क्या दर्द सिर्फ औरतों को होता है ,मर्द को नहीं ??? क्या वाक़ई भावनाएं सिर्फ औरतों में होती हैं , मर्दों में नहीं ??? क्या औरतों को ही सबके सामने आंसू बहाने का हक़ है , मर्द अकेले में नहीं रो सकता ???
ये तमाम सवाल आज जवाब मांग रहे थे रितेश के दिल से ,… ये वही सब सवाल हैं जिनके जवाब पाना चाहता था रितेश और इन्हीं सवालों को लेकर आज ऑफिस से घर न जाकर बैठा था एक पार्क में। आज उसका दिल ही नहीं था कि वो घर जाये , घर जाकर करता भी क्या , माँ और बीवी के झगडे में पिस ही रहा होता।
उसका एक हाथ माँ के हाथ में और एक हाथ बीवी के हाथ में होता लेकिन उसके दिल का क्या , जिसमें माँ भी बसती है और बीवी भी।
किसकी सुने , किसे सही ठहराए और किसे ग़लत। हालाँकि वो जानता था कि माँ और बीवी दोनों ही अपनी अपनी जगह ग़लत है लेकिन वो किसी एक को भी अगर सही या ग़लत कह देता तो घर का माहौल और ज़्यादा बिगड़ते देर नहीं लगती। बीवी को सही कहता तो जोरू का ग़ुलाम, माँ को सही कहता तो माँ का पल्लू पकड़ने वाला।
इस तरह के कई नामों से उसे उसकी ही माँ और बीवी नवाज़ देती। आखिर करे तो क्या करे।
आज भी ऐसा ही कुछ हुआ कि रितेश का आज घर जाने का मन ही नहीं कर रहा था , वो ऑफिस से निकल कर पार्क में आकर बैठ गया। पार्क के बेंच पर बैठे बैठे सुबह की सारी तस्वीर उसके आगे घूमने लगी।
सुबह होते ही माँ के चीखने चिल्लाने की आवाज़ और पत्नी के जवाब पर जवाब देने की आवाज़ से शुरुआत होती थी , यही आज सुबह भी हुआ।
माँ चिल्ला रही थी कि न जाने किस घड़ी में इस आशा को ब्याह ले आई अपने बेटे के लिए , मनहूसों की तरह सूरज उगते तक सोती रहती है , अभी तक चाय तक नहीं बनाई।
तो ख़ुद बना कर पी लो अम्मा , ज़बान के साथ साथ थोड़े बहुत हाथ भी चला लिया करो। ये आवाज़ उसकी पत्नी आशा की थी , जो बिस्तर पर लेटे लेटे ही अम्मा को जवाब दे रही थी।
हाँ हाँ , बना लुंगी , तेरी राह न देखूंगी कुछ खाने पीने या बनाने के लिए, इस बार अम्मा बोली।
आशा भी कहाँ चुप रहने वाली थी उसे तुरंत जवाब दिया “और देखना भी मत , नहीं तो देखती ही रह जाओगी , मैं तुम्हारी नौकर नहीं हूँ”।
ये क्या लगा रखा है आप दोनों ने सुबह सुबह , दूसरों के घरों से सुबह के वक़्त आरती और पूजा की घंटी की आवाजें आती हैं और एक हमारा घर है , जहाँ से सिर्फ क्लेश की आवाज़ें आती रहती हैं। न आप दोनों सुबह देखती हैं न रात।
इस बार रितेश दोनों के बीच बोल पड़ा तो अम्मा शुरू हो गई ” मैं नहीं करती क्लेश , तेरी बीवी करती है , दुनिया भर की औरतें सुबह सबसे पहले जाग जाती हैं और ये महारानी दिन चढ़े तक सोती रहती है।
