मायके से उम्मीद रखने का हक – गीतू महाजन  : Moral Stories in Hindi

आज पूरे एक साल बाद मां बाबूजी के घर आकर राधिका को बहुत सुकून महसूस हो रहा था।घर की हर चीज़ को छू कर ऐसा लग रहा था जैसे मां ने उसे अपने आगोश में ले लिया हो। सुबह जब घर के सामने उसकी टैक्सी रुकी थी तो पल भर के लिए उसे ऐसा लगा जैसे मां अपनी बाहें फैलाए उसके लिए हमेशा की तरह खड़ी है और पास खड़े बाबूजी मुस्कुरा रहे हैं। घर की दीवारें भी जैसे उसे पूछ रही हों,” और..राधा बिटिया.. कैसी हो”? मां उसे प्यार से हमेशा राधा ही पुकारती।

 राधिका शहर के इज्ज़तदार व्यापारी रमाकांत जी की पुत्री थी। राधिका के दो भाई अभय और वैभव थे..दोनों भाइयों और माता-पिता की लाड़ली राधिका का विवाह अहमदाबाद में हुआ था। पति वीरेन का अच्छा व्यवसाय था.. एक ही बेटा था जो दो साल पहले अमेरिका पढ़ने गया था।

राधिका के दोनों भाई राजकोट में ही माता-पिता से अलग अपनी अपनी कोठियों में रहते थे। इस मामले में राधिका की मां सरोज जी की भी पूरी सहमति थी। उनके अनुसार अलग रहकर अगर सब का प्यार बना रहे तो क्या बुराई है। सच ही था.. सब आपस में बहुत प्यार से मिलते। सारे त्यौहार मां बाबूजी के घर पर ही मनाए जाते। राधिका जब भी मायके आती प्यार और विश्वास से भरपूर अपने मायके को देख फूली ना समाती..पर.. पिछले साल ही बाबूजी अचानक हृदयाघात से अपने बच्चों ं और सरोज जी को बिलखता हुआ छोड़ कर चले गए थे। सरोज जी भी यह सदमा बर्दाश्त ना कर सकी और पूरे एक महीने बाद वह भी अपने पति के पास चली गई। 

राधिका उसके बाद से मायके नहीं गई थी। हालांकि दोनों भाइयों और भाभियों ने उसे बहुत कहा आने को पर उसका मन ही नहीं मानता था। आज पूरे साल भर बाद जब रमाकांत जी की बरसी थी तो राधिका मायके आई थी। कोठी का पूरा रखरखाव रामदीन काका ही करते थे जो कि पिछले कई सालों से कोठी के पिछले हिस्से में अपने परिवार के साथ रहते थे। मां बाबूजी का घर आज राधिका को कितना अलग लगा था।भाई भाभी ने हालांकि उसे हाथों हाथ लिया और माता-पिता की कमी महसूस नहीं होने दी।

 अगले दिन पंडित जी द्वारा हवन करवाया गया। शहर के कुछ रिश्तेदार और कुछ जानकार भी उपस्थित थे। हवन के बाद भोज आदि से निपट कर सब आराम करने लगे। रात को जब सब इकट्ठे बैठे थे तो मां बाबूजी की बातें होती रही। तभी बड़े भाई अभय ने पूछा,” वैभव, तेरी डीलर से बात हो गई क्या”?

“हां भैया, उसने कहा है कि एक दो पार्टी तो तैयार है। आप बता दो तो कोठी दिखा देते हैं”।

 “कौन सी कोठी भैया”? राधिका ने उत्सुकता से पूछा।

” कुछ नहीं, बस हम बाबूजी की कोठी बेचने का सोच रहे हैं “,अभय ने जवाब दिया।

“क्यों, बेचना क्यों”? राधिका को लगा जैसे मां बाबूजी के जाने के बाद एक और प्यारी चीज़ उससे दूर होने जा रही थी।

“कोठी को रख कर भी क्या करेंगे? यहां अब महीनों तक आना नहीं हो पाता…अकेले रामदीन के सहारे तो छोड़ा नहीं जा सकता ना और फिर ऐसे पड़े पड़े तो कोठी खंडहर ही हो जाएगी। इसलिए हम दोनों ने सोचा है इसे बेचने का। वैसे भी बाबूजी कोई वसीयत तो छोड़ नहीं गए हैं तो हम दोनों को ही सारे फैसले लेने हैं “।

