अस्पताल के कमरे में अपने पति शशांक के पास बैठी गौरी की आंखें बीते दिनों को याद करके अश्रुपूरित हो गईं. ….वह सोच रही थी कि आज यदि उसके भैया भाभी भी उसका साथ नहीं देते तो वो तो अकेली ही पड़ जाती….ससुराल की तरफ से तो कोई मदद करने नहीं आया
जबकि ससुराल वालों के बहकावे में आकर या यूं कहो कि दवाब में आकर उसने मायके वालों से दूरी बना ली थी जबकि उनकी कोई गलती भी नहीं थी….सोचते हुए आज गौरी ग्लानि महसूस कर रही थी……।
गौरी अपने माता पिता की सबसे बड़ी संतान थी और उसके बाद उसका भाई तन्मय और सबसे छोटी बहन वान्या थी….गौरी की शादी के समय परिवार की आर्थिक स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी…क्योंकि उस समय उसके दादा दादी भी थे जिनकी जिम्मेदारी भी गौरी के पापा किशनलाल जी पर थी
और उस पर तन्मय और वान्या की पढ़ाई का खर्चा भी था इसलिए गौरी की शादी साधारण ढंग से शशांक के साथ कर दी और दहेज में भी जरूरी जरूरी सामान ही दिया गया था ….शशांक के पापा का खुद का बिजनेस था उसी को शशांक और उसके दो भाई भी संभाल रहे थे…..कुछ सालों तक सब कुछ सही चलता रहा और सभी लोग बहुत खुश थे….
कुछ समय बाद तन्मय की अच्छी जॉब लग गई और उसकी शादी भी उसके माता पिता ने एक सुशील व सुंदर लड़की से करवा दी …. वान्या भी एक सरकारी अध्यापिका हो गई और अब उसी की शादी थी चूंकि अब परिवार की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ थी
अतः वान्या का विवाह बहुत ही धूमधाम से हुआ था या यूं कहिए कि किशनलाल जी इस विवाह में दिल खोल कर कर रहे थे कि कहीं भी कोई कमी न रह जाए आखिर यह उनके बेटे बेटियों में आखिरी विवाह था।
बस यही धूमधाम और तैयारी शशांक और उसके परिवार परिवार वालों को सहन नहीं हुई…. उस समय तो उन्होंने कुछ नहीं कहा…. लेकिन जब विदा का समय आया तब उन्होंने अपने साथ गौरी को भी चलने को कहा जबकि गौरी और उसके माता पिता चाहते थे
कि गौरी 4–6 दिन बाद जाए….लेकिन उन्होंने किसी की नहीं मानी और गुस्से में गौरी को अपने साथ ही वापिस ले आए….घर आकर जब गौरी ने उनसे उनकी नाराजगी का कारण जानना चाहा तब शशांक ने कहा कि तुम्हें तो न कुछ दिखाई देता है और न तुम देखना चाहती हो…
अरे कम से कम अपनी नहीं तो हमारी इज्जत का तो ध्यान रखा करो….माना कि हमारी शादी के वक्त तुम्हारे परिवार की स्थिति ठीक नहीं थी लेकिन अब तो बहुत अच्छी है….जब अपनी छोटी बेटी का विवाह इतने अच्छे से किया है और सब कुछ सामान दिया है तो कम से कम हमें नेग तो अच्छा दे सकते थे…ये दिए हैं(सामान को जमीन में पटकते हुए) एक एक जोड़ी कपड़े और सोने की अंगूठी….अरे कम से कम तुम्हें तो गले का सेट दे ही सकते थे अब कौन से रोज रोज कार्यक्रम होते हैं….
गौरी को समझ ही नहीं आ रहा था कि वह इन लोगों को कैसे समझाए फिर भी उसने थोड़ी हिम्मत करके कहा,” आप ये कैसी बात कर रहे हो…और क्या फर्क पड़ता है कि उन्होंने नेग में क्या दिया है वैसे तो मेरे घर वालों ने आप लोगों के सम्मान में कोई कसर नहीं छोड़ी जो आप इतना गुस्सा कर रहे हो….”