ये सुनकर आशा भिनभिनाती हुई कमरे से बाहर आई और चीखते हुए बोली , कि रात भर मुन्ना जगाता है , बार बार दूध पिलाना , डाइपर चेंज करने में ही सारी रात निकल जाती है , सुबह से फिर कोल्हू की बैल की तरह घर के कामों में जुत जाती हूँ , वो तो दिखाई नहीं देता, थोड़ा 10 मिनट ज़्यादा सो गई तो वो दिख जाता है।
तो हमने ना पाले क्या बच्चे , तीन तीन बच्चे अकेले पाले हैं , हमें भी बच्चों को लेकर रात रात भर खड़े रहना पड़ता था , फिर भी सुबह सूरज उगने से पहले उठ जाया करते थे , आज तक किसी को भूखा न मारा सोने का बहाना लेकर।
अम्मा की बात सुनकर रितेश के पिता जी , जो अभी अभी सैर करके लौटे थे , और सारी लड़ाई सुन चुके थे वो बोल पड़े कि भाग्यवान हम लोगों के खेतों में जाने के बाद तुम पूरी दुपहर सोया करती थी और हमारे आने से पहले शाम को उठकर रसोई संभाला करती थी , और इस बीच हमारी अम्मा तीनों बच्चों को अपने पास सुलाती खिलाती थी। तुम भी ऐसा ही क्यों नहीं करती , दुपहर को मुन्ना को तुम संभाल लिया करो ,बहु को थोड़ा आराम मिल जाया करेगा।
बहु के सामने अपने पति की बातें सुनकर अम्मा आग बबूला हो गई , उन्हें लगा कि उनके पति उनका साथ न देकर बहु का साथ दे रहे हैं , वो पति पर चिल्लाते हुए बोली. तुम कम बोलो जी, तुम्हें तो हमेशा मेरी ही गलती नज़र आएगी , अपनी लाडली बहु की नहीं , आख़िरकार तुम्हारे बचपन के दोस्त की बेटी जो ठहरी , ले आये थे मेरे रितेश के लिए ब्याह के , न दान न दहेज़।
अरे तुम बात को कहाँ से कहाँ ले जा रही हो , रितेश के पिता जी ने अपनी पत्नी को टोका।
इससे पहले रितेश की माँ कुछ और बोलती, उनकी बहु आशा बोल पड़ी , दान दहेज़ भिखारी मांगते हैं जिनके ख़ुद के घर कुछ नहीं होता , वो ही बहु के घरवालों से सामान की उम्मीद करते हैं , और मेरे पिता जी ने अपनी हैसियत के मुताबिक़ सब कुछ दिया था , आप ने तो अपनी बेटी की शादी में भी कर्ज़ा लेकर अपनी इज़्ज़त बचाई थी।
रितेश को माँ का ये अपमान अच्छा नहीं लगा , उसने आशा से माफ़ी मांगने को कहा जिस पर आशा ने हज़ार बातें रितेश को सुना दी और पैर पटकते हुए कमरे में चली गई।
रितेश आंसू भरी आँखों से पिता की तरफ़ देखते हुए बिना चाय नाश्ता किये और टिफ़िन लिये घर से ऑफिस के लिए निकल गया।
अभी ऑफिस में लंच टाइम ही हुआ था , रितेश जो सुबह से भूखा था , ऑफिस की कैंटीन की तरफ़ लंच करने के लिए बढ़ ही रहा था कि आशा की कॉल आ गई , रितेश को लगा कि आशा ने खाने के लिए पूछने को फ़ोन किया होगा कि कुछ खाया या नहीं। रितेश ने ख़ुशी ख़ुशी फ़ोन उठाया कि आख़िर है तो उसकी बीवी ही , उसकी फ़िक्र में फ़ोन कर रही होगी।
