आखिर वह दिन आ गया जब वैदेही को अस्पताल से छुट्टी मिल गई। डॉक्टर सौरभ ने उन्हें घर भिजवाने के लिये अपने नर्सिंग होम से ही एम्बुलेंस की व्यवस्था कर दी। जाने के पहले कदम्ब के साथ वीथिका को बैठाकर सब कुछ समझाया –
” आज तुम्हारी बेटी स्वस्थ होकर जा रही है और सच मानो मुझे भी बहुत खुशी हो रही है लेकिन अभी बच्चे को बहुत अधिक देखभाल की आवश्यकता है। इसलिये इसका बहुत ख्याल रखना। इसे घर के बाहर धूल, मिट्टी या धूप में लेकर बिल्कुल मत जाना। मैं एक महीने की अभी दवा दिलवाये दे रहा हूॅ। एक महीने बाद बच्चे को ले जाकर डॉक्टर नयन को दिखा देना। अभी करीब एक वर्ष दवाइयां चलेंगी। चिन्ता मत करना, अब आपकी बेटी पूर्ण रूप से स्वस्थ है। कोई भी परेशानी हो तो मेरे पास आ जाना।”
कदम्ब और वीथिका ने अपने हाथ जोड़ दिये – ” आप और आपके पापा ने भगवान बनकर मेरी बेटी की रक्षा की है। आप लोगों की दया के कारण ही सब संभव हुआ है।”
डॉक्टर सौरभ ने कदम्ब को मना कर दिया – ” भगवान मत कहो, इंसान ही रहने दो। मुझसे जो हो सका, कर दिया। अब चिन्ता मत करो । अच्छी तरह बच्चे को लेकर जाओ और इसका ख्याल रखना”
अस्पताल से निकलते समय बहुत सारा स्टाफ उन्हें एम्बुलेंस तक छोड़ने आया। कदम्ब और वीथिका की ऑखें ऑसुओं से भरी थीं, उनके दोनों हाथ जुड़े हुये थे। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे और किन शब्दों में सबका शुक्रिया अदा करे। उन्होंने सबकी ओर देखते हुये कहा –
” आप सबका धन्यवाद करने के लिये हमारे पास शब्द नहीं है। समझ नहीं आता कि क्या कहकर आप सबका शुक्रिया करूॅ।”
तभी एक नर्स बोली – ” भइया, इसे डॉक्टर बना देना, हम सबका कर्ज उतर जायेगा।”
फिर वे सब बारी बारी से लकी को प्यार करते हुये आशीर्वाद देने लगे – ” इसकी बहुत याद आयेगी हम सबको। ईश्वर इसे खूब लम्बी आयु दे।”
वीथिका ने कहा – ” आप सबका सहयोग और प्यार हम लोग सारी जिन्दगी नहीं भूल पायेंगे। आप सब आशीर्वाद दीजिये कि हमारी बेटी जीवन में कुछ ऐसा करे जो गर्व करने योग्य हो।”
उन्होंने रेशमा को लकी की अस्पताल से छुट्टी के लिये पहले ही बता दिया था। इसलिये जब वे लोग घर आये तो रेशमा दरवाजे पर बैठी हुई थी।
कदम्ब और वीथिका ने तो अस्पताल में ही निर्णय कर लिया था कि अब वे रेशमा को अपने परिवार में सम्मिलित करके अपने साथ ही पूर्ण सम्मान से रखेंगे और थोड़ा मना करने के बाद रेशमा भी इस छोटे से परिवार में सम्मिलित होने के लिये राजी हो गई।
” मैं तुम लोगों की बात मान लेती हूॅ लेकिन यदि तुम लोग मुझे घर के सदस्य की तरह रखोगे तभी मैं तुम लोगों के साथ रहूॅगी।”
” आप कैसी बातें कह रही हैं मौसी? आज से आप सचमुच हमारी मॉ जैसी मौसी रहेंगी और कभी हम दोनों के मन में आपका सम्मान कम नहीं होगा लेकिन परिवार वालों से बाहर की लड़ाई हम सबको मिलकर लड़नी पड़ेगी। उसमें आपको हमारा साथ देना होगा। समाज और दूसरों की अनर्गल बातों में आकर कभी हमसे दूर जाने के सम्बन्ध में सोचियेगा भी नहीं।”
वीथिका ने रेशमा के गले में बॉहें डाल दीं – ” हॉ मौसी, लकी को पाल पोसकर बड़ा करना है, उसे पढा लिखा कर डॉक्टर बनाना है और मुझसे यह सब नहीं होगा। डॉक्टर की नानी बनने के लिये आपको भी तो मेहनत करनी पड़ेगी। ऐसे मुफ्त में तो मैं आपको डॉक्टर की नानी बनने नहीं दूॅगी।”
रेशमा ने वीथिका के एक हल्की सी चपत लगाई – ” ठीक है। आज से घर का सारा काम और लकी की देखभाल मैं करूॅगी। तुम लोग अपना सब्जी और फूलों वाला काम तो करना ही साथ ही थोड़े समय बाद एक सिलाई मशीन खरीद कर सिलाई का काम शुरू कर देना। लकी को डॉक्टर बनाने के लिये बहुत पैसे की जरूरत होगी।”
” मौसी, मुझे तो सिलाई आती ही नहीं है।” वीथिका गॉव की लड़की थी, उसे सचमुच ऐसे काम नहीं आते थे।
” कोई काम कठिन नहीं होता है। मैं एक कारखाने के मालिक को जानती हूॅ, वह एक कपड़ों की कटिंग करके स्त्रियों को घर से सिलने के लिये कपड़े देते हैं। उसमें कुछ विशेष नहीं करना होता है, केवल सीधी सी सिलाई करनी होती है। बहुत जल्दी तुम भी सीख जाओगी।”
फिर रेशमा ने कदम्ब से कहा – ” आज से तुम मेरे बेटा भी हो और दामाद भी। मैंने बहुत संघर्ष देखे हैं, बहुत ठोकरें खाई हैं। इसलिये जानती हूॅ कि मुझे लेकर आगे क्या होगा लेकिन जब तीनों एक साथ रहेंगे तो हर डर का मुकाबला करेंगे। तुम लोग चिन्ता मत करना, जो होगा देखा जायेगा।”
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मंगला मुखी (भाग-13) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral stories in hindi
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर