मेघना बैठी सोच रही थी कि मैंने अपने बाइस साल पूर्ण रूप से तन मन से समर्पित हो साहिल को और इस घर को सजाने संवारने में दिये। बच्चों को पाल-पोस बडा किया। अब उम्र के इस पड़ाव पर जब बच्चों के कैरियर का पीक समय है उन्हें सेटल करने का समय है, पति-पत्नी को एक दूजे के साथ की ज़रूरत है तब साहिल को तलाक चाहिए । मुझे समझ नहीं आ रहा कि यह मेरे बाइस साल की सेवा, त्याग, सर्मपण के बदले
साहिल मुझे सजा दे रहे हैं या तोहफा । कारण मुझे समझ नहीं आ रहा । पुरूषों के लिए कितना आसान है इस उम्र में भी यह कहना कि मुझे दूसरी स्त्री मन भा गई है सो तुम्हें तलाक देकर उससे शादी करूंगा। तुम्हें रहने-खाने के लिए खर्च बराबर देता रहूंगा। क्या खर्चा देकर वह अपने दायित्व से मुक्त हो जाना चाहता है । क्या व्यक्ति की कमी पैसा पूरी कर देगा। क्यों साहिल क्यों यदि यहि बात मैं कहती
तो तुम और तुम्हारा यह समाज मुझे जीने नहीं देता। साहिल मंडप में फेरे लेते समय तुमने बचन दिया था कि दुख-सुख में कभी तुम्हारा साथ नहीं छोडूगां तो अब क्या हो गया। तुम्हें अपने बच्चों की भी चिन्ता नहीं है कि वे मानसिक रूप से बिखर जायेंगे। कुछ दिनों बाद उनकी शादी करने का समय है और तुम इस उम्र में विवाह करोगे।
आज तक सभी कार्यों के निर्णय हम दोनों मिलकर लेते थे फिर तलाक का निर्णय अकेले तुम कैसे ले सकते हो। उसमें मेरी सहमति कहां है।
दूसरे दिन साहित बोला मेघना तुम इस घर में रहना चाहोगी या नये घर में। और हां बच्चों के बारे में क्या सोचा है वे कहाँ रहेंगे।
मेघना बोली जहाँ हैं वहीं ठीक हैं। बच्चे वयस्क हैं अपना निर्णय स्वयं ले लेंगे । हां यह बात उन्हें बताने का साहस मुझमें नहीं तुम ही यह खुशबरी उन्हें दे देना ,फिर वे जो निर्णय लें।
मेघना ने अपनी गृहस्थी को टूटने से बचाने के लिए एक बार फिर साहिल को समझाने का प्रयास किया ।साहिल अपने बहके कदमों को रोको तुम एक प्रौढ़ व्यक्ति हो और वह अभी बच्ची है तुम्हारी बेटी से दो चार वर्ष ही बड़ी है। वह नासमझ है तो तुम तो उसे रोक सकते थे। उसके माता-पिता के बारे में सोचते आज यदि तुम्हारी बेटी के साथ कोई तुम्हारी उम्र का व्यक्ति यही करे तो तुम्हें कैसा लगेगा।
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मेघना ये सब बातें अब कोई मायने नहीं रखतीं हम बहुत आगे बढ़ चुके हैं। मैं चाहता हूं कि हम कोर्ट के चक्कर लगाने के बजाये यदि आपसी सहमति से तलाक ले लें तो हमें ज्यादा परेशानी नहीं होगी और काम भी जल्दी हो जायेगा ।
मेघना निरूत्तर थी।उसका स्वाभिमान अब उसे उसके साथ रहने को विवश नहीं कर रहा था
फिर ठीक है मैं जल्दी ही कार्यवाही कर तुम्हें बंधन से मुक्त कर दूंगा।
जब बच्चों से साहिल ने बात की तो वे एकदमअवाक रह गये । अंशुल तो गुस्से में चुप हो गया किन्तु बेटी आहना एकदम पापा से लिपट रो पड़ी। पापा में आपकी परी आपके बिना कैसे रहूंगी ।
साहिल बोला तो चलो मेरे साथ।
नहीं पापा मैं मम्मी के बिना भी नहीं रह सकती मुझे आप दोनों चाहिये।
यह संभव नहीं दोनों में से किसी एक को चुन लो।
प्राकृतिक था कि बच्चों ने माँ को चुना और साहिल यह कर बच्चों तुमसे मिलने कभी-कभी आया करूंगा चला गया। मेघना पथराई आंखों से उसे जाता देखती रही।
मन में इतनी वितृष्णा थी कि, न वह इस घर में रहना चाहती थी न उसके पैसों की मदद चाहती थी । किन्तु करे तो क्या। पहले साहिल ने काम नहीं करने दिया यह कह कर मैं हूं न कमाने के लिए फिर तुम्हें काम करने की क्या आवश्यकता है और अब मझधार में छोड़ किनारा कर लिया।इस उम्र में मुझे बिना अनुभव के कौन काम देगा। बच्चों की पढ़ाई सुचारू रूप से चलती रहे इसके लिए उसे उसकी सहायता स्वीकारनी ही पडेगी।