लेकिन जैसे ही रितेश ने फ़ोन पिक किया , दूसरी तरफ से रोने, धोने चीखने ,चिल्लाने की आवाज़ सुनाई पड़ी , जिन्हें सुनकर एक बार तो रितेश घबरा गया ,वो हेलो हेलो करने लगा। उधर से आशा की आवाज़ सुनाई दी कि अब इस घर में या तो तुम्हारी माँ रहेगी या मैं। तुम आज ऑफिस से घर तभी आना जब तुम कोई फैसला कर लो।
रितेश कुछ कह पाता इससे पहले ही आशा ने फ़ोन काट दिया। रितेश ने घर पर फ़ोन लगाया तो उसकी माँ ने फ़ोन उठाया और रोते हुए बोली कि अब मैं तेरी पत्नी के साथ नहीं रह सकती , तू मेरा बेटा है , तुझे मैंने जन्म दिया है , तुझे पाला पोसा , पढ़ाया लिखाया , ये तो अभी आई है। .. आज तू आने से पहले फैसला करते आना कि माँ को घर में रखना है या इसे।
इतने में रितेश के पिता ने फ़ोन हाथ में लेकर कहा कि बेटा तू चिंता न कर , मैं हूँ , यहां सब संभाल लूंगा ,,तू जल्दी घर आ जाना। टेंशन न लेना।
जी पिता जी, इतना कहकर रितेश बिना कुछ खाये पिए वापस अपने केबिन में आ गया।
शाम को ऑफिस बंद होते होते रितेश को सर भारी लगने लगा और कुछ न खाने के कारण कमज़ोरी महसूस होने लगी। लेकिन रितेश के दिल दिमाग में बीवी और माँ के शब्द गूंज रहे थे की किसी एक को चुन ले। रितेश भारी मन से ऑफिस से निकला लेकिन घर न जाकर पार्क में जाकर बैठ गया और सोचने लगा कि वो क्या करे , वो किसी एक को नहीं चुन सकता , दोनों उसके और उसके घर के लिए ज़रूरी हैं।
दोनों अपनी अपनी बात सही साबित करने के लिए रोने लगती हैं , अपना अपना दुःख दर्द कह देती हैं लेकिन रितेश वो क्यों नहीं दोनों के सामने रो सकता , क्यों नहीं अपना दर्द अपनी पीड़ा कह सकता , सिर्फ इसलिए कि वो मर्द है। क्या आंसू सिर्फ औरत ही बहा सकती है , क्या दर्द सिर्फ औरत को हो सकता है , क्या क़ुर्बानियां सिर्फ औरत देती है ???
नहीं ऐसा नहीं है ,मर्द को भी दर्द होता है, मर्द भी अपने परिवार के लिए अपनी ख्वाहिशों की न जाने कितनी कुर्बानियां देता है , माँ और बीवी के बीच एक मर्द ही पिसता है।
मर्द को भी हक़ है कि वो दिल दुखने पर रोये ,अपने दर्द को अपनी तकलीफ को ज़ाहिर करे। यही सब विचार करते करते न जाने कब रितेश रोने लगा। वो रोये जा रहा था और अपने सवालों के जवाब ख़ुद से ही मांगे जा रहा था , इतने में किसी के हाथों की गर्माहट उसे अपने कंधे पर महसूस हुई , उसने चौंक कर देखा तो सामने उसके पिता जी खड़े थे ,रितेश छोटे बच्चे की तरह उनसे लिपट कर रोने लगा , पिता जी ने भी उसे चुप न कराकर जी भर कर रोने दिया , जिससे उसका दिल हल्का हो जाये।
काफ़ी देर रोने के बाद जब रितेश कुछ संभला तो उसने पिता जी से पूछा कि आप यहाँ कैसे आए ???
