“मैं तो जाऊँगी” – पुष्पा पाण्डेय

“अरे बहू !अंधेरे में  क्यों सोयी हो?”

बाहर से आती सासु माँ  की आवाज से अंधेरा होने का एहसास हुआ।

“हाँ माँ जी, अब अंधेरा दूर हो जायेगा।”

सुमन ने एक नयी स्फूर्ति और हल्के मन से कमरे में प्रकाश किया।उसी समय रश्मि  का फोन आया।

“सुमन!मैं कल नहीं जा पाऊँगी।”

“क्यों?तुम्हें तो स्पीच भी देना था।”

“हाँ यार,पर……मैं वहाँ फोन कर बता भी दिया कि मैं नहीं  आ रही हूँ।”

“पर क्यों?”

“कल ही पति ने    अपने बाॅस को  दोपहर के भोजन पर बुला लिया है।”

“लेकिन मैं तो जाऊँगी।”

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अभी भी सुमन के कानों में  रश्मि की वो आवाज गूँज रही थी। कल ही तो फोन किया था रश्मि ने। दिखावा कोई कितना भी कर ले, लेकिन कहीं-न- कहीं ….

कल मुझे भाषण देने वाली रश्मि आज………….

“सुमन! महिला-क्लब से निमंत्रण आया है, उसमें तुम्हारा भी नाम है।चलना है न?”

“अभी बता नहीं सकती।पति से पूछ कर फिर तुम्हें  फोन करूँगी।”

“अरे यार, तुम एक भी निर्णय स्वयं नहीं  ले सकती?छोटी-छोटी बात भी पूछ कर बताऊँगी। तुम नौकरी करती हो ।घर-बाहर सभी कुछ देखती हो।अब बच्चा भी बड़ा  हो चला है।लगता है तुम्हें आदत-सी पड़ गयी है पूछ कर जाने की।”

“हाँ, यही समझ लो।”

सुमन आज जल्दी घर आ गयी।एक-दो कक्षाएँ ही  लेनी थी।कपड़े बदले और एक कप चाय लेकर अपने कमरे में  चली गयी।चाय पीते-पीते चिन्तन की जंगलों में विचरण करने लगी–महिला क्लब में महिलाओं को सम्मानित किया जा रहा है। महिला दिवस मनाया जा रहा है।

क्या इस तरह एक दिन का आयोजन कर महिलाओं की स्थिति में बदलाव लाया जा सकता है?आयोजन में  महिला सशक्तिकरण की बात कही जाती है। बदलना महिलाओं को नहीं है,बदलना तो पुरूषों को है। कुछ अपवादों को छोड़ कर देखा जाए तो शायद ही  कोई  औरत पूरी तरह से स्वतंत्र हो?ऊपर से दिखावे के लिए स्वतंत्रता की चादर ओढ़ लिया है या ओढ़ा दिया गया है।क्या वह अपनी इच्छा से अपनी चाहत को पूरी कर सकती है?स्वतंत्रता का मतलब क्या—–मर्यादाओं में रहकर अपनी इच्छा से —-मैं बचपन में डाँ.बनना चाहती थी,लेकिन पिताजी ने शिक्षक बना दिया।पिता जी नाराज न हों इसलिए मैं और माँ दोनों चुप रहीं ।हाँ, दादी ने बोला जरूर था कि-

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लड़की को घर का काम सिखाओ।चिट्ठी लिखने आ गया।अब आगे पढ़ाने की क्या जरूरत है।खैर——काॅलेज में अध्यापक बन गयी।——मायके  से ससुराल आ गयी।सोचा था पिता जी की सोच पुरानी है। अब पति टोका-टोकी नहीं करेगा,लेकिन यहाँ भी पिता जी का प्रतिनिधि तैयार था।यदि नौकरी छोड़ती तो आरोप पति पर जाता कि नौकरी   छोड़वा दिया। भला पति इसे कैसे सहन कर सकते थे? फिर सासु माँ को घर में अतिरिक्त पैसा भी तो चाहिए था। ——सोचा, शायद पति को थोड़ा वक्त चाहिए।—- —वक्त भी मिला।

एक महीने बाद मायके गयी।नये-नये आभूषण और महंगी साड़ी में  देखकर सभी बहुत खुश थे।बेटी महरानी की तरह राज कर रही है।माँ अचानक पूछ बैठी।

“सुमन, ससुराल में सभी लोग अच्छे हैं न?

