मैं और मेरा अस्तित्व – दिक्षा बागदरे : Moral Stories in Hindi

मयूरी और साहिल जीवन के ऊस मोड़ पर खडे़ हैं । जहां उनके रिश्ते मे इतनी “कडवाहट” आ चुकी है कि उसे कोई भी प्यार का शरबत मीठा नही कर सकता।

मयूरी और साहिल का विवाह आज से 15 साल पहले हुआ था। हर आम वैवाहिक रिश्ते की तरह उनका भी रिश्ता था कभी प्यार, कभी लड़ाई, तो कभी खट्टी-मीठी नोक झोंक।

धीरे-धीरे परिवार भी बड़ा और जिम्मेदारियां भी। वक्त गुजरता जा रहा था।

मयूरी ने विवाह पश्चात अपनी हर जिम्मेदारी को बहुत अच्छे से निभाया था। जिस तरह हर रिश्ता प्यार, विश्वास की डोर से बंधा होता है और हर रिश्ते में हर किसी को कुछ ना कुछ समझौते अपने जीवन में करने ही होते हैं। ठीक उसी तरह मयूरी ने भी अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियां से कभी मुंह नहीं मोड़ा।

मयूरी सुशिक्षित एवं संस्कारी लड़की थी। शुरू से ही वह अपने पैरों पर खड़ा रहना चाहती थी। उससे लगता था कि “आत्मनिर्भरता ही उसके अस्तित्व की पहचान है।”

विवाह पूर्व भी वह नौकरी करती थी और विवाह पश्चात भी वह नौकरी करना चाहती थी। 

बस यहीं से शुरू हुआ तकरार का सिलसिला।

शुरुआत में जब उसने नौकरी कि तो परिवार में किसी को भी यह बात अच्छी नहीं लगी। सभी चाहते थे कि वह घर रहे और घर के कामकाज पर ध्यान दें। ऐसा नहीं था कि वह नौकरी पर जाती थी तो का घर पर ध्यान नहीं देती थी। मगर घर के सभी लोगों को ऐसा लगता था

कि जब-जब उन्हें आवश्यकता हो मयूरी सामने ही खड़ी रहे। मयूरी को साहिल से तो कम से कम यह अपेक्षा थी कि वह उसका साथ दे। मयूरी की नौकरी की वजह से घर में आए दिन कलह का वातावरण बना रहने लगा। और आखिरकार इस कलह से तंग आकर साहिल ने भी मयूरी से कह दिया कि मैं नहीं चाहता कि तुम नौकरी करो। 

बस यही “मैं” मयूरी और साहिल के रिश्ते के बीच पहली बड़ी कड़वाहट का कारण बना।

कई मौकों पर, कई रिश्तेदारियों में परिवार के लोग जब मयूरी को किसी भी बात पर कुछ भी सुना देते तो भी साहिल कभी भी मयूरी के साथ खड़ा नहीं होता था। वह कहती भी थी कि साहिल कम से कम आप तो मेरे साथ रहिए। तब भी फिर वही “मैं”- मैं अपने बड़ों से कुछ नहीं कहूंगा। तुम छोटी-छोटी बातों को बड़ा बना देती हो, इग्नोर करना सीखो। कुछ इसी तरह के वाक्य हमेशा ही साहिल के होते थे। 

बच्चों के लालन-पालन की बात हो, कहीं आने-जाने की बात हो। हर समय जब भी मयूरी को लगता की साहिल को उसका साथ देना चाहिए, हमेशा ही साहिल का “मैं” बीच में आ जाता था। मैं यह नहीं कर सकता। मैं यहां अभी नहीं जा सकता। मैं नहीं करूंगा। ऐसे और भी न जाने कितने “मैं” मयूरी और साहिल के बीच आते गए। और उन दोनों के रिश्ते को खा गए।

अक्सर घर के सभी महत्वपूर्ण निर्णय साहिल स्वयं ही लिया करते थे। वे मयूरी की राय को कम ही महत्व दिया करते थे। माना कि उनके लिए गए निर्णय परिवार की खुशी के लिए ही होते थे। फिर भी मयूरी चाहती थी कि कोई भी निर्णय लेने से पहले वे एक बार उससे पूछे तो। चलो ना भी पूछे तो कम से कम उसे पहले बताएं तो।

 मयूरी ने बहुत प्रयास किया कि यह “मैं” “हम” में बदल जाए पर ऐसा कभी हो ही नहीं पाया। एक कठपुतली मानिंद वह कब तक सबकी हां में हां मिलाती रहती।