भाई की बात सुन राधिका का मन कसैला हो गया.. तो क्या हुआ अगर बाबूजी कोई वसीयत नहीं छोड़ गए पर भाई का यह कहना कि हम दोनों को ही सारे फैसले लेने हैं कहीं ना कहीं उसे आहत कर गया था। क्या वह बाबूजी की संतान नहीं तो फिर उससे राय क्यों नहीं ली गई और अगर राय लेते भी तो क्या वह मना कर देती.. पर.. एक बार बात तो करते। यही सोच राधिका का मन कड़वा हो गया।

 रात को सोते समय राधिका के मन में फिर से वही बातें घर कर बैठी। दो साल पहले उसका बेटा अमेरिका पढ़ाई करने चला गया था और पिछले साल ही वीरेन के पार्टनर ने उन्हें धोखा दे दिया था और तब से अब तक उनका व्यापार उस नुकसान से उभर नहीं पाया था। आज तक उसने अपने बेटे से भी इस बारे में बात नहीं की क्योंकि वह उसे वहां पढ़ाई के दौरान कोई चिंता नहीं देना चाहती थी और ना ही उसने अपने भाइयों को बताया या कोई मदद मांगी। मां बाबूजी के निधन से दुखी अपने भाइयों को भी वह अपने दुख से और दुखी नहीं करना चाहती थी पर.. आज जब कोठी बेचने की बात आई तो भाइयों का उसकी राय ना लेना उसे अच्छा ना लगा।

 सुबह नाश्ते आदि से निपटे तो कोई व्यक्ति अभय और वैभव से मिलने आया। दोनों भाइयों ने उसे पूरी कोठी दिखाई। उसके जाने के बाद दोनों भाई खुश थे क्योंकि कोठी की डील पक्की हो गई थी।

“भैया, क्या मुझे भी इसमें से थोड़े पैसे दे सकते हो”? राधिका ने बहुत हिचकते हुए बड़े भाई से पूछा।

” क्यों चाहिए तुझे पैसे? क्या करना है तुझे पैसों का”? अभय बोला।

“भैया, मैंने तुम्हें बताया नहीं..पर.. वीरेन के पार्टनर ने उन्हें पिछले साल धोखा दे दिया था और इसीलिए वीरेन बहुत परेशान है। घर के हालात कुछ ठीक नहीं है और अब जब कोठी बिकने की बात है तो मुझे भी अगर थोड़े पैसे मिल जाएंगे तो व्यापार में कुछ सुधार हो जाएगा। वीरेन दिन-रात इसी चिंता में डूबे रहते हैं ।तभी तो वह यहां भी नहीं आ पाए। मुझे बाबूजी की किसी और संपत्ति में से कुछ नहीं चाहिए इसी में से मेरा काम हो जाएगा”, राधिका बोली।

“पैसे.. कैसे पैसे.. बहनों का भी कभी संपत्ति में से कोई हिस्सा हुआ है? तेरा धूमधाम से ब्याह किया.. इतना दान दहेज दिया.. वो क्या कम था”? छोटा भाई तपाक से बोल उठा।

 राधिका उसके तेवर देख हैरान रह गई थी। उसे लगा जैसे उसने पैसे मांग कर कोई गलती कर दी हो। 

“देख राधिका.. बाबूजी की कोई वसीयत नहीं थी। अगर वह वसीयत बना जाते और तेरा हिस्सा लिख जाते तो हम तुझे ज़रूर तेरा हक दे देते”, बड़ा भाई बोला।

“बाबू जी अगर वसीयत नहीं कर गए तो इसमें मेरी क्या गलती है और कानूनी तौर पर भी मेरा पूरी जायदाद में हिस्सा बनता है पर मैं तो सिर्फ इसी कोठी में से कुछ पैसे मांग रही हूं। क्या मुझे मेरा हक मांगने का भी हक नहीं है”? राधिका को भी गुस्सा आ गया था।

दोपहर होते-होते राधिका को सारी सच्चाई पता चल चुकी थी। दोनों भाभियों ने भी मुंह फुला लिया था ।राधिका ने वहां रहना अब मुनासिब न समझा। एक बात उसे समझ आ गई थी कि अगर बेटी को कभी पैसों की ज़रूरत पड़े तो मायके से उम्मीद करना बेकार है।राधिका ने शाम की बस से ही अहमदाबाद जाने का फैसला कर लिया। उसे किसी ने एक बार भी रुकने के लिए नहीं कहा। 