“तो सही तो गुस्सा कर रहा है मेरा बेटा… तुझमें तो कोई अक्ल नहीं है…अरे उनकी छोटी बेटी और दामाद सरकारी नौकरी में हैं तो इसका मतलब ये नहीं कि हमारे बेटे की और हम लोगों की कोई इज्जत नहीं….अरे हम भी उतने ही सम्मान के योग्य हैं जितने कि वो लोग…और अगर तुम्हें तुम्हारे घर वाले सही लग रहे हैं तो तुम जा सकती हो वहीं…हम ये नहीं कह रहे कि उनसे संबंध खत्म कर दो….बल्कि ये कह रहे हैं कि बस समय पर जाओ और तुरंत घर ..अब विवाह हो गया तो रुकने का क्या काम था वहां….
ऐसे ही आगे किसी भी तीज त्यौहार पर भी ज्यादा आने जाने की आवश्यकता नहीं है….बस जाओ और तुरंत शशांक के साथ ही वापिस आ जाओ…..ज्यादा अपनापन निभाना है तो वहीं रहो वरना तो यही तुम्हारा घर है और यहीं तुम्हारे अपने….बाकी तुम्हारी मर्जी…” वान्या की सास ने कहा
अब बेचारी गौरी कहती भी तो क्या कहती बस दुखी मन से सामान समेटकर अपने कमरे में चली गई….
जब उसके मायके से किसी का फोन आता और उससे आने की कहते तो वह बहाने बना कर मना कर देती….और फोन पर बातें भी कभी कभी वो भी न के बराबर ही किया करती…
और जब वह शशांक या उसके माता पिता से गौरी को भेजने की बात करते तो वह बड़ी ही सफाई से बोल देते कि हमने क्या मना किया है उसी से पूछ लो जाए तो….
ऐसे ही रक्षाबंधन आदि त्यौहार पर अब वह अपने दोनो बच्चों को नहीं ला पाती केवल थोड़ी देर के लिए शशांक के साथ आती और उसी के साथ चली जाती….अगर इस बारे में कोई पूछता कि बच्चों को क्यों नहीं लाई तब भी उसे दुखी मन से बहाना बनाना पड़ता।
समय के साथ कुछ साल ऐसे ही निकल गए और अचानक एक दिन उसके पिता का देहांत हो गया उस समय भी गौरी नहीं रुकी अंतिम संस्कार के बाद ही वापिस चली गई।
अब तो कई बार वह रक्षाबंधन आदि पर भी नहीं आ सकी और रक्षाबंधन पर पोस्ट द्वारा राखी भिजवा देती
जब वह बार – बार बहाने बनाते – बनाते थक गई तो उसने गुस्से से एक बार अपनी मम्मी और भैया से कह दिया कि फालतू में क्यों बोझ बनूं मैं आप लोगों पर….अरे मुझे देने में तो वैसे भी आपको परेशानी होती है, वो क्या है न कि मैं कमाती नहीं हूं न…
गौरी के इस प्रकार के शब्दों से उसके मायके वाले उसे आश्चर्य से देखते रह गए कि यह कह क्या रही है जबकि उन्होंने ऐसा कभी नहीं सोचा था कि गौरी के मन में ऐसा भी कुछ चल रहा होगा…. जबकि हकीकत में गौरी ऐसी थी भी नहीं वो तो ससुराल वालों की वजह से दूरी बनाने पर मजबूर थी जबकि उसके ससुराल वाले उनकी नजरों में अच्छे बने हुए थे।
इसका परिणाम यह हुआ कि गौरी से मायके वालों ने भी दूरी बना ली क्योंकि उनके मन में मनमुटाव पैदा हो गया..
कुछ साल ऐसे ही निकल जाने के बाद गौरी के सास स्वसुर के देहांत के बाद उनकी संपत्ति और कारोबार का भी बंटवारा हो गया और गौरी के बच्चे भी बड़े हो गए। अब गौरी और शशांक पर जिम्मेदारियों का पहाड़ टूट पड़ा क्योंकि कारोबार के बंट जाने से तो कारोबार पर प्रभाव पड़ा जबकि खर्चे रुकने का नाम नहीं ले रहे थे….शशांक अपने कारोबार को बढ़ाने का प्रयास कर ही रहा था कि एक भयंकर सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया और फिर पुलिस ने उसे एक सरकारी अस्पताल में भर्ती करवाकर उसके घर सूचना दे दी जिसे सुनकर गौरी और बच्चे दौड़े दौड़े आए….दोपहर से शाम हो गई जब शशांक के भाइयों को पता चला तो वह भी अस्पताल आकर उसे देखकर अपना फर्ज निभा गए….आखिर यही तो था उनका फर्ज कि भाई बीमार है तो बस देख आओ …फिर इलाज कैसे हो रहा है ये गौरी जाने या भगवान…..