उसे ऐसे बेसुध बैठे देख बच्चे उसके पास आये और बोले मम्मी उठो हम हैं न आपके साथ। आज से आप हमारी मम्मी और पापा दोंनों हो। यह सुनते ही वह फूट-फूट कर रो पड़ी और बच्चों को अपने से चिपका कर जैसे उन्हें आश्वस्त करना चाह रही थी की वे सही कह रहे हैं ।
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समय का पंछी उड़ता रहता है कब कहीं स्थिर हुआ है। बच्चे पढ लिख गये। आज बेटे की नौकरी लग गई। वह बहुत खुश है।जीवन के ये चार बर्ष उसने कैसे बिताये हैं वही जानती है।
वह आज फिर विगत में विचरण करने लगी कैसे साहिल ने उसे अपने दोस्त की शादी में देखकर पंसद कर लिया था। फिर पूरा जोर लगाकर शादी करके ही दम लिया था। कितने खुश थे हम एक दूसरे का साथ पाकर दो बर्ष ऐसे ही हँसते खेलते निकल गये पता ही नहीं चला ।जब उसने साहिल से काम करने की बात कही तो बोला नहीं तुम कहाँ काम करोगी मैं हूं न करने के लिए।तुम्हारी अब पूरी जिम्मेदारी मेरी है
तुम तो बस ऐसे ही घर में खुश रहो और मेरा ख्याल रखो यही बहुत है। फिर तीसरे साल अंशुल का जन्म हुआ। हम बेटे को पाकर कितने खुश हुए थे। उसकी किलकारियों से हमारा घर गूंजता। दो बर्ष बाद आहना आई और हमारा परिवार पूरा हो गया। हम अपनी गृहस्थी में एकदम खुश थे। बच्चे बड़े हो रहे थे। कहीं कभी भी साहिल ने कोई शिकायत नहीं की , न मुझे उससे कोई शिकायत थी ।
फिर अचानक उसका साथ छोडना मुझे समझ नहीं आया।कोई इंसान इतना स्वार्थी कैसे हो सकता है। हमें एक दूसरे की आदत हो चुकी थी। साहिल ने ये भी न सोचा कि में उसके बिना कैसे जीऊँगी। उसने तो अपने लिए साथ ढूंढ लिया और मेरा क्या।बच्चों के कालेज जाने के बाद मुझे घर कैसे खाने दौड़ता। रात को बिस्तर पर तुम्हारे साथ
बिताए पलों को याद कर अकेली पड़ी कैसे तड़पती क्या तुम ये बातें कभी समझ पाओगे बीते दिनों की सुखद यादें हीं मेरे जीने का सम्बल थीं। जिन्दगी कट रही थी किन्तु मैं अन्दर से टूट चुकी थी। बच्चों का मनोबल न टूटे इसलिए हँस-बोल रही यी किन्तु अन्दर से मन रोता था।हमारा सुखी परिवार था पर न जाने और किस सुख की चाह में तुमने उसे बिखेर कर रख दिया।
पता नहीं हमारी खुशी को किसकी नजर लग गई और परिवार टूट गया। और इस टूटन का दंश झेला है मैंने और मेरे बच्चों ने। हमारी कोई गल्ती न होते हुए भी मैं परित्यकता कहलाईं, और पिता के होते हुए भी बच्चों ने, पिता ने छोड़ दिया है का ताना सुना। खैर मैं भी कहां भटक जाती हूं।
जीवन का यही नियम है सुख-दुख का संगम है ।पहले बहुत सुख देखा तो बाद में वियोग का दुख भी ।सब किस्मत का खेल है। यदि खुख न देखा होता तो दुख का अनुभव कैसे होता । इसी तरह जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं। शायद अब फिर सुख के दिन लौट आयें । बच्चे बड़े हो गये। अंशुल नौकरी करने लगा है। उसे जीवन में सेटल करना है। बच्चों की सुखी गृहस्थी देख कर ही मैं बापस सुख का अनुभव कर सकूं ।
किन्तु मन का एक कोना जो तुम्हारे जाने से रिक्त हुआ है वह शायद कभी नहीं भर पायेगा। यदि जीवन की सांझ में अपनी की गई भूल का पश्चाताप तुम्हें लौटा भी लाता है, तब भी नहीं क्योंकि अब रिश्ते में गांठ जो पड़ चुकी है।
शिव कुमारी शुक्ला
13-9-24
स्व रचित मौलिक एवं अप्रकाशित
सुख -दुख का संगम