राधिका ने जाते समय बड़े भाई से कहा,” ठीक है भैया, जैसी आपकी मर्ज़ी.. मुझे कोई हिस्सा नहीं लेना। मैंने तो बस वीरेन की परेशानी से परेशान होकर आपको यह सब कह दिया..पर.. एक बात मैं आपसे और कहना चाहती हूं.. बाबूजी ने वसीयत ना बना कर गलती की और शायद मैंने अपना हक मांग कर.. पर…आप गलती ना कर बैठना। आप अपनी वसीयत ज़रूर बनाना और अपनी बेटी को भी उसमें उसका हक ज़रूर देना ताकि कभी ज़रूरत पड़ने पर वह यह ना सोचे कि उसे हक मांगने का भी हक नहीं है”।

राधिका पूरे सफर में भी मां बाबूजी को याद कर उदास रही। पैसों के पीछे रिश्तों को स्वार्थी होते देख उसका मन कसैला हो उठा था।बाकी संसार की तरह अपने सगे भाई बहन भी इस तरह स्वार्थी हो सकते हैं यह सोचकर वह दुखी हो रही थी।घर पहुंच कर एक दो दिन बाद उसने वीरेन को पूरी बात बता दी।

“क्या ज़रूरत थी तुम्हें वहां अपना हिस्सा मांगने की? तुम जानती हो मुझे किसी से भी कुछ लेना पसंद नहीं है और आज नहीं तो कल हमारी समस्या का समाधान मिल ही जाएगा”, वीरेन खिन्न स्वर में बोले।

 राधिका को लगा वीरेन का गुस्सा करना जायज़ था.. पर.. क्या उसने जो कुछ किया उसमें उसकी क्या गलती थी।एक बेटी या बहन अगर अपने मायके से मुसीबत के वक्त मदद का हाथ मांगती है और अगर मायके वाले सक्षम भी हैं तो क्या बेटी की उसमें गलती है।

 खैर दिन बीत रहे थे ।राधिका को वापिस आए कुछ महीने बीत चुके थे। दोनों भाई भाभियों का कोई फोन नहीं आया और ना ही उसने कभी उन्हें फोन किया। बस मां बाबूजी को याद कर उदास हो जाया करती थी।

एक दिन सुबह बारह बजे के करीब दरवाज़े की घंटी बजी। राधिका ने दरवाज़ा खोला तो सामने बड़ा भाई अभय और भाभी थी। उन्हें अचानक आया देख वह एकदम हैरान रह गई। उसने वीरेन को भी दफ्तर में फोन कर दिया।

 चाय इत्यादि पीने के बाद भैया बोले,” राधा, मेरी बहन, मुझे माफ कर दे.. मैं अपने और वैभव और हम सब के व्यवहार के लिए तुझ से माफी मांगता हूं। तूने सच कहा था.. बेटी को मायके से पूरा हक है अपना हक मांगने का। मैंने इत्मीनान से तेरी बातों पर गौर किया तो मुझे खुद पर बहुत शर्म आई कि कैसे हम भाइयों में पैसे के प्रति इतना लालच आ गया और कैसे हम इतने स्वार्थी हो गए कि हम अपनी इकलौती लाड़ली बहन की मदद नहीं करना चाहते। अपनी गलती के लिए हमें माफ कर दे मेरी बहन। कोठी की सारी पेमेंट आ गई है और यह तेरा हक”, कहते हुए अभय ने एक बड़ा सा पैकेट मेज़ पर रख दिया। इतने में वीरेन भी आ गए थे।

 राधिका ने वह पैकेट अभय के हाथ में पकड़ाते हुए कहा,” भैया, तुमने मेरे बारे में सोचा मेरे लिए यही बहुत है। उस समय मैंने भी ना जाने कैसे वीरेन को परेशान देखकर भावुकता मैं आपसे मदद मांग ली.. पर.. अब सब ठीक है हम दोनों उस मुश्किल वक्त से निकल आए हैं। मुझे कुछ नहीं चाहिए… मुझे बस बाकी लड़कियों की तरह अपने मायके से भरपूर प्यार चाहिए और यह वादा चाहिए कि कभी ज़रूरत पड़ने पर मायके से उम्मीद रखने का हक हमेशा बना रहे”।

 उसकी बात सुन अभय ने आगे बढ़ उसे गले लगा लिया और उसकी आंखों से आंसुओं की धारा बह उठी वह आंसू शायद अभय को उसकी गलती के एहसास को धोने में मदद कर रहे थे। सब की आंखें नम हो उठी थी। अब वहां किसी के मन में किसी की भी गलती पर कोई सवाल नहीं रह गया था।

#स्वरचित

गीतू महाजन,

नई दिल्ली।

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