बेटे आज जब तुम इतनी देर तक घर नहीं लौटे तो हम सबको तुम्हारी बहुत फ़िक्र हुई , ऑफिस फ़ोन किया तो पता लगा ऑफिस बंद हो चुका है और तुम बहुत पहले ही निकल चुके हो। रस्ते भर तुम्हे ढूंढता फिरता जब मैं इस पार्क के पास से गुज़रा तो तुम्हारी कार देखी और अंदर आ गया , शुक्र है तुम मिल गए।
आओ चलो घर चलें।
ये सुनकर रितेश ने कहा कि पिता जी मैं घर नहीं जाना चाहता, कैसे जाऊं घर , किसे चुनूं , अब और नहीं सहा जाता। मैं तंग आ गया हूँ।
नहीं बेटे ऐसे नहीं कहते , वो घर तुम्हारा है और तुम्हारे बिना अधूरा है। रितेश ने अपने दिल में उमड़ रहे सवालों के जवाब अपने पिता से मांगे तो उन्होंने कहा कि मैं तुम्हारा दर्द समझता हूँ और तुम्हारे सवालों के पीछे छुपी तक़लीफ़ को भी समझता हूँ ,अक्सर हम मर्दों से यही आशा की जाती है कि हम न रोये , न अपने दर्द को ज़ाहिर करें , न अपनी तक़लीफ़ किसी से कहे , अगर एक औरत बहु, बीवी,माँ बनती है तो हम मर्द भी तो दामाद, पति और पिता बनते हैं , ये प्रकृति औरत और मर्द दोनों के ज़रिये ही चलती है , लेकिन हमें मर्द होने की वजह से बहुत कुछ अपने दिल के अंदर ही रखना पड़ता है। लेकिन इसका ये मतलब नही कि मर्द को दर्द नहीं होता , मर्द को भी दर्द होता है , बस उस दर्द को देखने वाला और समझने वाला साथी मिल जाये तो ये दर्द ख़त्म हो जाता है , और इस मामले में न तुम्हें समझने वाला साथी मिला न मुझे।
ख़ैर अभी घर चलो , बैठकर बात करते हैं।
रितेश अपने आंसू पोंछकर जैसे ही उठने लगा , उसे चक्कर आ गए और वो गिर पड़ा , जिसे देखके उसके पिता घबरा गए , उन्होंने कुछ लोगों की मदद से रितेश को उसकी कार में डाला और उसे लेकर तुरंत अस्पताल पहुंचे। रस्ते में उन्होंने घर फ़ोन करके रितेश की माँ और उसकी पत्नी को सारी बात बताते हुए अस्पताल आने को कहा।
रितेश के अस्पताल में होने की खबर सुनकर उसकी पत्नी और माँ भागे भागे अस्पताल पहुंचे , तब तक डॉ ने बताया कि सुबह से कुछ न खाने पीने की वजह से रितेश को चकार आ गए थे जसकी वजह से वो बेहोश हो गया था। लेकिन अब उसे होश आ गया है और वो सही है , उसे घर ले जा सकते हैं।
रितेश की पत्नी और माँ रोते हुए रितेश के सिरहाने बैठ गई , इतने में उसके पिता जी ने आकर कहा कि डिस्चार्ज मिल गया है। चलो बेटा, घर चले लेकिन रितेश ने घर जाने से इंकार करते हुए उसे उसके दोस्त के घर छोड़ने की बात कही जिसे सुनकर सभी हैरान रह गए।
सभी ने एक साथ पूछा कि घर क्यों नहीं जाना तो रितेश ने कहा कि मेरे लिए माँ और बीवी दोनों ज़रूरी हैं , दोनों की अपनी अपनी जगह है मेरे लिए लेकिन मैं इन दोनों में से किसी एक को चुन कर उस घर में नहीं जा सकता , दोनों मेरी आँखें हैं , मैं किसी एक आँख के बिना जी नहीं पाऊंगा , इसलिए मैंने फैसला किया है कि मैं ही चले जाता हूँ।
