग्रह करतीं…मन तो मायके की खुशबू से भर जाता… वो मम्मी पापा का लाड़ दुलार… भाई भाभी का स्नेह…भतीजी अनन्या का उसके आगे पीछे दौड़ना…. सब आँखों के आगे घूमने लगता पर यहाँ मम्मी जी की इतनी खराब तबीयत उसे उसके कर्तव्य के प्रति सचेत कर रही थी। किसके ऊपर उन्हें छोड़ दे…सरला बाई की तबीयत भी बहुत ठीक नही है… मन के अंतर्द्वंद्व में आखिर कर्तव्यबोध की विजय हुई ।
कुछ निर्णय करके उसने फ़ोन उठा लिया,”मम्मी, इस बार मैं नही आ पा रही हूँ। कल ही कुरियर लगवा देती हूँ….अनन्या का गिफ्ट भी भेज रही हूँ।”
“अरे बटी, ये भी कोई बात हुई। ये कोरियर से राखी भेज कर भला भाई बहन का रिश्ता निभ सकता है… नही नही… मैं कुछ नही सुन सकती। तुझे तो आना ही पड़ेगा।”
“मम्मी, हर समय तुम्हारा ये हाई वोल्टेज़ ड्रामा अच्छा नही लगता। मैं अपनी बीमार मम्मी जी को छोड़ कर नही आ सकती।”
“दो दिन अमितजी छुट्टी नही ले सकते अपनी माँ के लिए। तू बस किसी तरह आ जा। मैं भी तेरी माँ हूँ…तुझसे मिलने को तड़प रही हूँ।”
“मम्मी, जरा सोचो। थोड़ा मीरा भाभी के लिए भी सोच लिया करो। क्या वो किसी की बेटी नहीं हैं….क्या उनका मन भी अपने मायके जाने का नही करता होगा… क्या उनके मम्मी पापा उनके लिए नहीं तड़पते होंगे। नहीं वो तो तुम्हारी निगाह में मोम की गुड़िया हैं। इस बार रक्षाबंधन पर भाभी को उनके मायके जाने दो और मुझे यहाँ मम्मी जी की सेवा के लिए रहने दो।”
वो हक्की बक्की अपनी बेटी की बातें सुन रही थीं। सच उन्होंने इस दृष्टिकोण से तो कभी सोचा ही नही था। आज वो अपनी निगाहों में ही स्वयं को बहुत बौना महसूस कर रही थीं….बेटी और बहू दोनों ही कितनी समझदार हैं। उन्होनें गदगद् कण्ठ से आवाज लगाई,”क्यों मीरा, तेरा मन रक्षाबंधन पर भाई भतीजे को राखी बाँधने के लिए नहीं तड़पता है?”
मीरा तो हैरानी से देख रही थी…ये सूरज आज पश्चिम में कैसे उग आया?
पर मम्मी जी के बार बार कहने पर विश्वास हुआ तो दौड़ कर अपनी माँ को खुशखबरी देने के लिए फोन घुमाने लगी।