आखिर कब तक

ऐसा नहीं था कि साहिल अपनी जिम्मेदारियां या कर्तव्यों से भाग रहा था। उसका भी अपना एक अतीत था। उसकी भी कुछ मजबूरियां थी। शायद इसीलिए वह खुलकर सामने नहीं आ पाता था। मयूरी का साथ नहीं दे पाता था।

ऐसा भी नहीं था कि मयूरी साहिल की परवाह नहीं करती थी या वह उसे समझती नहीं थी। दोनों के बीच प्यार भी बहुत था। 

पर उसे यह लगने लगा था कि मेरा अपना भी तो कोई अस्तित्व है ना

उसे भी तो ईश्वर ने यही एक जन्म दिया है। उसके भी तो अपने सपने हैं ना। जब हर कोई “मैं” में जी रहा है तो वह क्यों सबके लिए जिए

शुरुआती कुछ वर्षों तक तो मयूरी ने कई बार इस बात को साहिल को समझाने का प्रयास किया कि वह क्या चाहती है। 

ऐसा भी नहीं था कि साहिल मयूरी से प्यार नहीं करते थे। उन्हें उसकी परवाह नहीं थी। घर में आवश्यक सारी सुविधाएं उन्होंने उसके लिए मुहैया करवाई हुई थी।

मगर मयूरी को लगता था कि जिस तरह साहिल अपने परिवार के लिए कुछ करना चाहते हैं। अपने जीवन की सार्थकता को सिद्ध करना चाहते हैं। इसी तरह वह उनके “मैं” को छोड़कर मयूरी के बारे में क्यों नहीं सोचते

 वह उसे यह मौका क्यों नहीं देते कि वह भी स्वयं को सिद्ध कर सके। 

माना कि घर परिवार संभालना, बच्चों का पालन-पोषण करना, उनका शिक्षण देखना आदि सभी कार्य अच्छी तरह से कर रही थी।

 मगर उसके मन में हमेशा एक असंतुष्टि का भाव था क्योंकि उसके जीवन का उद्देश्य कभी भी केवल इतना ही करना नहीं था। 

बच्चे बड़े हुए तो मयूरी को लगा कि चलो अब वह थोड़ा समय स्वयं को भी दे पाएगी। शायद अब साहिल को कोई समस्या नहीं होगी उसकी आत्मनिर्भरता से।

मगर यह क्या साहिल तो जो थे वह थे ही, पर अब तो वह बच्चों में भी वही भाव अपने लिए देख रही थी। बच्चे भी उसे हर समय यह महसूस कराने लगे थे कि जैसे वह कुछ है ही नहीं।

यह बात मयूरी को अंदर तक खाए जा रही थी। मयूरी को लगने लगा था कि जीवन की ये “कड़वाहट” कैंसर की तरह उसे जकड़े जा रही है। इस “कड़वाहट” के साथ वह अब और नहीं जी पाएगी। 

आज उसने फैसला ले लिया था कि वह साहिल के साथ अब और नहीं रहेगी। अब वह अपने जीवन का एक नया अध्याय शुरू करेगी, अपने अस्तित्व को खोजेगी।

उसे जीवन में सारी सुख सुविधाओं से पहले अपने अस्तित्व का साथी हमसफर चाहिए था।

उसने अपना निर्णय साहिल को सुना दिया था। 

साहिल बहुत दुखी था। वह चाह रहा था कि मयूरी उसे छोड़कर ना जाए। उसने अब तक जीवन में जो कुछ किया है। मयूरी के लिए ही तो किया है। परिवार के लिए ही तो किया है।

वह मयूरी को समझाने का प्रयास भी कर रहा था। मगर इन सब बातों के लिए अब बहुत देर हो चुकी थी। दिए तो मयूरी ने भी अपने जीवन के महत्वपूर्ण 15 साल थे। 

अब मयूरी का हर रिश्ते से मोह भंग हो चुका था। अब किसी भी रिश्ते का कोई बंधन वह नहीं चाहती थी।

जीवन में जाने-अनजाने हम अपने अपनों के साथ कुछ ऐसा कर जाते हैं कि ना चाहते हुए भी हमारे अपनों को कुछ ऐसे  निर्णय लेने पड़ते हैं, जिनकी “कड़वाहट” नासूर बन जाती है।

 स्वरचित 

 दिक्षा बागदरे 

19/06/2024

#कड़वाहट

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