मन की अशांति – शिव कुमारी शुक्ला : Moral Stories in Hindi

माया जी शहर के अशांती भरे माहौल को छोड कर वापस अपने कस्बे जा रही थीं ।शहर की अशांति से तो निकल गई। किन्तु मन की अशांति से कैसे निकले। जो रह-रहकर मन में हूक मार रही थी। बेटे की बातों  ने हृदय छलनी कर दिया। यदि आज  बहू यह सब कहती तो शायद इतना बुरा न लगता

किन्तु खुद जाया बेटा माँ के प्रति इतनी कड़वाहट रखता है उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। मैं आपको  अब और नहीं रख सकता ।  आप बापस चली जाओ उसके  कहे ये शब्द  हथौडे की तरह  उनके कान में गूंज रहे थे। 

उन्होंने अपना सामान बैग में भरा और तुरन्त जाने को तैयार हो गई। बेटा भी  तुरंत उन्हें  गाड़ी में बैठा छोडने चल दिया। बिना सोचे कि आठ घंटे   का लम्बा सफर बैठे-बैठे कैसे  तय  होगा न कोई रिर्जवेशन कराया  न यह कहा मां  आज रूक जाओ पहले रिजर्वेशन करा दूं ।गाडी प्लेटफार्म पर आई

उसने एक सीट पर खिडकी  के पास सामान्य डिब्बे में उन्हें बैठा दिया, वहीं नीचे बैग रख दिया। गाड़ी में दोनों बैठे  रहे थे अब भी उनके  बीच मौन  ही पसरा था। माया जी उमडते आँसुओं को बरबस रोकने का प्रयास कर रहीं थीं। वे बेटे को आँसू भी नहीं दिखाना चाहतीं  थीं। 

बेटा रूपम बोला माँ मैं आपके लिए खाने को कुछ लाता हूं।

 नहीं रुप  मुझे कुछ नहीं चाहिए।

आप अभी भी नाराज हो मां ऐसा मैंने क्या कह दिया। लो ये कुछ रुपये रखलो काम आयेंगे।

 मुझे कुछ नहीं चाहिए माया जी  का आत्म सम्मान इतना आहत हो चुका था कि वे बेटे  से अब कुछ भी लेना नहीं  चाहती थीं।

 वे बोली में ठीक से बैठ गई अब तुम जाओ। अपना समय मत बर्बाद करो। वे बेटे को बद्दुआ भी नहीं दे सकती थी, किन्तु आशीष देने की इच्छा भी शेष नहीं रही थी। केवल  सूनी आँखों से उसे निहार रही थीं निःशब्द ,मौन । उसका कहा एक एक शब्द कानों में गूंज रहा था। वे जोर – जोर से रोना चाहती थीं पर बेटे के सामने नहीं।

तभी साडी ने सीटी  दी और चल पड़ी। अच्छा माँ पहुंच कर फोन कर देगा । 

वे निरूत्तर रहीं।

 तभी गाडी ने गति पकड ली और पीछे छूट गया  बेटा, बेटे का घर, बेटे का शहर जहाँ वे बडे ही हर्षोल्लास से रहने आईं थीं। बेटा उन्हें महीने भर भी न रख सका  जिस बेटे को पाल पोसकर उन्होंने पच्चीस वर्ष का किया। गाडीकी गति के साथ-साथ मन भी अतीत के मार्ग पर दौड़ पडा।

शादी के दो बर्ष बाद रूपम का जन्म हुआ। वे और उनके  पति शशांक इस सजीव खिलौने को पाकर निहाल हो गये। माता-पिता बनने की खुशी सुन्दर सा बेटा इसीलिए शशांक ने इसे नाम दिया था रूपम। जिन्दगी खुशहाल चल रही थी कि एक दिन ऑफिस से आते समय शशांक के स्कूटर को  कार ने टक्कर मार दी। शशांक की घटनास्थल पर ही मृत्यु हो गई। 

माया जी  समझ नहीं पा रहीं थीं कि अब वे क्या करें  गोद में रुपम  मात्र दो साल का। शंशाक के ऑफिस  में ही उन्हें नौकरी मिल गई ।किन्तु कम पढ़ी-लिखी  होने से निम्न  पद पर । पहले तो गुजारा हो जाता था किन्तु जब रूपम की पढ़ाई ऊंची हो गई तब फीस अधिक होने से उन्होंने अतिरिक्त आय के  लिए 

सिलाई का काम शुरु कर दिया । छोटा-सा रूपम उन्हें काम करते देखता तो कहता मम्मी  थक जाओगी अब सो जाओ। कभी कहता जब मैं बडा हो जाऊंगा तब आपको कोई काम  नहीं करने दूंगा। बहुत आराम दूंगा। और  आज वही रूपम इंजीनियर  बन गया। शादी  हो गई , इतने बड़े पद पर कार्यरत है

और मुझसे कह रहा है कि मैं आपका खर्चा नहीं उठा सकता ।आप अपने घर जाओ यहां मैं आपको और नही रख सकता। उनके  मन में दुःख की जोर से हिलोर उठी वे जोर से सिसक उठीं। कहाँ खो गया मेर छोरा सा रूप जिसे माँ की फ्रिक होती थी ।इससे तो अच्छा था बडा ही नहीं होता। उनका कसूर क्या था

बस इतना ही  न कि उन्होंने जब पार्टी में जाने को तैयार बहू  के छोटे कपडे देख कर टोक दिया ।कहा बेटा  कुछ तो मान मर्यादा का ख्याल करो वहाँ पार्टी में इतने पुरुषों के बीच ऐसे कपडों में जाओगी ।बस यह मेरी कही बात बेटे को इतनी नागवार लगी कि उसने मुझे रखने से ही  मना कर दिया।

गाडी की गति के साथ-साथ  उनके आँसूओं की गती भी नहीं रुक रही थी ।मन नितांत अशांत हो रहा था। घर पहुंचने पर तीन दिन बाद भी उन्होंने कोई  फोन नहीं किया बेटे को ।

बेटे का फोन आया   मां मैंने कह था  पहुंच कर फोन कर देना । 

 मैंने उसकी जरूरत नहीं समझी बेटा, तुम  खुश रहो कह फोन काट दिया। 

पेंशन के पैसे मिलते थे एवं अपना सिलाई का थोडा  बहुत काम कर  अपने स्वाभिमान के साथ  गुजारा कर रहीं थीं। 

किन्तु मन अशांत रहता। कभी -कभी पति शशांक  के फोटो के सामने रोतीं तुम मुझे यह सब देखने के लिए अकेला ही क्यों छोड़ गए। साथ होते तो मैं अपने को  अकेला असहाय न पाती, कम से कम दोनों मिलकर दुःख

बांट लेते।देखो अपने रूप को कितना बदल गया। शहर की अंशांति से माया जी दूर तो आ गईं  किन्तु मन की अशांति का क्या करें  जो जब तब नाग के फन की तरह उठ कर मन को उद्वेलित कर देती है।

शिव कुमारी शुक्ला 

14-7-24

स्वरचित मौलिक अप्रकाशित

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