माया-मोह – अयोध्याप्रसाद उपाध्याय : Moral Stories in Hindi

साक्षी इंटर की परीक्षा पास करके इंजीनियरिंग में दाखिला के लिए जेईई मेंस की परीक्षा दे चुकी थी। परीक्षा परिणाम घोषित होना बाकी था।उसका इंतज़ार किया जा रहा था।

इसी बीच जून के महीने में उसका परिणाम घोषित कर दिया गया। साक्षी उत्तीर्ण हो गयी।

नामांकन से पहले काउंसलिंग की प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। इसके माध्यम से कालेज और विषय का निर्धारण किया जाता है। साक्षी को नोएडा के सेक्टर ५२ में एम टी ई कालेज में कम्प्यूटर साइंस में नामांकन हेतु स्वीकृति प्रदान कर दी गयी।

अगस्त के पहले सप्ताह में नामांकन दाखिल हो गया।१५ अगस्त के बाद वर्गों के संचालन की भी जानकारी दे गयी।

समय बिलकुल करीब आने ही वाला था। घर के लगभग सभी लोग उसके जाने को लेकर बहुत ही उत्सुक और उत्साहित थे। क्योंकि घर से बाहर निकल कर बाहर पढ़ने के लिए जाना उसके लिए पहली मर्तबा था।

उसकी मां निशा बहुत ही उदास रहने लगी थी और एक खास खुशी भी थी कि उसकी बेटी इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने जा रही है।

साक्षी के पिता एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे। उन पर उसके जाने को लेकर बहुत कुछ वैसा नहीं था जैसा कि निशा का। चूंकि वह उसकी मां जो थी। मां की ममता का पूछना ही क्या? नोएडा जाने में जब एक दिन शेष था तो निशा ने नरेन्द्र से कहा —-” साक्षी को कल ही जाना है। उसके लिए मैं थोड़ा नमकीन और मीठा खजूर बना देना चाहती हूं। एक किलो मैदा,आधा किलो चीनी अभी दुकान से खरीद कर लेते आइये।”

नरेंद्र ने कहा —” अच्छा, अभी ले आया। झोला लेकर चले गये।”  देखते ही

देखते सब कुछ मिनटों में ही खरीद कर लेते आये और निशा के हाथों में दे दिया। शाम में घरेलू कामकाज निपटा लेने के पश्चात निशा ने साक्षी के लिए नाश्ता तैयार करके  उसे एक डिब्बे में रख  दिया। अब सारा सामान समेट लिया गया था। जरुरी चीजें एक जगह रख दी गयी थीं। कल बारह बजे दिन में दिल्ली के लिए गाड़ी थी।

निशा ने साक्षी से कहा कि –” वहां बढ़िया से पढ़ना। किसी भी बात की चिंता मत करना। वैसे मैं और तुम्हारे पिताजी जी भी कल साथ साथ जायेंगे ही।”

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नरेंद्र ने स्टेशन जाने के लिए एक गाड़ी बुला ली थी। और सबको हिदायत कर दी थी कि सही समय पर चलना है। गाड़ी ठीक समय पर आने वाली है।

समय पर घर से सभी स्टेशन के लिए निकल पड़े।

बीस मिनट में ही स्टेशन आ गया। सारा सामान लेकर प्लेटफॉर्म नंबर दो पर पहुंच गये। गाड़ी के आने का इंतजार हो रहा था। स्टेशन पर भीड़ थी। कुली सामान चढ़ाने के लिए तैयार था कि इसी बीच गाड़ी आने की सूचना दी जाने लगी कि दिल्ली जाने वाली गाड़ी प्लेटफॉर्म नंबर दो पर आ रही है। यात्री गण अपने निर्धारित कोच में प्रवेश करके अपनी अपनी जगह पर ही बैठेंगे। तब तक गाड़ी आ गयी। यात्रियों में अफरातफरी मच गयी।

इसके बावजूद ये लोग भी अपने कोच में आराम से चढ़ गये। कोई परेशानी नहीं हुई। वैसे साक्षी आज पहली बार रेलगाड़ी की यात्रा पर निकली थी। उसके भीतर एक उत्सुकता तो थी ही लेकिन जैसे जैसे गाड़ी थोड़ी दूरी तय करती गयी वैसे वैसे उसकी जिज्ञासा भी शांत होती गयी। दूसरे दिन सुबह पांच बजे गाजियाबाद स्टेशन पर गाड़ी पहुंच गयी। वहां से नोएडा की दूरी कम पड़ती है। एक परिचित के घर पर विश्राम करने के बाद करीब तीन

बजे साक्षी को छात्रावास में छोड़ने के लिए नरेंद्र और निशा चल पड़े। करीब आधे घंटे में ही छात्रावास तक पहुंच गये। उस समय लगभग साढ़े तीन बजे होंगे।