मेरा दोस्त कुछ दिनों में लन्दन जा रहा है , आज ऑफिस में उससे मेरी बात हो गई है , वो मुझे भी साथ ले जायेगा और अब मैं तब तक उस के घर रहूंगा और उसके साथ लंदन चला जाऊंगा लेकिन एक बेटा और एक पति होने के नाते अपनी ज़िम्मेदारियाँ वहां से भी निभाता रहूंगा , यहाँ आप में से किसी को भी कभी कोई दिक्कत नहीं आएगी।
ये सुनकर रितेश की माँ और उसकी पत्नी खड़े के खड़े रह गए , आशा ने रितेश के पैर पकड़ लिए और अपनी गलतियों की माफ़ी मांगते हुए उसे जाने से रोकने लगी ,तो दूसरी तरफ़ उसकी माँ भी आँखों में पश्चाताप के आंसू लेकर उस के आगे अपना दामन फैला कर खड़ी हो गई और उसे अपनी ममता की दुहाई दे कर जाने से रोकने के लिए तड़प उठी।
रितेश से जब दोनों को इस तरह से देख कर रहा नहीं गया तो उसने दोनों के हाथ थामते हुए कहा कि आज मेरे जाने के नाम से तुम दोनों रोने लगी। लेकिन मेरे होते हुए दुश्मनों की तरह लड़ती झगड़ती रही , न माँ ने बहु को बेटी माना , न बहु ने सास को माँ।
आये दिन की क्लेश से घर टूटता बिखरता रहा और उसके अनदेखे टुकड़े मेरे दिल में चुभते रहे ,उस वक़्त मैं भी रोना चाहता था , चिल्ला कर चीख कर अपना दर्द कहना चाहता था , लेकिन सब कुछ अपने अंदर बर्दाश्त करता रहा क्यों???क्योंकि मैं एक मर्द जो ठहरा , मुझे कहाँ हक़ दिया है इस संसार ने कि एक मर्द होकर मैं रोऊँ , अपना दर्द दुख कहूं , मुझे तो बस ज़िम्मेदारियाँ निभानी हैं , अपने दुःख दर्द को अपने तक रखना है , सारा दिन ऑफिस में काम करने के बाद घर आकर सुकून चाहता था लेकिन मिलता था क्लेश और सिर्फ क्लेश। माँ का बेटा, पत्नी का पति। बस मैं यही बन कर रह गया था ,माँ का साथ दूँ या पत्नी का , यही सवाल मुझे अंदर ही अंदर खाते गए और मैं सहता गया। मैं इतने सालों से ये सब सहता भी रहा लेकिन आज जब माँ और बीवी से किसी एक को चुनने की बात आई तो मेरे सब्र का बाँध टूट गया , आज सारा सब्र मेरी आँखों से बह गया और जब दिल में कुछ नहीं रहा तो मैंने फैसला किया कि मैं ही चला जाता हूँ। इतना कहते कहते एक बार रितेश फूट फूट कर रोने लगा।
ये सब सुनकर रितेश की पत्नी और माँ शर्मिंदा हो गई और उन्होंने रितेश का हाथ पकड़कर उसे भरोसा दिलाया कि आज के बाद वो रितेश के आंसुओं की वजह नहीं बनेगी न ही घर के क्लेश को जन्म देगी ,,आज रितेश ने उनकी आंखें खोल दी हैं।
आशा ने अपनी सास के पैर छूकर माफ़ी मांगी तो उसकी माँ ने भी आशा को सीने से लगा लिया।
ये सब देखकर रितेश के पिता जी उसकी तरफ़ देख कर मुस्कुराये क्योंकि आखिर ये लन्दन जाने वाला प्लान तो उन्होंने ही बीवी और माँ के अस्पताल पहुंचने से पहले रितेश को दिया था।
रितेश भी पिता जी को देखकर मुस्कुराया औरआँखों ही आँखों में उनका शुक्रिया कहा।
अस्पताल से निकल कर कार में बैठे बैठे रितेश सोच रहा था कि कितना अच्छा होता है एक मर्द का रोना , कितना सुकून भरा होता है , आज वो रोया तो सारा ग़ुबार निकलता चला गया और उस के आंसुओं ने उसकी दुनिया , उसका घर उजड़ने सेबचा लिया इसलिए मर्द को भी कभी कभी रो देना चाहिए , मर्द का रोना भी ज़रूरी है।
शनाया अहम