वीकेंड के बाद आज एंजेला को ऑफ़िस का काम निपटाते- निपटाते तीन बजने को आ गये थे। तभी बॉस ने एक ‘इम्पोर्टेन्ट पेपर’ टाइप करने के लिए भिजवाया जिसे आज ही करके देना था। इसे पूरा करने में पक्का दो घण्टे से कम नहीं लगने वाले थे। सोचा था आज जरा जल्दी निकलकर डॉ का ‘अपॉइंटमेंट’ ले लेगी जो पिछले कई दिनों से सोच रही थी। जो पांच बजे से मिलना शुरू होता था। कई दिनों से उसके पैर के निचले भाग में लगातार दर्द बना हुआ था। ये डॉ भी न अजीब है , निर्देश दे रखी है कि पेशेंट साथ में रहे या स्वयं रहे तभी अपॉइंटमेंट देना है। वरना वो किसी को भी भेजकर अपॉइंटमेंट ले लेती। अभी इसी उलझन में थी कि मोबाईल बज उठा। झुंझलाते हुए उसने फोन देखा उसकी सहेली की बहन ऋतु का फोन है। मन तो हुआ रिसीव न करे फिर न जाने क्या सोच कर रिसीव कर लिया कि ऑफ़िस ऑवर में वह प्रायः फोन जरूरी होने पर ही करती थी। फोन उठाने पर सुबकती हुई ऋतु ने पूछा- ‘कब तक घर पहुँचोगी?’
एंजेला ने पूछा- ‘क्या हुआ?’
ऋतु- ‘ वही कमीने ने फिर भयंकर लड़ाई की है।’
एंजेला- ‘किस बात पर?’
ऋतु- ‘घर पहुँचो तब फोन करना। फिर बताती हूँ।’
ठीक है, मैं बात करती हूं।’ ऋतु ने फोन रखते हुए कहा।
इस वक़्त वह बिल्कुल भी कुछ सुनने के मूड में नहीं थी। तभी पिउन को अपनी तरफ आते हुए देखा। आशंकित हो उठी , अब क्या फरमान लाया। लेकिन आते ही उसने कहा-‘ मैम! जो पेपर्स आज कम्पलीट करने थे , उसे आप कल भी दे सकती हैं।’
उसने मन ही मन चैन की सांस ली। अब वह अपना आज का सोचा हुआ काम पूरा कर सकेगी। थोड़ी देर को वो चेयर पर सिर टिका आंखे मुद आराम करना चाहती थी लेकिन तभी ऋतु के विचारों ने उसे आ घेरा। कोई और होता तो जिसतरह से ऋतु फोन पर रोते- सुबकते बात कर रही थी, डर जाता। पर उसके लिये ये नई बात नहीं थी। अक्सर ही तो उसकी आपस में लड़ाई होती रहती थी। आये दिन उसके पति का गाली-गलौज करना और खाना से रूठना उसकी आदत हो गयी थी। ऋतु परोसकर ले जाती , फिर भी न खाता। फिर बच्चों को भेज कर चिरौरी करवाती। जैसे- जैसे उसकी उम्र बढ़ती जा रही है वह और आक्रामक होते जा रहा है। इधर कुछ दिनों से जो कुछ सामने नज़र आ जाता है, उसे उठाकर फेंक मारता है। और ऋतु सबसे पहले अपने चेहरे को बचाने की कोशिश करती थी क्योंकि अपने आप से और अपने चेहरे से वह बहुत प्यार करती थी, बल्कि यूँ कहें कि नाज़ करती थी। शुरू- शुरू में ऋतु जब अपनी व्यथा उसे बताती तो वह कई दिनों तक अपसेट रहती थी। सोचती की किस तरह वह उसकी मदद कर सकती है। हरेक बात से अवगत कराती थी ऋतु उसे। एंजेला ने उसका मानसिक सम्बल बनने की हर सम्भव कोशिश की। पति और उसके बीच उम्र का काफी बड़ा फासला था। ऐसा लगता था जैसे उसका पति किसी मानसिक ग्रंथि से पीड़ित हो। हर समय उसके पहनावों को लेकर ताना कसते रहता तथा भुनभुनाते रहता था। एंजेला ने बहुत कोशिश की उसकी ग्रेजुएशन पूरी कराने की। उसको