तुम खुश तो हो?”

“हाँ माँ, सभी अच्छे हैं।”

माँ चहकती हुई घर में सभी को नमक मिर्च लगाकर अपनी खनकती हुई आवाज में मेरे ससुराल वालों का गुणगान करती फिरने लगी।

“भगवान का आशीर्वाद है कि बेटी अच्छे घर में  चली गयी। अब मेरे मन को काफी शान्ति मिली और कलेजे को ठंढक पहुँची।”

मैं माँ की बातें खामोशी से सुनती रही। माँ का उदास चेहरा देखने की हिम्मत ही नहीं हुई।पिताजी भी यही समझ रहे थे कि बेटी इन्द्रलोक में शचि की तरह इन्द्र के साथ बैठी नृत्य देखती रहती है।———-




स्वभाव परिवर्तन का इंतजार करती रही और साथ ही परिवार में अपनी जगह बनाने की कोशिश।——

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पति के लिए तो मैं एक खूबसूरत सामान की तरह थी और बेड पार्टनर । सिर्फ काम की बात ही हो पाती थी।इसी अधेड़- बुन में आसु आ गया और अब तो पहली प्राथमिकता आसु बन गया। ससुराल वालों की चहेती बन गयी, लेकिन—-पति— मेरी सलाह कोई मानें या मुझ से सलाह लेकर कोई काम करें, इसमें तो उनका पुरुषत्व घायल ही हो जाता।अच्छे कपड़ो की मांग करो,जो जेवर चाहिए ले लो,और क्या चाहिए एक औरत को? कुछ लोग तो इतने जालिम होते हैं कि पत्नी को अच्छा खाना-कपड़ा भी नहीं देते हैं ।मैं ऐसे पुरूषों में  से नहीं हूँ।—सुनकर खामोश ही रहना पड़ता था।आवाज उठाने से कलह पैदा होता।आर्थिक रूप से सम्पन्न थी,अलग भी रह सकती थी ,लेकिन दोनों परिवार दुखी होता,और माँ —–फिर आसु।मैं अलग रहकर अपनी चाहत ,अपना सपना पूरा कर सकती थी।कल्पना की क्यारीयों में कविता के फूल खिल सकते थे।कवि की कल्पना साकार हो सकती थी।लोगों की, रिश्तेदारों की  परवाह नहीं भी करती तो क्या इतने अपनों को दुखी देख सकती थी? आसु को पिता के प्यार से बंचित कर सकती थी?–अपने पिता के लिए तो आसु उनकी मुस्कान था।इतने लोगों को दुखी कर क्या मैं खुश हो सकती थी? जहाँ इतने लोग खुश हैं वहाँ एक मेरी खुशी क्या इतनी मायने रखती हैं? महाभारत में भी तो युधिष्ठिर युद्ध जीतकर भी दुखी थे।उन्हें सिंहासन से वैराग्य हो गया था ।यदि अपने ही नहीं रहे तो फिर सिंहासन किस काम का? यदि  कृष्ण नहीं होते तो——और मेरा कृष्ण तो आसु है।

अब हमें भी अर्जुन की तरह सक्रिय होना है। दूसरों की खुशी के साथ अब अपनी खुशी का भी ख्याल रख सकती हूँ।




भले ही कल रश्मि स्वतंत्रता के सुख का दिखावा करने के क्रम में स्पीच दिया, लेकिन उससे मेरे मन का कुहरा छँटता- सा महसूस हो रहा है। कितना आग्रह कर बुलायी थी अध्यक्ष साहिबा ने।

पुष्पा पाण्डेय

राँची,झारखंड।

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