वार्डेन एक महिला थी। जिसका भरपूर सहयोग मिला। छात्रावास के कमरे के अंदर पुरुष प्रवेश वह पिता ही क्यों न हो वर्जित था। नरेंद्र तो कमरे तक नहीं गये लेकिन निशा तो उस कमरे में चली गयी और सब कुछ सही पाया। जब वहां से आने लगी थी तो साक्षी भी मां के साथ आना चाहती थी किन्तु वार्डेन ने उसे रोका और कहा कि —” अब तो तुम एक छात्रा के रूप में यहां पढ़ने के लिए आयी हो। मां के साथ कैसे जा सकती हो। “

उसकी ऐसी बातें सुनकर साक्षी खूब रोने लगी। साथ ही मां की आंखों से आंसू निकल आये। चूंकि पहली बार मां बेटी एक दूसरे से अलग हो रही थी। खैर मां तो जल्द ही समझ गयी किन्तु साक्षी बहुत देर तक रोती-बिलखती रही थी। पहले से आयी हुई लड़कियों ने कहा —” मत रोवो साक्षी। हमलोग भी तुम्हारी तरह ही यहां माता पिता को छोड़कर आये हैं।

घबराओ मत हमलोग तुम्हारे साथ हैं तुम्हारे कमरे में ही रहेंगे। तुम अकेली नहीं हो।”

इतना सुनते ही साक्षी को एक सहारा सा मिला। कुछ देर बाद वह अपने को सामान्य बनाने में सफल हुई। फिर शाम में माता पिता से उसकी बातें हुईं। नरेंद्र और निशा को उसी रात लौटना भी था।जिसकी जानकारी साक्षी को थी। गाड़ी रात में नौ बजकर दस मिनट पर थी। गाड़ी खुलने के बाद नरेंद्र और निशा की बात साक्षी से हुई। इस बार वह पहले से कम रोयी लेकिन जरुर रोयी। मां का गला भी भर गया फिर भी यह कह गयी कि ठीक से रहना। मैं खोज-खबर लेती रहूंगी।

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साक्षी अपने वर्ग में एक तेज छात्रा के रूप में जानी जाती है। दशहरे की छुट्टी में एक सप्ताह के लिए घर आयी थी। इस बार भी जाते समय उसकी आंखों से आंसू निकल पड़े थे। मां ने तब पोंछ दिये थे और कहा था बेटी रोना नहीं। बढ़िया से रहना और पढ़ना। साथ स्टेशन तक छोड़ने आई थी ‌। गाड़ी खुलने के बाद उसे विदा करके घर लौटी। साक्षी इंजीनियरिंग पास करके नौकरी करने लगी है। नरेंद्र और निशा ने उसकी शादी एक इंजीनियर लड़के से कर दी है। परिवार सुन्दर और सुखी है। उसके सास-ससुर अच्छे और मिलनसार हैं। उसकी एक बड़ी ननद जो शादी शुदा और बाल बच्चेदार है।

शादी के बाद जब साक्षी की विदाई हो रही थी। ससुराल में जाने से पहले परिवार में माता पिता से जब मिल रही थी तो उस समय भी फूट-फूटकर रो रही थी। यह सब कुछ माया-मोह के कारण ही तो है। इस दुनिया में माया-मोह नहीं होता तो शायद यह जीवन भी भला क्या कोई जीवन होता। वह कोरा नीरस होता। सब कुछ शुष्क होता। इस जीवन को सफल और सरस बनाने में मोह और माया का महत्वपूर्ण स्थान है। ये नहीं होते तो शायद हमारे जो दुनियावी संबंध हैं वे कभी नहीं बनते। माता पिता, भाई बहन, चाचा चाची, भाई भौजाई,मामा नाना जितने भी रिश्ते जीवन के हो सकते हैं

वे सब इन माया मोह के कारण ही हैं। इनके बिना हम रह भी नहीं सकते और इनके कारण कभी कभी परेशानी में भी पड़ जाते हैं। अंत अंत तक जीवन कभी भी इनसे छुटकारा पा नहीं सकता।हम लोग तो कोई साधु-महात्मा या फिर कोई संत संन्यासी तो हैं नहीं कि अपने जीवन को इस मायावी दुनिया से अलग कर लिया है। वे सब महान हैं जो जल में कमल की तरह रहते हैं। हम दुनिया में रहने वाले, दुनिया से रस पानी लेकर जीने वाले इस दुनिया के मायाजाल से अपने आप को अनासक्त होकर कैसे जी सकते हैं।

अयोध्याप्रसाद उपाध्याय, आरा

मौलिक एवं अप्रकाशित।

#ये जीवन का सच है

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