कंप्यूटर का प्रशिक्षण भी दिलाया। लेकिन क्या कहें वह इतने में ही आत्मविश्वास से लबरेज थी। घूमना- फिरना, शॉपिंग करना उसकी हॉबी थी। अपने साथ- साथ वह घर को भी ठीक ढंग से रखती। नए- नए डिज़ाइन के कपड़े पहनना, इतराना और अपने आप को ‘मॉडर्न’ कहलाने में उसे परम सुख की प्राप्ति होती थी। लोग भी उसकी इस मानसिकता को बखूबी पहचान चुके थे, अतः उसकी तारीफ करते और वह फूल कर कुप्पा होते रहती थी।
उसका पति बड़े हो रहे बच्चों के सामने आए दिन मारपीट व गली- गलौज करते रहता था। वह न केवल उसे बल्कि उसके मिलने जुलने वाले या मायके वालों के आने पर भी उटपटांग हरकत करता और अपमानित करता। ऋतु रोती- धोती फिर कुछ ही घंटों बाद सोसल साइट पर ग्लैमरस ‘क्लोजअप’ फोटो डालती। तारीफें पा खुश होती रहती। घर में हुई लड़ाइयों के बाद मेरे सामने रोटी- बिसूरती और हमेशा कहती- ‘ हां तुम्हारा तो ठीक है, तुम स्वावलंबी हो। हम ही नहीं कुछ कर सकें।’
मन ही मन मैं सोचती की करने को तो तुम बहुत कुछ कर सकती हो पर क्या इस सुविधाभोगी जीवन से समझौता कर सकोगी?
बस इसी तरह जिंदगी चलती आ रही है उसकी। पर्व- त्यौहारों की तो बात छोड़िये आम दिनों में भी सजना- संवारना उसका शगल था। ‘ करवा- चौथ ‘ बड़े उत्साह से मनाती, चाहे उसी दिन पति ने उसे दुत्कारा व लताड़ा ही क्यों न हो। सोलह- श्रृंगार कर दुल्हन की तरह सजती और सोशल मीडिया पर खूब फोटोज़ डालती। माथे पर गहरे सुर्ख रंग का सौभाग्य चिन्ह सारे फोटोज में दमकते दिखता। न केवल पर्व- त्योहार पर बल्कि अन्य फोटो में भी उसका सौभाग्य- रेखा ‘हाई लाइट’ होते रहता है। सौभाग्य के इस उत्सव में उसके इस श्रृंगार में मैं उसका सौभाग्य ढूंढती। कौन से सौभाग्य पर इतरा रही है ये ? और जो ये मॉडर्न दिखने व बनने का स्वांग रचती है क्या इसे ही ‘मॉडर्न’ कहते हैं ? क्या ही अच्छा हो यदि स्त्रियां गहने- कपड़े को सौभाग्य एवं आधुनिकता का प्रतीक मानने के बजाय विचारों से भी स्वतंत्र व आधुनिक होने का यत्न करतीं ? और प्रतिकार का स्वर निकालतीं। अपने पहले ‘थप्पड़’ पर आवाज़ न उठाने से विषम दाम्पत्य का भयावह चेहरा उभरकर न आता जिसमे पले बच्चे भी भविष्य में रुग्ण मानसिकता के शिकार होने से बच पाते। हैरानी होती है ऐसी स्त्रियों पर जो घरों में जुल्म सहते हुए दासत्व की इतनी आदी हो गयी हैं । काश! साज-श्रृंगार और पहनावा- ओढावा को ही अपना सौभाग्य न समझ और उससे बाहर निकल अपने आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए स्वयं का व्यक्तित्व स्थापित कर सकें। काश! ये आधुनिकता के छद्म दिखावे से बाहर निकल ‘मॉडर्न’ होने की वास्तविक अवधारणा को समझ पातीं। .
तभी किसी के कुर्सी खिसकाने से हुई चिरर्रर की आवाज़ से उसका ध्यान भंग हुआ। घड़ी में देखा चार बज गये थे। खिन्न मन से वह ऑफिस से निकलने की तैयारी करने लगी।
—–डॉ उर्मिला शर्मा, हजारीबाग, झारखंड।