वो तो भला हो भगवान का कि किसी प्रकार तन्मय को खबर लग गई और वह अस्पताल आ गया जिसे देखकर गौरी फूटकर फूटकर रोने लगी…
” अरे दीदी क्यों रो रही हो…परेशान मत हो…. मैं हूं न….सब ठीक हो जायेगा….वैसे आपने तो हमें इतना पराया कर दिया कि बताया भी नहीं….खैर अब जो हुआ सो हुआ….अब तो मैं आ गया हूं तू अकेली नहीं है दीदी….भगवान के साथ साथ हम सब भी हैं न तेरे साथ…..भगवान जीजू को जल्दी ठीक कर देंगे….और हां इन्हें यहां से एक प्राइवेट हॉस्पिटल में ले जा रहे हैं जिससे इलाज अच्छा हो सके….”
गौरी बस रोए जा रही थी उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहे।
रात तो शशांक एक प्राइवेट हॉस्पिटल में शिफ्ट कर दिया गया….हॉस्पिटल में गौरी के साथ उसका भाई तन्मय रुका जबकि बच्चे अपनी मामी के साथ उनके घर चले गए आखिर अपने घर में बच्चे अकेले ज्यादा परेशान हो जाते इसीलिए तन्मय ने उन्हें अपने घर भेज दिया।
दूसरे दिन सुबह वान्या और उसका परिवार गौरी से मिलने आए। दूसरे दिन शशांक को भी होश आ गया था परंतु डॉक्टरों के अनुसार उसे 15 दिन अस्पताल में रहना था क्योंकि दाएं हाथ का ऑपरेशन होना था।
गौरी के साथ सुबह वान्या अस्पताल में रुकती और रात को तन्मय जबकि गौरी के ससुराल वाले कभी कभी ही रिश्तेदारों की भांति देखकर चले जाते।
लगभग 15 दिन बाद शशांक को अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली थी….
गौरी, तन्मय और वान्या तथा उसके पति शशांक को छुट्टी दिलवाकर घर ले आए जहां गौरी की भाभी ने उसका घर व्यवस्थित कर दिया था आखिर बहुत दिनो से बंद जो पड़ा था तो बहुत गन्दा हो गया था।
गौरी और शशांक अपने बच्चों को देखकर बहुत खुश हुए और बच्चे भी मम्मी, पापा कहते हुए खुश होकर उनके गले लग गए….
इतने दिनों में शशांक अपने भाइयों और ससुरालवालों के व्यवहार को देखकर ससुराल वालों के समक्ष स्वयं को लज्जित महसूस कर रहा था कि जिन परिवारवालों के कहने में आकर मैंने अपनी पत्नी का साथ नहीं दिया उसे उसीके घर जाने पर पाबंदी लगा दी और उसे उसी के परिवारवालों की नजर में बुरा बनवा दिया वही आज मुंह मोड़कर चले गए…जबकि जिन लोगों से हम दूर रहे उन्होंने आज मुश्किल की घड़ी में हमारा साथ दिया…उसने गौरी से माफी मांग ली….
कोई बात नहीं….अब जो हो गया उसे भूल जाइए पहले अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दीजिए…”कहकर गौरी उनके गले लग गई।
जब तक शशांक पूर्णरूप से स्वस्थ नहीं हो गए तब तक कोई न कोई गौरी के साथ रहता था और जिस दिन अस्पताल जाना होता तो तन्मय ही जाता था।
किसी ने सही ही कहा है कि विपत्ति के समय ही अपनों की असली पहचान होती है।
सुख के दिनों में तो सब साथ होते हैं किंतु दुख में वही होते हैं जो खास होते हैं
दोस्तों! हमें कभी भी किसी के कहने में आकर किसी से संबंध खराब नहीं करने चाहिए। लेने देने से कुछ नहीं होता…चार दिन की जिंदगी है मिलजुल कर प्रेम से गुजर जाए वही ठीक है वरना कमी तो किसी के घर नहीं है …..
#मनमुटाव
प्रतिभा भारद्वाज ‘प्रभा’
मथुरा (उत्तर प्रदेश)